अनिल पांडेय

 

झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के संस्थापक सदस्य और सत्तारूढ़ दल के वरिष्ठतम नेताओं में से एक चंपाई सोरेन भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए. 1991 से लगातार सात बार विधायक चुने गए और कोल्हान टाइगर के नाम से मशहूर चंपाई का कोल्हान इलाके में जनाधार निर्विवाद है और इलाके की 14 विधानसभा सीटों पर वे जीतें या हारें लेकिन यह तय है कि वे मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की झामुमो को खासा नुकसान पहुंचा सकते हैं. आहत चंपाई की यही मंशा भी है. 2019 के चुनावों में भाजपा को इस इलाके की सभी 14 सीटों पर पराजय मिली थी तो इसका श्रेय भी चंपाई सोरेन की आदिवासियों में पैठ और सटीक चुनावी रणनीति को गया था. वफादारी, जनाधार और पार्टी के वरिष्ठतम नेता होने का इनाम उन्हें धनशोधन के आरोपों में हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद मुख्यमंत्री बनाए जाने के रूप में मिला. लेकिन जमानत मिलने के बाद हेमंत सोरेन ने मुख्मंत्री पद की कुर्सी संभालने में जिस तरह से जल्दबाजी दिखाई, वह चंपाई सोरेन को अपनी गरिमा को चोट पहुंचाने वाला लगा. नाराजगी की खबरें तभी से थीं लेकिन यह मानना मुश्किल था कि शिबू सोरेन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अलग झारखंड की लड़ाई लड़ने वाले चंपाई पार्टी छोड़ देंगे.

 

हालांकि झामुमो के लिए इसमें नया कुछ भी नहीं है. फरवरी 1973 में स्थापना के बाद से ही इस पार्टी में अनगिनत बार टूट-फूट हो चुकी है लेकिन इसके बावजूद 2019 में पार्टी ने अपने इतिहास की सबसे बड़ी जीत दर्ज की. लेकिन सवाल यह है कि इन क्षेत्रीय पार्टियों में अक्सर इतने बड़े पैमाने पर अंसतोष या बगावतें क्यों होती रहती हैं? जवाब इन पार्टियों की संरचना में छिपे हैं. झामुमो ने भले ही अलग झारखंड राज्य के लिए आंदोलन चलाया लेकिन तथ्य यही है कि सत्ता में आने के बाद यह शिबू सोरेन की जेबी पार्टी बन गई. यही हाल मंडल आंदोलन के बाद निकली जाति आधारित पार्टियों का भी है. इनकी राजनीति बेहद सरल और स्पष्ट है. सबसे जोरदार आवाज में धर्मनिरपेक्षता का नारा बुलंद करना और फिर अपनी जाति व एक-दो और जातियों के साथ मुस्लिम वोटों को गोलबंद कर सत्ता हथियाना. यह प्रयोग ले-देकर अभी तक सफल रहा है. लेकिन जाति आधारित चुनावी राजनीति की खिलाड़ी इन पार्टियों का वैचारिक आधार रेत की जमीन पर खड़ा है. सत्ता में बने रहने के लिए इन्हें अपनी जाति, अल्पसंख्यक वोट बैंक और करीबी सामंतों व बाहुबलियों को उपकृत करते रहना है. यह सरकारी संरक्षण और मलाई की राजनीति है और इसके बदले में कृतज्ञता की अपेक्षा की जाती है. यह एक बंद और अलोकतांत्रिक राजनीतिक संस्कृति है जहां किसी वैचारिक प्रतिबद्धता का घोर अकाल है. इनमें आंतरिक लोकतंत्र की बात ही बेमानी है क्योंकि पार्टी एक नेता और एक परिवार की है. असंतोष और बगावती सुर उठने पर जवाब यही होता है कि हमने अमुक नेता के लिए इतना कुछ किया, फिर भी उसने विश्वासघात किया.

