भोलेनाथ का पहला कांवड़िया था रावण, जानिए क्या है सावन की कावड़ यात्रा का महत्व
सावन महीने की शुरुआत होने के साथ ही कावड़ यात्रा भी शुरू हो जाती है. कांवड़ यात्रा को लेकर भोले भक्तों में खासा उत्साह होता है. शिव भक्त कांवड़ लेकर गंगाजल लेने जाते हैं.
पटना: सावन महीने की शुरुआत होने के साथ ही कावड़ यात्रा भी शुरू हो जाती है. कांवड़ यात्रा को लेकर भोले भक्तों में खासा उत्साह होता है. शिव भक्त कांवड़ लेकर गंगाजल लेने जाते हैं. फिर उस जल से भोलेनाथ का जलाभिषेक करते हैं.
क्या है कावड़ ले जाने की मान्यता
हरिद्वार के ज्योतिषाचार्य प्रतीक मिश्र पुरी बताते हैं कि अगर प्राचीन ग्रंथों, इतिहास की मानें तो कहा जाता है कि पहला कांवड़िया रावण था. वेद कहते हैं कि कांवड़ की परंपरा समुद्र मंथन के समय ही पड़ गई. तब जब मंथन में विष निकला तो संसार इससे त्राहि-त्राहि करने लगा. तब भगवान शिव ने इसे अपने गले में रख लिया. लेकिन इससे शिव के अंदर जो नकारात्मक उर्जा ने जगह बनाई, उसको दूर करने का काम रावण ने किया.
रावण के तप से शिवा उर्जा से मुक्त हुए
रावण ने तप करने के बाद गंगा के जल से पुरा महादेव मंदिर (उत्तर प्रदेश के बागपत में जिले में पड़ता है) में भगवान शिव का अभिषेक किया, जिससे शिव इस उर्जा से मुक्त हो गए. वैसे अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरूआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया. कई पुराने चित्रों में भी ये दिखाया गया है. लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत तामझाम से नहीं होती थी.
80 के दशक के बाद आया बदलाव
कुछ साधु और श्रृद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था. 80 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा. अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है.
पौराणिक ग्रंथों में एक मान्यता कांवड़ को लेकर और भी आती है. कहा जाता है कि जब राजा सगर के पुत्रों को तारने के लिए भागीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर आने के लिए मनाया तो उनका वेग इतना तेज था कि धरती पर सब कुछ नष्ट हो जाता. ऐसे में भगवान शिव ने उनके वेग को शांत करने के लिए उन्हें अपनी जटाओं में धारण कर लिया और तभी से यह माना जाता है कि भगवान शिव को मनाने के लिए गंगा जल से अभिषेक किया जाता है.
इस यात्रा को कांवड़ यात्रा क्यों कहा जाता है
क्योंकि इसमें आने वाले श्रृद्धालु चूंकि बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ पहुंचते हैं और इन्हीं टोकरियों में गंगाजल लेकर लौटते हैं. इस कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इसलिए इस यात्रा कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िए कहा जाता है. पहले तो लोग नंगे पैर या पैदल ही कांवड़ यात्रा करते थे लेकिन अब नए जमाने के हिसाब से बाइक, ट्रक और दूसरे साधनों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं.
आमतौर पर बिहार, झारखंड और बंगाल या उसके करीब के लोग सुल्तानगंज जाकर गंगाजल लेते हैं और कांवड़ यात्रा करके झारखंड में देवघर के वैद्यनाथ मंदिर या फिर बंगाल के तारकनाथ मंदिर के शिवालयों में जाते हैं. एक मिनी कांवड़ यात्रा अब इलाहाबाद और बनारस के बीच भी होने लगी है.
बता दें कि इस बार सावन का पहला सोमवार 18 जुलाई को पड़ रहा है. दूसरा सोमवार 25 जुलाई को होगा. जबकि तीसरा सोमवार 1 अगस्त को होगा और चौथा सोमवार 8 अगस्त को होगा. सावन महीने की अंतिम तिथि 11 अगस्त रक्षाबंधन को होती है. रक्षाबंधन के दिन सावन महीना समाप्त हो जाता है.
(आईएएनएस)