वहीदा रहमान को `लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड`, जानें उनसे जुड़े कुछ अनकहे किस्से
मंगलवार को केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने जब ऐलान किया कि इस साल का `दादा साहब फाल्के लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड` अपने जमाने की मशहूर अदाकार वहीदा रहमान को दिया जाएगा तो एक बार फिर घुंघराले बालों वाली एक हसीन चेहरे की तस्वीर सबकी आंखों के आगे मंडराने लगा.
Bihar News: मंगलवार को केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने जब ऐलान किया कि इस साल का 'दादा साहब फाल्के लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड' अपने जमाने की मशहूर अदाकार वहीदा रहमान को दिया जाएगा तो एक बार फिर घुंघराले बालों वाली एक हसीन चेहरे की तस्वीर सबकी आंखों के आगे मंडराने लगा. अनुराग ठाकुर ने अपने ट्वीट में वहीदा रहमान की कई फिल्मों का जिक्र किया, उन्होंने गाइड(1965), प्यासा (1957), काग़ज़ के फूल (1959), कभी-कभी (1976) और रंग दे बसंती (2006) जैसी फिल्मों का नाम लिखा. सभी फिल्में वहीदा रहमान की अभिनय कला की बेजोड़ मिसाल हैं. लेकिन हम सब के लिए वहीदा रहमान का मतलब है 'मारे गए गुलफाम यानी तीसरी कसम' की हीराबाई. तीसरी कसम यानी वही फिल्म जिसे फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पर मशहूर गीतकार शैलेंद्र ने बनाया था और जिसकी नायिका यानी हीराबाई बनी थी वहीदा रहमान और नायक थे मशहूर शोमैन राजकपूर.
फणीश्वरनाथ रेणु ने खुद 'तीसरी कसम' में वहीदा रहमान को चुने जाने का प्रसंग विस्तार से लिखा था. उनकी रिपोर्ट धर्मयुग के 11 सितंबर 1964 के अंक में प्रकाशित हुई थी. इस लेख को उनकी पुस्तक 'समय की शिला पर' में 'स्मृति की एक रील' शीर्षक नाम से भी संकलित किया गया है.'
ये भी पढ़ें- झारखंड में डेंगू का आतंक, पश्चिमी सिंहभूम बना हॉटस्पॉट, अस्पतालों में बेड फूल
धर्मयुग में प्रकाशित अपने लेख 'स्मृति की एक रील' में रेणु जी लिखते हैं...
उस रात की याद, जब मैं पहली बार बंबई आया था. शैलेंद्रजी ने मुझसे पूछा था, "अच्छा! कहानी लिखते समय आपके सामने हीराबाई की कोई तस्वीर तो ज़रूर होगी. अब, जबकि फिल्म की बात हो रही है, तो फिल्म इंडस्ट्री में आपकी उस मूरत से कोई सूरत मिलती-जुलती नज़र आती है? यानी, आप किसको इस भूमिका के लिए..."
मैंने हंसकर जवाब दिया था, "भाई! हम लोग काननबाला, उमाशशि, यमुना, देविका रानी, सुलोचना और नसीम वगैरह के युग में सिनेमा देखा करते थे. अब तो सब चेहरे एक ही सांचे में ढले से लगते हैं. किसका क्या नाम है, याद ही नहीं रहता."
"यह तो बात को टालनेवाली बात हुई." वे हंसे थे.
थोड़ी देर के बाद मैंने कहा था, "वह एक....'प्यासा' में माला सिन्हा के साथ कोई लड़की थी न...?"
शैलेंद्र ने बासु भट्टाचार्य की ओर देखा और बासु के मुंह से एक किलकारी के साथ निकला था---'स्साला !'....मैं जानता था, यह कोई गाली नहीं। बंगाली विद्यार्थी जब किसी बात पर बहुत खुश होते हैं, तो उनके मुंह से यह शब्द अनायास ही निकल पड़ता है? किंतु मैं झेंप गया था--शायद मैं किसी ग़लत और सर्वथा 'मिसफिट' चेहरे की बात कह गया.
शैलेंद्रजी 'ताड़' गए थे. " हमारे मन में भी उसी की सूरत है. आप क्या सचमुच उसका नाम नहीं जानते? वह वहीदा रहमान है."
दूसरे या तीसरे दिन शैलेंद्र वहीदा रहमान को कहानी सुनाने गए, कहते हैं 'तीसरी कसम' यानी 'मारे गए गुलफाम' की कहानी सुनकर वहीदा रहमान की आंखें छलक गईं.
तो इस तरह हीराबाई की तलाश पूरी हुई और पर्दे पर राजकपूर के साथ वहीदा रहमान की ऐसी केमेस्ट्री नज़र आई जिसकी खुमारी क़रीब 6 दशकों के बाद आज भी हिन्दी सिनेमा के दर्शकों पर भारी है.
इतना ही नहीं मैला आंचल के अमर रचनाकार फणीश्वरनाथ रेणु वहीदा रहमान के इस तरह मुरीद थे कि उन्होंने अपनी छोटी बेटी का नाम वहीदा रहमान रखा. यहां ये भी जानना दिलचस्प है, कि आज भी हिन्दु घरों में मुसलमान नाम और मुसलमान घरों में हिन्दू नामों का चलन नहीं है. बहुत पहले रेणु जी के बड़े बेटे पद्मपराग वेणु ने एक टीवी साक्षात्कार में कहा भी था कि पिताजी (रेणु) कहा करते थे कि मैं अपनी छोटी बेटी वहीदा रहमान की शादी किसी मुसलमान लड़के से करूंगा. हालांकि अपनी छोटी बेटी की शादी तक फणीश्वरनाथ रेणु जीवित नहीं रहे और पद्मपराग वेणु ने अपनी छोटी बहन की शादी की. लेकिन जब वहीदा रहमान को दादा साहब फाल्के लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड देने की घोषणा की गई, तो अनायास ही ये किस्सा याद आ गया.
(राजेश कुमार की रिपोर्ट)