पटना: Indepandance Day 2023: भारत की आजादी में बिहार के स्वतंत्रता सेनानियों का महती योगदान रहा है. ऐसे में हम आज आपको बिहार के जिस स्वतंत्रता सेनानी के बारे में बताने जा रहे हैं उस शख्सियत को पूरा देश बिहार विभूति के नाम से जानता है. हम बात कर रहे हैं डॉक्टर अनुग्रह नारायण सिंह का. बता दें कि डा. अनुग्रह नारायण सिन्हा का जन्म औरंगाबाद जिले के पोईवां नामक गांव में 18 जून 1887 को हुआ था. उनके पिता ठाकुर विशेश्वर दयाल सिंह अपने इलाके के एक वीर पुरुष थे. फिलहाल उनके पुश्तैनी गांव में उनका पैतृक घर खंडहर हो चुका है. 


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डॉक्टर अनुग्रह नारायण सिंह शिक्षा ने 1900 में औरंगाबाद मिडिल स्कूल, 1904 में गया जिला स्कूल और उसके बाद 1908 में पटना कॉलेज में से अपनी शिक्षा प्राप्त की. जिस समय वह पटना कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करने के लिए आये उस समय देश के शिक्षित व्यक्तियों के हृदय में गुलामी की वेदना का अनुभव होने लगा था और इस जंजीर में जकडी हुई मानवता का चित्कार अब उन्हें सुनायी पड़ने लगा था. वे उस जंजीर को तोड़ फेंकने के लिए व्याकुल होने लगे थे. उनका हृदय भी भारतमाता की सेवा के लिए तड़प उठा. सर्फूद्दीन के नेतृत्व में ‘बिहारी छात्र सम्मेलन ’ नामक संस्था संगठित की गई, जिसमें देशरत्न राजेन्द्र बाबू और अनुग्रह बाबू जैसे मेधावी छात्रों को कार्य करने तथा नेतृत्व करने का सुअवसर प्राप्त हुआ. उन्होंने महात्मा गांधी एवं डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद के साथ चंपारण सत्याग्रह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी. वे आधुनिक बिहार के निर्माताओं में से एक थे. 


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प्रभावशाली पद पर होने के बावजूद उन्होंने अपना पूरा जीवन सादगी से बिताया. बिहार के लिए उन्होंने बहुत से ऐसे काम किये थे, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता है. उनके कार्यकाल में बिहार में उद्योग-धंधों का जाल बिछा. अनुग्रह बाबू ने 13 वर्षों तक बिहार की अनवरत सेवा की. वे बिहार प्रांत के उप-प्रधानमंत्री और आज़ादी के बाद पहले उपमुख़्यमंत्री सह वित्त मंत्री रहे और साथ ही एक दर्ज़न विभागों के मंत्री रहे परन्तु उनमें इतनी सरलता थी कि सरकारी यात्राओं में भी स्वयं की तनख्वाह से भोजन करते थे और बिहार के सुदूर हिस्सों तक बिना किसी काफिले और पुलिस सुरक्षा के अपनी खुद की गाड़ी से चले जाते थे, यही कारण था की बिहार के जनमानस ने उन्हें बिहार विभूति के अलंकार से सुशोभित किया और बिना किसी प्रचार प्रसार के उनके आगमन पर भीड़ जमा हो जाया करती थी. 


चम्पारण से इन्होंने अंग्रेजों के विरूद्ध अपना सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया था. वे देश के उन गिने-चुने सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में से थे जिन्होंने अपने छात्र जीवन से लेकर अंतिम दिनों तक राष्ट्र और समाज की सेवा की. उन्हें वकालत करते हुए अभी एक वर्ष भी नहीं बीता था कि चम्पारण में नील आंदोलन उठ खड़ा हुआ. इस आंदोलन ने उनके जीवन की धारा ही बदल दी. चम्पारण के किसानों की तबाही का समाचार जब महात्मा गांधी से सुना तो वे विचलित हो उठे. मुजफ्फरपुर के कमिश्नर की राय के विरुद्ध गांधीजी चम्पारण गये और जांच कार्य प्रारंभ कर दिया. इसमें कुछ ऐसे वकीलों की आवश्यकता थी, जो निर्भीकता पूर्वक कार्य कर सकें और समय आने पर जेल जाने के लिए भी तैयार रहें. इस विकट कार्य के लिए वृज किशोर बाबू के प्रोत्साहन पर राजेन्द्र बाबू के साथ ही अनुग्रह बाबू भी तत्पर हो गये. उन्होंने इसकी तनिक भी चिंता नहीं की कि उनका पेशा नया है और उन्हें भारी क्षति उठानी पड़ सकती है. चम्पारण का किसान आंदोलन 45 महीनों तक जोरशोर से चलता रहा. अनुग्रह बाबू बराबर उसमें काम करते रहे और आखिर तक डटे रहे. स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता का पाठ उन्हें गांधीजी के आश्रम में ही रहकर पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ. अनुग्रह बाबू ने चम्पारण के नील आंदोलन में गांधीजी के साथ लगन और निर्भीकता के साथ काम किया और आंदोलन को सफल बनाकर उनके आदेशानुसार 1917 में पटना आये. सन्‌ 1920 के दिसंबर में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ, जिसमें अनुग्रह बाबू ने भी भाग लिया. सन्‌ 1929 के दिसंबर में सरदार पटेल ने किसान संगठन के सिलसिले में मुंगेर आदि शहरों का दौरा किया, तब अनुग्रह बाबू सभी जगह उनके साथ थे. 26 जनवरी 1930 को सारे देश में स्वतंत्रता की घोषणा पढ़ी गई. अनुग्रह बाबू को भी कई स्थानों में घोषण पत्र पढ़ना पड़ा. 


