Swami Swaroopanand Saraswati: ब्रह्मलीन हुए शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती, मध्य प्रदेश में ली अंतिम सांस
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Swami Swaroopanand Saraswati: शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के पास बद्री आश्रम और द्वारकापीठ की जिम्मेदारी थी. उनका जब ईश्वर चरण में समागम हुआ तब वह अपने आश्रम में ही थे. बताया जाता है कि स्वामी स्वरूपानंद पिछले कई दिनों से बीमार चल रहे थे.
पटना/नई दिल्ली: द्वारका की शारदा पीठ और ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती रविवार को ब्रह्मलीन हो गए. वह 99 साल के थे और हाल ही में 3 सितंबर को उनका जन्मदिवस मनाया गया था. स्वामी शंकराचार्य मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर के झोतेश्वर मंदिर में अपनी अंतिम सांस ली. शंकराचार्य ने राम मंदिर निर्माण के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी. आजादी के आंदोलन में भी भाग लिया. स्वरूपानंद सरस्वती को हिंदुओं का सबसे बड़ा धर्मगुरु माना जाता था. अंतिम समय में शंकराचार्य के अनुयायी और शिष्य उनके समीप थे. उनके बृह्मलीन होने की सूचना के बाद आसपास के क्षेत्रों से भक्तों की भीड़ आश्रम की ओर पहुंचने लगी.
मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में हुआ था जन्म
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के पास बद्री आश्रम और द्वारकापीठ की जिम्मेदारी थी. उनका जब ईश्वर चरण में समागम हुआ तब वह अपने आश्रम में ही थे. बताया जाता है कि स्वामी स्वरूपानंद पिछले कई दिनों से बीमार चल रहे थे. उनका नरसिंहपुर जिले में स्थित झोतेश्वर आश्रम में ही इलाज चल रहा था. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म मध्यप्रदेश राज्य के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा था. महज नौ साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ धर्म की यात्रा शुरू कर दी थी.
स्वामी स्वरूपानंद ने ली दंड दीक्षा
इस दौरान वो उत्तरप्रदेश के काशी भी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली. आपको जानकर हैरानी होगी कि साल 1942 के इस दौर में वो महज 19 साल की उम्र में क्रांतिकारी साधु के रुप में प्रसिद्ध हुए थे. क्योंकि उस समय देश में अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई चल रही थी. स्वामी स्वरूपानंद ने साल 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाये गए और 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली. साल 1950 में ज्योतिषपीठ के ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे.