Bihar Se Palayan Series 2: जिसने दुनिया को बुद्ध दिया, महावीर दिया, चंद्रगुप्त मौर्य, चाणक्य, अशोक महान दिया, वहां के लोग आज दूसरी जगहों पर जाकर दर दर की ठोकरें खा रहे हैं. दो जून की रोटी के लिए बिहार के लोग कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भटकने को मजबूर हैं. जिस चाणक्य की लिखी किताब पर दुनिया की कई अर्थव्यवस्थाएं टिकी हैं, उस चाणक्य के देश के लोग अपना घर द्वार छोड़कर दाना पानी की तलाश में मारे मारे फिर रहे हैं. आखिर ऐसा क्या हो गया कि गुप्त काल से ही सबसे समृद्ध राज्यों में से एक बिहार की ऐसी दुर्गति हो गई कि यहां के लोग कंगाल होते चले गए और पुरुषार्थ के साथ साथ अपना स्वाभिमान भी गिरवी रखने को मजबूर हो गए. हालत यह है कि बिहार के 38 में से 16 जिले ऐसे हैं, जहां पलायन करने वालों की संख्या 5 प्रतिशत से अधिक है. आंकड़े बताते हैं कि कोरोना महामारी के समय बिहार लौटने वाले प्रवासी मजदूरों की संख्या 23.6 लाख थी. यहां किसी भी भारतीय राज्य में लौटने वाले प्रवासी मजदूरों की सबसे अधिक संख्या थी. यह संख्या कितनी बड़ी है, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि 2015 के विधानसभा चुनाव में पड़े कुल वोटों का यह 6 प्रतिशत से भी अधिक है. 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING


कारणों में जाएंगे तो बहुतेरे वजहें मिलेंगी लेकिन मुख्य वजहों में से एक है रोजगार के अवसरों की कमी. एक आंकड़े के अनुसार बिहार में केवल 8 प्रतिशत श्रम शक्ति उद्योग धंधों में कार्यरत है, जबकि पूरे भारत में यह 23 प्रतिशत से ज्यादा है. कृषि जनगणना 2015—16 के अनुसार, राज्य के 91.2 प्रतिशत परिवारों के पास सीमांत खेत है. इन परिवारों के बीच भूमि जोत का औसत आकार केवल 0.25 हेक्टेयर है.


राज्य में उद्योग धंधे विकसित हो पाए और न ही लोगों को समान भूमि वितरण किया गया. लिहाजा राज्य के लोग गरीबी और भुखमरी की ओर धकेल दिए गए. विश्व ​बैंक ने 2012 में एक रिपोर्ट में जाहिर किया था कि बिहार की एक तिहाई से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी. इसलिए लोग काम और मौकों की तलाश में बाहर निकले और ऐसे निकले कि परदेशी बाबू ही बन गए. पहले बिहार के लोग कोलकाता और असम का रुख करते थे लेकिन हरित क्रांति के बाद पंजाब और हरियाणा में मौके बढ़ गए और बड़ी रेल लाइन होने के बाद से पश्चिम की ओर जाना आसान हो गया और पलायन का वेग बढ़ता चला गया. 


बिहार के जिन इलाकों से ज्यादातर पलायन होता है, उनमें 16 जिले हैं और इन जिलों में कुल विधानसभा सीटों का आधा हिस्सा पड़ता है. ये जिले अधिकांशत: उत्तर बिहार में पड़ते हैं या फिर गंगा के आसपास के इलाके हैं. इन इलाकों के 13 जिलों की प्रति व्यक्ति आय राज्य के औसत आय से काफी कम है. इन इलाकों में पिछड़ी जाति, खासतौर से निम्न ओबीसी और मुसलमानों की आबादी है. बिहार में कुर्मी, कोइरी और यादवों को छोड़ निम्न ओबीसी की आबादी ठीक ठाक है और चुनावी राजनीति के लिहाज से भी ये निर्णायक माने जाते हैं.


पूरे भारत देश में पलायन करने वाली आबादी का 13 प्रतिशत हिस्सा बिहार से आता है. बिहार की औद्योगिक नीति ऐसी नहीं है, जैसा कि बाकी राज्यों में है. इस कारण से बिहार में निवेश करना आसान नहीं होता. चाहे जमीन उपलब्धता की बात हो या फिर कानून व्यवस्था की, राज्य सरकार के दावों पर उद्यमियों को भरोसा नहीं  हो पाता. एक सच्चाई यह भी है कि बिहार में जमीन का रकबा बहुत ही छोटा है. अगर किसी कंपनी को यहां कोई उद्योग लगाना हो तो उसे कई लोगों से जमीन लेनी होगी और एक साथ कई लोगों को जमीन देने के लिए राजी करना आसान नहीं होता. 


बिहार की महिला आबादी की तुलना में पुरुष आबादी का पलायन ज्यादा है. पलायन करने वाली महिलाएं 5.6 प्रतिशत हैं तो पुरुष 7.1 प्रतिशत. दूसरी ओर, बिहार की शहरी आबादी ग्रामीण आबादी की तुलना में अधिक पलायन करती है. शहरी आबादी से पलायन करने वालों का प्रतिशत 10.1 तो ग्रामीण आबादी से पलायन करने वालों का प्रतिशत 5.5 है. एक सच्चाई यह भी राज्य में शहरीकरण का स्तर बहुत कम है, इसलिए गांवों से पलायन करने वालों का आंकड़ा बड़ा होता जा रहा है.


जानकारों का कहना है कि सरकारें विकास के माध्यम से रोजगार उपलब्ध कराने की नीतियों पर चलती रही हैं लेकिन अब सरकार को अपनी रणनीति में बदलाव करने की जरूरत है. सरकार को अब रोजगार को मेन प्रोडक्ट और विकास को बाइ प्रोडक्ट बनाने पर बल देना चाहिए. इससे विकास दर में तो कमी आएगी पर रोजगार मिलने से समाज में खुशहाली आएगी और लोगों की क्रय शक्ति बढ़ जाएगी. सबसे बड़ी बात यह है कि इससे पलायन पर थोड़ा बहुत अंकुश लग पाएगा.