नई दिल्ली: दिल्ली के बुझे-बुझे दिन और धुंधले वायुमंडल से 450 किमी दक्षिण में हरी-भरी पहाड़ियों की सलवटों और झिलमिलाते नीले तालाबों के बीच चंदेरी मुस्कुरा रहा है. एक पहाड़ के ऊपर बनी किला कोठी और पुराने महल के खंडहरों में 16वीं सदी के दो स्मारक अलसाए हुए धूप सेंक रहे हैं. पहला स्मारक उन नारियों का है, जिन्होंने उस जमाने की नैतिकता निभाने के लिए जौहर कर लिया था. बगल में दूसरा स्मारक एक समाधि है. सूखे कुंड के किनारे आठ बाई आठ फुट का चबूतरा, जिस पर एक पत्थर पर लिखा है- बैजू बावरा की समाधि.


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10 फरवरी को वसंत पंचमी पर इसी महान संगीतकार को याद करने बहुत से लोग मध्य प्रदेश के अशोकनगर जिले के इस ऐतिहासिक कस्बे चंदेरी पहुंचे थे. जी, वही चंदेरी जिसे आप दुनिया की बेहतरीन साड़ियों के लिए जानते हैं. मान्यता है कि बादशाह अकबर के जमाने में संगीत को नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाले तानसेन के गुरुभाई और खुद भी महान संगीतज्ञ बैजू बावरा ने इसी दिन दुनिया को अलविदा कहा था.


संगीत की उस महान परंपरा का सजदा करने के लिए उत्तर प्रदेश के डाला, सोनभद्र का श्री अचलेश्वर महादेव मंदिर फाउंडेशन पिछले चार साल से यहां वसंत पंचमी पर ध्रुपद उत्सव का आयोजन करता है. इस दौरान देश के प्रतिष्ठित संगीतकारों को बैजू बावरा सम्मान दिया जाता है और वह संगीतकार बैजू बावरा के सम्मान में अपनी प्रस्तुति देते हैं.



इस बार पद्मश्री उस्ताद वसीफुद्दीन डागर को बैजू बावरा सम्मान दिया गया. इससे पहले यह सम्मान पंडित उमाकांत और रमाकांत गुंदेचा, उस्ताद बहादुद्दीन डागर और पंडित उदय भवालकर को दिया जा चुका है. इस बार का सम्मान ग्रहण करने से पहले वसीफुद्दीन डागर ने बैजू बावरा की समाधि पर नायक बैजू की बनाई बंदिशों को मद्धम स्वर में गुनगुनाकर संगीत के बावरे को स्वारांजलि दी. बाद में शहर के बीच बसे राजा रानी महल के खंडहरों में डागर साहब ने ध्रुपद गायन पेश किया. पखावज पर पंडित मोहन श्याम शर्मा ने संगत की.


यहां डागर ने बैजू की उन्हीं बंदिशों को संगीत की बुलंदी और गहराई के साथ पेश किया जो दोपहर में उन्होंने समाधि पर गुनगुनाई थीं. मुक्त-गगन के नीचे शुरू हुई सुर संध्या कब रात के आगोश में चली गई पता ही नहीं चला. राग चंद्रकौस और राग दुर्गा से होते हुए राग भैरवी का नंबर आते-आते संगीत सभा अपने उरूज पर पहुंच गई. दिन की वसंती हवा रात में शीतल बयार बनी हुई थी. श्रोताओं ने मफलर कस लिए और शाल से देह को ढंक लिया. ठंड बढ़ती जा रही थी, लेकिन संगीत की गर्माहट के चलते सब जमे हुए थे. ऊपर से झिलमिल तारों के बीच वासंती चांद संगीत की स्वर लहिरयों में खुद को डुबो रहा था. बैजू की निर्गुण बंदिशों और स्वरों की उठान ने जड़ चेतन का भेद खत्म कर दिया.  



संगीत के इस जलसे में शामिल होने के लिए हिंदी के वरिष्ठ आलोचक और कवि डॉ विजय बहादुर सिंह भी वहां मौजूद थे. संगीत सभा शुरू होने से पहले वसीफुद्दीन डागर और विजय बहादुर सिंह ने परंपरा के पुनराविष्कार पर अपनी-अपनी बात रखी. संगीतकार और साहित्यकार दोनों ही यह कह रहे थे कि कोई भी विधा जब अपने शीर्ष पर पहुंचती है तो बाकी विधाओं से कटी हुई नहीं रह जाती. विधाओं को उनके शीर्ष पर कुछ धुन के पक्के लोग ही ले जाते हैं. ये लोग पुरानी परंपराओं की कमजोरियों पर कुठाराघात करते हैं और उसमें कुछ नया जोड़ देते हैं. समाज और संस्कृति का यही पुनर्नवा रूप परंपराओं को जीवित रखता है. ऐसे जीवंत समाज में परंपराएं रास्ता दिखाती हैं और नए विचार पनपते हैं.


 



कार्यक्रम में अशोकनगर की कलेक्टर डॉ मंजू शर्मा, विधायक गोपाल सिंह चौहान, विधायक जयपाल सिंह जग्गी सहित बड़ी संख्या में सुधी लोग उपस्थित थे. कलेक्टर और विधायकों ने अपने संबोधन में बार-बार इस बात को दुहराया कि वे लोग चाहेंगे कि अगली बार से कार्यक्रम इससे कहीं भव्य स्तर का हो और बैजू बावरा की स्मृति लोक तक पहुंचाने में चंदेरी प्रशासन की ज्यादा बड़ी भूमिका हो.


अचलेश्वर फाउंडेशन के संचालक चंद्र प्रकाश तिवारी ने विशिष्ट अतिथियों का सम्मान किया और आभार व्यक्त किया. तिवारी ने कहा कि चंदेरी कस्बे में कार्यक्रम करने का उद्देश्य न सिर्फ बैजू बावरा की परंपरा को जीवित रखना है, बल्कि शास्त्रीय संगीत को महानगरों के प्रेक्षागृहों से निकालकर उस लोक तक ले जाना भी है, जहां संगीत की बड़ी प्रतिभाएं जन्म लेती रही हैं. छोटे कस्बों में शास्त्रीय संगीत के उत्सव होने से भारत में नयी सांस्कृतिक क्रांति पनपेगी.