नई दिल्ली: आपने देखा होगा कि हमारे देश में जब भी कोई बड़ा मुद्दा होता है तो कुछ लोग उसका विरोध शुरू कर देते हैं. आप इन्हें प्रोफेशनल प्रोटेस्टर्स भी कह सकते हैं. यानी ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने प्रदर्शन को ही अपना पेशा बना लिया है. ऐसे ही पेशेवर तरीके से भारत सरकार का विरोध करने वाली एक अंतरराष्ट्रीय संस्था का नाम है एमनेस्टी इंटरनेशनल. भारत में एमनेस्टी इंटरनेशनल की गतिविधियां संदेह के घेरे में हैं और जब इस संस्था की जांच शुरू हुई तो ये सवालों का जवाब देने की बजाय बोरिया बिस्तर बांधकर भारत से भाग गए.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

एमनेस्टी को हर वर्ष मिलता है विदेशों से करोड़ों रुपए का फंड
भारत में एमनेस्टी इंटरनेशनल की गतिविधियों की जब जांच कराई गई तो पता चला कि उसने भारत में काम करने के लिए जरूरी अनुमति ही नहीं ली है. यानी इतने वर्षों से ये संस्था अवैध तरीके से भारत में काम कर रही थी. एमनेस्टी को हर वर्ष विदेशों से करोड़ों रुपए का फंड मिलता है. इसके लिए FCRA यानी फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट के तहत रजिस्टर होना जरूरी है. लेकिन एमनेस्टी ने ये रजिस्ट्रेशन कराया ही नहीं था और भारत सरकार ने इसी आधार पर एमनेस्टी के सभी बैंक खातों को सीज कर दिया. जांच में ये भी पता चला कि भारत में एमनेस्टी चार अलग-अलग नामों से सक्रिय है.


पोल खुलने के बाद एमनेस्टी ने कहा है कि वो भारत में अपना काम बंद कर रही है. क्योंकि भारत सरकार उसके खिलाफ बदले की कार्रवाई कर रही है. एमनेस्टी और उसके हितैषियों का कहना है कि भारत में लोकतंत्र खतरे में पड़ गया है. आपके मन में यह प्रश्न उठ रहा होगा कि ये विदेशी संस्था आखिर ऐसा क्या करती थी कि उसके बंद होने से भारत का लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा?


अर्बन नक्सल्स के साथ भी एमनेस्टी काफी सक्रिय
एमनेस्टी इंटरनेशनल ब्रिटेन का एक एनजीओ है यानी ये एक गैर-सरकारी संस्था है. इसकी स्थापना वर्ष 1961 में हुई थी. एमनेस्टी खुद को मानवाधिकार के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था बताती है. स्थापना के कुछ वर्ष बाद ही इसने भारत में भी अपना दफ्तर खोल लिया था. इस दौरान एमनेस्टी ने भारत में लोगों के मानव अधिकारों की रक्षा तो नहीं की लेकिन इसने भारत को बदनाम करने का काम पूरी मेहनत के साथ किया. यानी वर्ष 1947 में अंग्रेज तो भारत से चले गए लेकिन अंग्रेजों की ये संस्थाएं भारत के लोगों को वैचारिक तौर पर गुलाम बनाने में जुटी रही. या फिर हम ये भी कह सकते हैं कि जैसे Christian Missionaries भारत में आकर अस्पताल और स्कूल खोलने की बात करती है, लेकिन वास्तव में धर्मांतरण का काम किया करती थीं. इसलिए आपको एमनेस्टी की असलियत जान लेनी चाहिए.


-ये संस्था जम्मू कश्मीर के मुद्दे पर दुनिया भर में भारत के खिलाफ अभियान चलाती रही है.


-26/11 हमले के दोषी अजमल कसाब, संसद हमले के दोषी अफजल गुरु और 1993 मुंबई ब्लास्ट के दोषी याकूब मेमन के समर्थन में भी एमनेस्टी ने दुनिया भर में अभियान चलाया था.


-अर्बन नक्सल्स (urban naxals) के साथ भी एमनेस्टी काफी सक्रिय रही है. भीमा कोरेगांव हिंसा को लेकर भी इस संस्था ने खूब बयान जारी किए थे. एमनेस्टी विशेष तौर पर विदेशों में भारत की छवि खराब करने के लिए काम करती रही है.


दंगों के बाद एमनेस्टी ने बहुत संदिग्ध भूमिका निभाई
दिल्ली में इसी साल फरवरी में हुए दंगों के बाद एमनेस्टी ने बहुत संदिग्ध भूमिका निभाई थी. इस संस्था ने दिल्ली दंगों पर एक रिपोर्ट जारी की थी जिसे दुनिया के तमाम देशों में रिलीज किया गया था. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि दिल्ली पुलिस ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों के साथ हिंसा की थी. इस रिपोर्ट में दंगाइयों को क्लीन चिट दे दी गई थी और ये साबित करने की कोशिश की गई थी कि ये दंगे मुस्लिम विरोधी थे, यानी इनमें चुन चुन कर मुसलमानों को निशाना बनाया गया था. इस झूठ के कारण भारत की छवि को काफी नुकसान हुआ है और पाकिस्तान अंतरराष्टीय मंचों पर इसी रिपोर्ट का इस्तेमाल भारत के खिलाफ दुष्प्रचार में करता रहा है.


