Birsa Munda: बिरसा मुंडा की जंयती के अवसर पर आज पूरा देश उन्हें नमन कर रहा है. इस महानायक ने आजादी और आदिवासियों के अधिकारों के लिए क्रांति की जो मशाल जलाई वह युगों-युगों तक पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेगी. बिरसा मुंडा का जीवन मानव स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की महागाथा है.


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बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को, तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी के रांची जिले के उलिहातू गांव में (अब झारखंड के खूंटी जिले में) - हुआ था (हालांकि कुछ स्रोत उनका जन्म 18 जुलाई 1872 को हुआ था बताते हैं). 


बिरसा ने अपनी शिक्षा सालगा में अपने शिक्षक जयपाल नाग के मार्गदर्शन में प्राप्त की. बाद में, वह जर्मन मिशन स्कूल में शामिल होने के लिए ईसाई बन गए, लेकिन जल्द ही यह पता चलने के बाद कि अंग्रेज शिक्षा के माध्यम से आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करना चाहते थे, उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी.


बिरसा ने बिरसैत धर्म की स्थापनी की
स्कूल छोड़ने के बाद बिरसा मुंडा ने बिरसैत नामक एक धर्म की स्थापना की. मुंडा समुदाय के सदस्य जल्द ही इस धर्म में शामिल होने लगे जो आगे चलकर ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक चुनौती बन गया.


बिरसा ने चाईबासा में चार साल (1886 से 1890) बिताए. ब्रिटिश सरकार के साथ उनका संघर्ष सही मायने में यहीं से शुरुआत हुई. बिरसा मुंडा ने अपने लोगों को सरकार को कोई टैक्स न देने का आदेश दिया.


दरअसल 19वीं सदी के अंत तक अंग्रेजों की भूमि नीति आदिवासी शोषण का सबसे बड़ा हथियार बनकर उभरी. आदिवासियों को जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करने से रोक दिया गया था. वहीं दूसरी ओर साहूकार जमीनें हथियाने लग गए.


बिरसा के ऊपर 500 रुपये का इनाम हुथा था घोषित
इस अन्यायकारी व्यवस्था के खिलाफ मुंडा ने आवाज उठाने की ठान ली. उन्होंने 'उलगुलान' नाम का आंदोलन शुरू कर दिया. यह आंदोलन जमीदारों और अंग्रेजों के लिए बड़ी चुनौती बन गया. उनकी संपत्तियों पर हमले होने लगे. बिरसा के ऊपर ब्रिटिश सरकार ने 500 रुपये का इनाम घोषित किया था.


बिरसा मुंडा को  पहली बार 24 अगस्त 1895 को गिफ्तार किया गया था. उनको दो साल की सज़ा हुई थी. लेकिन किसी सजा के डर से टूट जाने वालों में से वह नहीं थे. जेल से रिहा होने के बाद वह फिर क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गए. 1897 से 1900 तक मुंडा समाज और ब्रिटिश सिपाहियों के बीच लगातार मुठभेड़ें होती रहीं.


1898 में तांगी नदी के किनारे पर एक बड़ी लड़ाई हुई जिसमें जिसमें बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आदिवासी समाज ने ब्रिटिश सिपाहियों को करारी हार दी.


जेल में हुई बिरसा की मौत
3 मार्च 1900 को अंग्रेज बिरसा को पकड़ने में कामयाब रहे. जेल में उन्हें अकेले रखा गया और तीन महीने तक किसी से मिलने नहीं दिया गया. बताते हैं उन्हें जेल की कालकोठरी से दिन में सिर्फ एक घंटे के लिए बाहर लाया जाता था. उनकी तबीयत बिगड़ने लगी और उन्होंने खून की उल्टियां शुरू कर दी. 9 जून 1900 को बिरसा ने प्राण त्याग दिए.


बिरसा की मौत के बाद उनका आंदोलन खत्म हो गया. हालांकि 1908 में, औपनिवेशिक सरकार ने छोटानागपुर किरायेदारी अधिनियम (सीएनटी) पास किया, जिसने आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर रोक लगा दी.


सन् 2000 में उनके जन्मदिन पर ही झारखंड राज्य की स्थापना की गई थी.