 


 

यह परिवारवादी दलों की खोखली राजनीति है जहां किसी अन्य के टिके रहने की एकमात्र शर्त विश्वासपात्र होना और वफादारी है. लेकिन इसकी सीमाएं हैं. राजनीति निर्मम है और जब राजनीति के तेवर मुगलिया हो जाएं तो बगावतें घर में भी शुरू हो जाती हैं. शुरुआत भारत के शीर्ष गांधी परिवार में इंदिरा गांधी की बहू मेनका गांधी की बगावत से हुई. शरद पवार के भतीजे अजित पवार का विद्रोह, बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे का अलग पार्टी बनाना कुछ चंद उदाहरण हैं. इससे आगे जाएं तो हरियाणा में दिवंगत चौधरी देवीलाल की विरासत को लेकर परिवार में छिड़े संघर्ष की कहानियां आम हैं. अब अजय और अभय चौटाला आमने-सामने हैं. सपा में शिवपाल यादव कभी अलग पार्टी बनाते हैं तो फिर उसका विलय कर लेते हैं. खुद हेमंत सोरने की भाभी सीता सोरेन लोकसभा चुनाव से पहले घर से बगावत कर भाजपा में शामिल हो गई थीं और दुमका में 22 हजार से कुछ ज्यादा वोटों से हारी थीं.

 


 

परिवारवाद की राजनीति में ऐसा होना स्वाभाविक है. यह राजनीति अब खेती हो गई है जहां हक हिस्से की मांग को लेकर परिवार के भीतर भी झगड़े हैं. सत्ता की मलाई ही सबको एकजुट रख सकती है और सत्ता व चुनावी जीत के लिए परिवारवादी दलों के जो नेता परिवार से बाहर के हैं, वे कमोवेश फ्री लांसर की तरह हैं. यानी जिधर अवसर दिखा, उधर हो लिए. लेकिन चंपाई सोरेन पार्टी बदलने के लिए नहीं जाते. वे झामुमो के वरिष्ठतम नेता हैं और उनके पास जनाधार भी है. फिर भी उन्होंने अलग पार्टी बनाने का विकल्प नहीं चुना. जमीनी नेता होने के नाते वे जानते हैं कि अलग पार्टी बनाने का विशेष लाभ नहीं है क्योंकि जिसके पास सत्ता और संगठन है, उसके पास मलाई बांटने और लोगों को उपकृत करने की क्षमता है. इसी के भरोसे परिवारवादी दलों के मुखिया निश्चिंत हैं कि लोग जाएंगे, लोग आएंगे पर वे अपनी जगह पर बने रहेंगे. लेकिन इस बार चुनौती अलग है. चंपाई सोरेन अपने जनाधार के साथ उस पार्टी में गए हैं जो संसाधनों और कार्यकर्ताओं के मामले में उस पर भारी है. भाजपा जानती है कि चंपाई की आदिवासी इलाकों में पैठ उसके कितने काम आ सकती है? तभी तो उनके भाजपा में शामिल होने के मौके पर शिवराज सिंह चौहान और हिमंता बिस्व सरमा जैसे दिग्गज मौजूद थे. भगवा हो चुके चंपाई ने अपनी नई राजनीतिक पारी के पहले भाषण की शुरुआत संथाली में और समापन जय श्रीराम से कर इरादे साफ कर दिए. साथ ही उन्होंने झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ की वजह से जनसांख्यिकीय संतुलन बिगड़ने और इससे आदिवासी बहन-बेटियों की सुरक्षा का मुद्दा उठाया. जाहिर है कि ऐन चुनाव के मौके पर आदिवासी पहचान के साथ जय श्रीराम की काट ढूंढने में झामुमो, कांग्रेस और राजद को पसीने बहाने होंगे. इसीलिए चंपाई सोरेन झारखंड में इतने अहम हैं.   

 

(लेखक मीडिया रणनीतिकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

 

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