एमनेस्टी को भारत के लोकतंत्र पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं
एमनेस्टी इंटरनेशनल और उसके समर्थकों का कहना है कि भारत सरकार बदले की कार्रवाई कर रही है. लेकिन आज भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने कहा है कि मानवाधिकार संस्था होने का मतलब ये नहीं है कि देश के कानूनों का उल्लंघन किया जाए.


सच ये है कि एमनेस्टी ने विदेश से फंड लेने के लिए सिर्फ एक बार वर्ष 2000 में फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट यानी FCRA के तहत इजाजत ली थी.


- इसके बाद 3 बार एमनेस्टी की एप्लीकेशंस नामंजूर कर दी गई. क्योंकि वो जरूरी शर्तें पूरी नहीं करती थीं.


-इजाजत नहीं मिलने के बावजूद एमनेस्टी जुगाड़ के रास्तों से फंडिंग पाने में सफल होती रही.


-एमनेस्टी पर भारत में मानवाधिकारों से जुड़े काम करने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन उसे इसके लिए भारत के कानूनों का पालन करना होगा. एमनेस्टी को भारत के लोकतंत्र और समाज पर टिप्पणी करने का भी कोई अधिकार नहीं है.


मामला विदेशी फंडिंग के दुरुपयोग का भी
भारत की लड़ाई सिर्फ एमनेस्टी इंटरनेशनल से नहीं है. ये मामला विदेशी फंडिंग के दुरुपयोग का भी है. समाजसेवा के नाम पर भारत में विदेश से करोड़ों रुपये हर साल आते हैं. कोई नहीं जानता कि इन पैसे का उपयोग कहां किया जा रहा है, क्योंकि समाजसेवी संस्थाएं यानी एनजीओ अक्सर अपने काम का हिसाब भी नहीं देतीं.


भारत में इस समय लगभग 31 लाख रजिस्टर्ड एनजीओ हैं. 2015 में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को यह जानकारी दी थी. यह प्रश्न उठता है कि भारत जैसे देश में इतने एनजीओ की क्या आवश्यकता है.


- यानी NGO की संख्या कुल स्कूलों से लगभग दोगुने से अधिक है.


- ये संख्या देश में कुल सरकारी अस्पतालों से 250 गुना अधिक है.


- भारत में हर 400 लोगों की आबादी पर औसतन एक NGO है.


- जबकि 700 लोगों की आबादी पर सिर्फ एक पुलिसकर्मी है.


- मात्र 10 प्रतिशत NGO सरकारी नियमों का पालन करते हैं.


- लगभग 90 प्रतिशत NGO सरकार को अपनी बैलेंस शीट भी जमा नहीं करते.

इसी महीने संसद ने फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट यानी FCRA में बदलाव किया है. इसके बाद से संदिग्ध विदेशी फंडिंग पाने वाले एनजीओ में खलबली मची हुई है. किसी भी लोकतंत्र में सिविल सोसाइटी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. लेकिन इसकी आड़ में देश विरोधी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती है.


दुनिया के कई देश एनजीओ के इस खेल से परेशान
भारत ही नहीं, दुनिया के कई देश एनजीओ के इस खेल से परेशान हैं. रूस, इजराइल, हंगरी और इजिप्ट समेत 40 देशों ने इसके खिलाफ कड़े कानून भी बनाए हैं. अमेरिका में भी किसी विदेशी संस्था के वहां की घरेलू राजनीति में दखलंदाजी पर कड़ी रोक है. अब भारत सरकार भी उसी नीति को लागू कर रही है। इसलिए आज अगर कोई कहता है कि NGO की फंडिंग बंद होने से भारत में लोकतंत्र खतरे में आ गया है तो वो झूठ बोल रहा है.


UPA सरकार के समय भी एनजीओ के खिलाफ कार्रवाई होती रही है.


- 2009 में फंडिंग में धांधली के आरोप में 883 NGO को ब्लैकलिस्ट कर दिया गया था.


- तमिलनाडु में कुडन-कुलम परमाणु परियोजना के विरोध के बाद 2012 में UPA 2 के दौरान भी संदिग्ध NGO के खिलाफ अभियान शुरू किया गया था.


- उस समय 40 हजार से अधिक सामाजिक संस्थाओं का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया गया था.


इन संस्थाओं का असली एजेंडा
एमनेस्टी हो या कोई दूसरी विदेशी संस्था, सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि उन्हें हमारे देश में मानवाधिकार और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर ज्ञान देने का अधिकार किसने दिया है? ये एक तरह का वैचारिक उपनिवेशवाद है क्योंकि ये विदेशी संस्थाएं कई बार हमारी सरकारों और उनकी नीतियों को भी प्रभावित करने लगती हैं. जबकि हमें पता नहीं होता कि इन संस्थाओं का असली एजेंडा क्या है और उनकी फंडिंग करने वाले कौन लोग हैं. यह महज संयोग नहीं है कि गरीबी हटाने और पर्यावरण साफ करने के नाम पर चलने वाली ये विदेशी संस्थाएं ज्यादातर भारत विरोधी एजेंडा आगे बढ़ा रही होती हैं. ये संस्थाएं सरकारों के कामकाज में पारदर्शिता की बात करती हैं, लेकिन उनके खुद के काम में कोई पारदर्शिता नहीं होती है. चाहे वो फंडिंग हो या फिर उनका उद्देश्य.


ये भी देखें-