कुछ दिनों के बाद महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर दिया. उस सिलसिले में उन्हें चम्पारण, मुजफ्फरपुर आदि स्थानों का दौरा करना पड़ा. 26 जनवरी 1933 को जब पटना में अनुग्रह बाबू आजादी की घोषणा पढ़ रहे थे, उसी समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें 15 महीने की सजा हुई और उन्हें हजारीबाग जेल भेज दिया गया. जिस समय वे जेल में थे, बिहार में  प्रलयंकारी भूकंप आया. हृदय विदारक समाचारों को पढ़कर उनका हृदय दर्द से कराह उठा. चहारदीवारी के अंदर बंद रहने के कारण ये कोई राहत कार्य नहीं कर सकते थे. लेकिन, सरकार ने तीन हफ्तों के बाद इन्हें छोड़ दिया. छूटते ही अनुग्रह बाबू राहत कार्य में लग गए. 


सन्‌ 1940 को मार्च महीने में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन रामगढ़ में हुआ. अधिवेशन का संपूर्ण भार अनुग्रह बाबू के कंधे पर था. उसमें जो अपनी तत्परता दिखलाई उसके फलस्वरूप ही कांग्रेस का अधिवेशन सफल हुआ. देश की परिस्थिति को देखते हुए जब गांधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह अपनाया तब उनके प्रिय सहयोगी अनुग्रह बाबू कब चूकने वाले थे. फलस्वरूप 1940 को वह गिरफ्तार कर लिये गये और अगस्त 1941 में रिहा हुए. गांधीजी का ‘करो या मरो’ का नारा बुलंद हुआ. 7 अगस्त 1942 को गांधीजी गिरफ्तार किये गये.इस दौरान 10 अगस्त को अनुग्रह बाबू भी जब अपने मित्रों से मिलने गये तो गिरफ्तार कर लिये गये. सन्‌ 1944 में जब सारे कांग्रेसी नेता जेल से मुक्त किये जाने लगे, तो अनुग्रह बाबू भी कारावास की कैद से आजाद कर दिये गये.


1937 में ही बाबू साहब बिहार प्रान्त के वित्त मंत्री बने. अनुग्रह बाबू बिहार विधानसभा में 1937 से लेकर 1957 तक कांग्रेस विधायक दल के उप नेता थे. 1946 में जब दूसरा मंत्रिमंडल बना तब वित्त और श्रम दोनों विभागों के पहले मंत्री बने और उन्होंने अपने मंत्रित्व काल में विशेषकर श्रम विभाग में अपनी न्याय प्रियता लोकतांत्रिक विचारधारा एवं श्रमिकों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का जो परिचय दिया वह सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय है. श्रम मंत्री के रूप में अनुग्रह बाबू ने ‘बिहार केन्द्रीय श्रम परामर्श समिति’ के माध्यम से श्रम प्रशासन तथा श्रमिक समस्याओं के समाधान के लिए जो नियम एवं प्रावधान बनाये वे आज पूरे देश के लिये मापदंड के रूप में काम करते हैं. तृतीय मंत्रिमंडल में उन्हें खाद, बीज, मिट्‌टी, मवेशी में सुधार लाने के लिए शोध कार्य करवाए और पहली बार जापानी ढंग से धान उपजाने की पद्धति का प्रचार कराया. पूसा का कृषि अनुसंधान फार्म उनकी ही देन है. इस तेजस्वी महापुरुष का निधन 5 जुलाई 1957 को पटना में बीमारी के कारण हुआ. उनके सम्मान में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने सात दिन का राजकीय शोक घोषित किया, उनके अन्तिम संस्कार में विशाल जनसमूह उपस्थित था. अनुग्रह बाबू 2 जनवरी 1946 से अपनी मृत्यु तक बिहार के उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री रहे. अनुग्रह बाबू बिहार विधानसभा में 1937 से लेकर 1957 तक कांग्रेस विधायक दल के उप नेता थे. प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह एवं उनकी जोड़ी मिसाल मानी जाती है. 1988 में भारतीय डाक विभाग द्वारा उनके तस्वीर का डाक टिकट भी जारी किया गया था. 


Report: Manish Kumar