रांचीः Aadiwasi Deepawali in Jharkhand: फूस, पुआल के साथ मिट्टी लेपकर दीवारों को फिर से चिकना कर लिया गया है. बारिश के कारण जहां-जहां दीवारों में दरारें आ गई थीं तो उन्हें भर लिया गया है. रामराज मिट्टी और गेरू से दीवारें रंगी जाने लगी हैं और कहीं-कहीं चूना भी डाल दिया गया है. पनारे, आंगन, गोठ की जगह और पशुओं के बाड़े भी साफ करने में लोग जुटे हुए हैं. घूरे का स्थान दूर कर लिया गया है. कातिक की आमौसा से पहले ये सारी तैयारी कर लेनी है, इसलिए दशमी के अगले दिन से हर कोई इस काम में जुट गया है. नारियल और बांस की झाड़ू लाई गई है. इन सबसे जिन घर-दुआरों की सफाई हो रही है, वो जमीन झारखंड की है और ये कच्चे-पक्के घर यहां के स्थानीय आदिवासी परिवारों के हैं. वो तैयारी में जुटे हैं कि कातिक की आमौसा को लक्ष्मी मइया आएंगी. लक्ष्मी मइया उनके लिए वन और प्रकृति की देवी भी हैं. उनकी वजह से ही घर में धान आया है. देवी के स्वागत की पूरी तैयारी है. 


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तीन दिन दिवाली की जगमग
त्योहार मनाने की जिस खांटी विधा का ऊपर जिक्र किया गया है, ये झारखंड के आदिवासियों की दीपावली की तैयारी है. बाजारवाद और अर्थवाद की बड़ी-बड़ी आंकड़ेबाजी से कोसों दूर, चाइनीज लड़ियों के कारण कुम्हारों की बदहाली की चिंता से अलग और पटाखों-प्रदूषण की बहस-बाजियों से हटके झारखंड के आदिवासी दीपावली को प्रकृति के पर्व के तौर पर मनाते हैं. उनकी ये दिवाली 3 दिनों की होती है और इन तीन दिनों के लिए आदिवासी समुदाय हफ्तों पहले से तैयारी में जुट जाता है. बारिश के बाद से घर-बार ठीक किए जाते हैं. घरों के आगे लिपाई-बुहार होता है और फिर सब साफ-सुथरा करके दीपावली मनाने के लिए आदिवासी जुट जाते हैं.


धनतेरस के दिन सजाते हैं घर
दिवाली के पहले का एक दिन, जिसे हम लोग धनतेरस कहते हैं, उस दिन आदिवासी घर को सजाना-संवारना शुरू करते हैं. ये सजावट चावल के आटे, हल्दी और गेरू से होती है. दूसरे दिन पशुओं को नहला कर साफ किया जाता है. शहरी लोग इस दिन नरक चतुर्दशी मनाते हैं. तीसरे दिन दीपावली होती है. इस दिन आदिवासियों में करंज के तेल से दीए जलाने की परंपरा है.



करंज के तेल के दीये इसलिए जलाए जाते हैं ताकि बरसात के बाद उत्पन्न होने वाले तमाम कीड़े इसके धुएं और लौ से नष्ट हो जाएं. पर्यावरण पूरी तरह से शुद्ध हो जाए. करंज का तेल आयुर्वेदिक गुणों से भरपूर होता है. इससे कई तरह की दवाएं भी बनती हैं. यह सेहत के लिए काफी फायदेमंद होता है. वह प्रदूषण फैलाने वाली किसी वस्तु का उपयोग नहीं करते हैं. 


दिवाली की सुबह से होनी लगती है तैयारी
दिवाली की सुबह से ही शाम के लिए तैयारियां शुरू हो जाती हैं. घरों की महिलाएं, बूढ़ियों के साथ उनके कहे अनुसार पकवान आदि की तैयारी में लग जाती है. लड़के-लड़कियां मां की मदद करने के लिए एक किनारे बैठ कर नारियल घिस रहे हैं. उन्हें नारियल फल का बुरादा बनाने का काम दिया गया है. ये उनके लिए एक खेल की ही तरह है.



असल में कई मीठे-नमकीन पकवानों में इसका इस्तेमाल होना है. जैसे नहीं कुछ तो मंडा को ही ले लीजिए. चावल के आटे या फिर सूजी या फिर मक्के के आटे से बनने वाला हल्का मीठा पकवान है. चावल के आटे की लोइयां बनाकर इसमें गुड़ में पगे नारियल के लच्छे भर देते हैं और भाप पर पका लेते है. चूल्हे पर इसके लिए पानी गरम होने के लिए पहले रख दिया गया है. 


इन पकवानों के बिना अधूरी है दिवाली
दूसरी और धुस्का बनाने की तैयारी चल रही है. ये कुछ-कुछ उत्तर भारतीयों में बनने वाली मक्के की नमकीन पूड़ी जैसी ही है. दोपहर में पुए बनेंगे और फिर सारे पकवान बनाकर एक साथ रख लिए जाएंगे. ग्राम देवता, स्थान देवता, पुरखा देवता और जल-जंगल-जमीन की देवी को भोग-भाग दिए जाएंगे. गोठ में भी एक छोटा हिस्सा रखा जाएगा और पशुओं को भी उनका भाग देना है. शाम तक ये सारे काम हो जाएंगे. फिर सूरज ढलते-ढलते दीए जलाने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी. लड़कियां अपनी रंगोली पर दीए रखेंगी. लड़के, बहनों द्वारा बनाए गए माटी के घरों पर दीपक सजाएंगे. पिता-बुजुर्ग और घर के आदमी कुएं पर, पनारे पर, रास्ते में, खेतों की मेड़ पर, घर के पिछले हिस्से में, पशुशाला में दीपक रखेंगे. इसके अलावा जिन-जिन जगहों पर साज सज्जा की गई है, वहां हर जगह दीए जलाए जाएंगे. सूरज ढलने के साथ दीपक जलाने के पीछे उद्देश्य है कि दीपक मिलकर कहते हैं कि हे सूर्यदेव, तुम थोड़ा विश्राम कर लो, तुम्हारी प्रेरणा से हम थोड़ा ही सही, लेकिन जलकर संसार को रोशन रखने की कोशिश करेंगे. सूर्य देव उनकी बात मानकर अस्त होते हैं और दीपक जुट जाते हैं संसार का अंधकार दूर करने के अपने कर्तव्य पर. 


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