रांची : Sarhul in Jharkhand: झारखंड की संस्कृति के वाहक और रक्षक आदिवासी ही हैं. प्रकृति से इनका प्रेम छुपा नहीं है. इन दिनों आप झारखंड आएं तो आपको पलाश के लाल फूलों से लदी और सजी पहाड़ियां देखने को मिलेंगी. ऐसे में प्रकृति के प्रेम का एक त्योहार आदिवासियों का होली के ठीक कुछ दिन बाद होता है सरहुल. पूरी की पूरी धरती का आवरण मानो नई नवेली दुल्हन की मानिंद सजी हो. पत्तियां सूख कर झड़ी तो नई कोपलों ने रूप लिया, ऐसा प्रकृति का सिंगार किया मानो नई नवेली दुल्हन की मांग में सिंदूर भरा हो और वह भी सूर्ख लाल. प्रकृति पूरी तरह से फूलों का श्रृंगार कर इठला रही है. मानो गजरे से लेकर झूमके और फिर मांग टीका से लेकर बाजूबंद, हार से लेकर पांव की पायल तक प्रकृति ने केवल और केवल फूलों का रूपवान सिंगार ही तो किया है. 


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आपको बता दें कि आप शहर में हैं तो शायद आपको यह खूबसूरती नहीं दिखे लेकिन कभी प्रकृति की गोद में जाकर देखिए आपको समझ आ जाएगा कि आखिर आदिवासी इस श्रृंगार को कैसे अपने दिल में बसाते हैं, झूमते हैं गाते हैं. प्रकृति के इस रूप का सम्मोहन कैसे उनके मन को रंगीन कर देता है. उनकी आत्मा कैसे श्रृंगार का रस पान कर आनंदित हो रही होती है. 


झारखंड में यूं तो प्रकृति के इस सरहुल पर्व को हर आदिवासी समुदाय हर्षोल्लास से मनाता है लेकिन सभी के मनाने का समय और तरीका अलग-अलग होता है. झारखंड में आदिवासियों में उरांव समाज, हो समाज, संताल समाज, मुंडारी समाज, खड़िया समाज आता है. इन सबके द्वारा इस त्योहार को अलग-अलग समय और तरीके से मनाए जानें का विधान है. 


झारखंड में रहनेवाले ये आदिवासी समाज उरांव, हो, संताल, मुंडारी, खड़िया के लोग होली के साथ ही अपने कटहल, कनेर, केले, आम, ढाक, पाकड़ और खास तौर पर साल के पेड़ को सजाने में लग जाते हैं. इन पेड़ों के साथ गुलाल खेली जाती है. यहां से सभी एक बेटी की शादी की तैयारी में लग जाते हैं. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि यह बेटी धरती है जो सरहुल के दिन एक कुंवारी कन्या का रूप में होती है. वजह इसपर फैले वनस्पति की नई कपोलें हैं. हा ना कितना वैज्ञानिक त्योहार यह. उस कुंवारी धरती की शादी सूरज से होनी होती है. क्योंकि यहां से सूरज का तपना शुरू होता है. उसकी उष्मा बढ़ती है. 


उरांव समाज तो इस त्योहार को चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाते हैं. यहां से शुरू होकर यह त्योहार चैत मास की पूर्णिमा तक चलती है. इस कोई सरहुल कहता है तो कोई खद्दी पर्व. इस दिन केकड़ा पकड़ा जाता है. जलभराई की पूजा की जाती है. इसके अगले दिन घर में पूजा और सरना स्थल में पूजा के बाद शोभायात्रा निकाली जाती है. 


इसे बाहा पर्व के तौर पर हो जनजाति के लोग मनाते हैं. यहां फूल-पत्तों और पौधों की पूजा की जाती है. उनका स्वागत किया जाता है. जबकि संताल इस पर्व को फागुन के फाग वाली बसंती हवा के साथ ही शुरू कर देते हैं और चैत मास के अंत तक मनाते हैं. संताल अपने इष्ट मरांग बुरु, जाहेर आयो, मोड़े, तुरुई और अपने अन्य देवी-देवताओं को बहुत कुछ अर्पित करते हैं. 


मुंडा समाज के लोग भी इसे बाहा पर्व के रूप में मनाते हैं. सखुआ और सरजोम के पेड़ के नीचे पूजा करते हैं. वहीं खड़िया समाज के लोग सरहुल को जांकोर पर्व के रूप में मनाते हैं.   जांकोर का मतलब साफ है फलों के बीज का क्रमबद्ध तरीके से विकास. फाल्गुन की पूर्णिमा यानी की होली के एक दिन पहले से यह त्योहार शुरू होता है. 



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