पटना: jayaprakash narayan death anniversary: तारीख है 8 अक्टूबर. कैलेंडर में इस तारीख के नीचे दर्ज है पुण्यतिथि- लोकनायक जय प्रकाश नारायण. 1979 से आज तक धरती सूर्य 43 चक्कर लगा चुकी है, लेकिन भारतीय राजनीति पर जब भी निरंकुशता की परत चढ़ती है, जेपी की वैचारिक आवाज कानों में इतनी जोर से गूंजती है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति विशेष को ये याद आ जाता है कि असल में वो नहीं संविधान ही सरकार है. जेपी इसी एक बात को जोर से कहने के लिए जाने जाते हैं. किसी भी संवैधानिक, गणतांत्रिक देश के लिए जो सबसे जरूरी लाइन है, जेपी उसके झंडा बरदार रहे हैं. उन्हें लोकनायक की उपाधि दिए जाने का भी यही कारण है. 


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जेपी कौन थे, क्या थे, कहां थे, क्या किया था? ऐसे तमाम सवालों के जवाब आपने तमाम बार बड़े-छोटे आर्टिकल में पढ़ लिया होगा. आज जानिए उनके जीवन काल में उन्हीं के व्यक्तित्व, उनके विषय में बताने वाली कविताएं जिसे असल जनकवियों ने उन्हें समर्पित किया था. इन कवियों में ओज के कवि रामधारी सिंह दिनकर का नाम प्रसिद्ध है. उनकी अलग-अलग समय में लिखी दो कविताएं सीधे-सीधे जीवन से जुड़ गईं. वहीं धर्मवीर भारती एक कविता ने तो सीधे तौर पर लोगों में जेपी का विश्वास बढ़ाने का कार्य किया. 


पहले पढ़िए रामधारी सिंह दिनकर की वह पंक्तियां, जिनसे जेपी का स्वाभाविक परिचय मिलता है. यह कविता उन्होंने 1946 में जे.पी. के जेल से रिहा होने के बाद लिखी थी और पटना के गांधी मैदान में जेपी के स्वागत में उमड़ी लाखों लोगों के सामने पढ़ी थी- 


झंझा सोई, तूफान रुका, प्लावन जा रहा कगारों में;
जीवित है सबका तेज किन्तु, अब भी तेरे हुंकारों में।
दो दिन पर्वत का मूल हिला, फिर उतर सिन्धु का ज्वार गया,
पर, सौंप देश के हाथों में वह एक नई तलवार गया।


'जय हो' भारत के नये खड्ग; जय तरुण देश के सेनानी!
जय नई आग! जय नई ज्योति! जय नये लक्ष्य के अभियानी!
स्वागत है, आओ, काल-सर्प के फण पर चढ़ चलने वाले!
स्वागत है, आओ, हवनकुण्ड में कूद स्वयं बलने वाले!
मुट्ठी में लिये भविष्य देश का, वाणी में हुंकार लिये,
मन से उतार कर हाथों में, निज स्वप्नों का संसार लिये।
सेनानी ! करो प्रयाण अभय, भावी इतिहास तुम्हारा है;
ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है।


जो कुछ था निर्गुण, निराकार, तुम उस द्युति के आकार हुए,
पी कर जो आग पचा डाली, तुम स्वयं एक अंगार हुए।
साँसों का पाकर वेग देश की, हवा तवी-सी जाती है,
गंगा के पानी में देखो, परछाईं आग लगाती है।
विप्लव ने उगला तुम्हें, महामणि, उगले ज्यों नागिन कोई;
माता ने पाया तुम्हें यथा, मणि पाये बड़भागिन कोई।
लौटे तुम रूपक बन स्वदेश की, आग भरी कुरबानी का,
अब "जयप्रकाश" है नाम देश की, आतुर, हठी जवानी का।


कहते हैं उसको "जयप्रकाश", जो नहीं मरण से डरता है,
ज्वाला को बुझते देख, कुण्ड में, स्वयं कूद जो पड़ता है।
है "जयप्रकाश" वह जो न कभी, सीमित रह सकता घेरे में,
अपनी मशाल जो जला, बाँटता फिरता ज्योति अँधेरे में।


है "जयप्रकाश" वह जो कि पंगु का, चरण, मूक की भाषा है,
है "जयप्रकाश" वह टिकी हुई, जिस पर स्वदेश की आशा है।
हाँ, "जयप्रकाश" है नाम समय की, करवट का, अँगड़ाई का;
भूचाल, बवण्डर के ख्वाबों से, भरी हुई तरुणाई का।
है "जयप्रकाश" वह नाम जिसे, इतिहास समादर देता है,
बढ़ कर जिसके पद-चिह्नों को, उर पर अंकित कर लेता है।
ज्ञानी करते जिसको प्रणाम, बलिदानी प्राण चढ़ाते हैं,
वाणी की अंग बढ़ाने को, गायक जिसका गुण गाते हैं।


आते ही जिसका ध्यान, दीप्त हो प्रतिभा पंख लगाती है,
कल्पना ज्वार से उद्वेलित, मानस-तट पर थर्राती है।
वह सुनो, भविष्य पुकार रहा, "वह दलित देश का त्राता है,
स्वप्नों का दृष्टा "जयप्रकाश", भारत का भाग्य-विधाता है।"


रामधारी सिंह दिनकर, सिंहासन खाली करो, कविता जब लिखी, तो उसका उद्देश्य जेपी की बात को कहना नहीं था. दिनकर जी ने यह कविता 26, जनवरी 1950 के ऐतिहासिक अवसर पर लिखी थी जब हमारा संविधान लागू हुआ था और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का उदय हुआ था. लेकिन,आज से 48 साल पहले यानी कि 5 जून 1974 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था और गांधी के सपनों का भारत बनाने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन किया था. इस आंदोलन से बिहार गहरे रूप से प्रभावित हुआ था. जेपी ने सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, ये नारा दिया और संपूर्ण क्रांति के लिए बिगुल बजा कर मैदान में कूद पड़े. इस तरह दिनकर की ये कविता उनकी क्रांति की कविता बन गई. 


सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
 
जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली.


जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"


मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में.


लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.


हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है.


अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं.


सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो.


आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में.


फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.


इससे पहले 1974 में वह सरकार की नीतियों के विरोध में अपना स्वर मुखर कर चुके थे. इसका असर सरकार और लोगों दोनों पर पड़ रहा था. जहां लोग उनकी बातों से उनके साथ जुड़ते जा रहे थे तो वहीं सरकार लगातार ऐसे लोगों पर शिकंजा कसते जा रही थी. जेपी भारतीय लोकतंत्र की आत्मा की आवाज बन चुके थे. इसीलिए 1974 में वे भारतीय लोकतंत्र के सन्नाटे में सत्य की आवाज के रूप में जिस तरह प्रकट होते हैं उसका वर्णन करते हुए धर्मवीर भारती प्रसिद्ध कविता ‘मुनादी’ में लिखते हैं-


खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का…
हर खासोआम को आगाह किया जाता है
खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अंदर से
कुंडी चढ़ाकर बंद कर लें
गिरा लें खिड़कियों के पर्दे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि एक बहत्तर साल का बूढ़ा आदमी
अपनी कांपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है.


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