कोरोना वायरस का कोई इलाज नहीं है लेकिन इससे बचने का सबसे अच्छा तरीका है. सोशल डिस्टेंसिंग यानी एक दूसरे से सामाजिक दूरी बनाकर रखना. पूरी दुनिया में हुए अलग-अलग वैज्ञानिक शोध कहते हैं कि ये दूरी हमें आने वाले लंबे समय तक बनाकर रखनी होगी. यानी ये वायरस हमारे सभी सामाजिक पैमानों को हमेशा के लिए बदलकर रख देगा. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे सामाजिक मेलजोल बढ़ाना पसंद है. लोग जब एक दूसरे के करीब होते हैं तो वो ज्यादा संगठित महसूस करते हैं? संगठन की यही शक्ति राजनीति का भी आधार है क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश में जनता ही अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती हैं. इसी जनता तक पहुंचने के लिए राजनैतिक पार्टियां बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियां करती हैं, भीड़ जुटाती हैं, घर घर जाकर प्रचार करती है और इसी प्रक्रिया के तहत पार्टियों का जनाधार मजबूत होता है. 


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लेकिन क्या कोरोना वायरस के बाद राजनीतिक पार्टियां इस जनशक्ति का इस्तेमाल इसी तरह से कर पाएंगी? क्या लाखों लोग एक नेता का भाषण सुनने दोबारा रैलियों में जा पाएंगे? क्या राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता घर-घर जाकर चुनाव प्रचार कर पाएंगे और सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या कोरोना वायरस के बाद भारत के 90 करोड़ मतदाता पहले की तरह लंबी-लंबी लाइनों में लगकर अपना प्रतिनिधि चुन पाएंगे? या फिर इस वायरस की वजह से भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राजनीति के पारंपरिक तौर तरीके हमेशा के लिए बदल जाएंगे? आज हम इसी से जुड़ी संभावनाओं और आशंकाओं का एक विश्लेषण करेंगे. 


लेकिन शुरुआत हम करीब 2 महीने पहले गुजरात के मोटेरा स्टेडियम में आयोजित नमस्ते ट्रंप रैली की रैली से कते हैं. रैली अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के स्वागत में आयोजित की गई थी और इस रैली में करीब सवा लाख लोग आए थे. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी माना था कि उन्होंने अपने जीवन में एक साथ इतने लोगों की भीड़ कभी नहीं देखी थी. ट्रंप ने भारत से वापस लौटकर जब अपने देश में एक एक चुनावी रैली की तो उन्होंने कहा कि मैंने भारत में लाखों लोगों को एक साथ एक रैली में देखा, जिसके बाद 15-20 हज़ार की भीड़ देखकर उत्साहित होना आसान नहीं है. 


ट्रंप किस्मत वाले थे जो उन्हें अपने जीवन काल में इतनी बड़ी रैली को संबोधित करने का अवसर मिला, क्योंकि कोरोना वायरस के बाद शायद ही किसी रैली में इतने लोग एक साथ शामिल हो पाएंगे. अमेरिका में इस साल के अंत तक चुनाव होने हैं. अमेरिका में वोटर्स की संख्या करीब 16 करोड़ है. जबकि इस साल के अंत में और अगले साल की शुरुआत में भारत में भी 6 अलग अलग राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं. ये राज्य हैं बिहार, तमिलनाडु, असम, पश्चिम बंगाल,केरल और पुड्डुचेरी. इन चुनाव में करीब करीब 25 करोड़ वोटर्स हिस्सा लेंगे. ये अमेरिका की कुल आबादी का करीब 78 प्रतिशत है. 


आचार संहिता में सोशल डिस्टेंसिंग का नया नियम!
अब इन करोड़ों वोटर्स तक पहुंचना भारत की किसी भी राजनैतिक पार्टी के लिए आसान नहीं होगा. कोरोना वायरस के बाद रैलियों में लाखों की संख्या में लोगों को बुलाना लगभग अंसभव होगा. इस वर्ष सितंबर और अक्टूबर के महीने में बिहार में चुनाव हो सकते हैं जहां वोटर्स की संख्या करीब 7 करोड़ है. लेकिन हो सकता है कि इस बार चुनावों में लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता में सोशल डिस्टेंसिंग का एक नया नियम जुड़ जाए, जिसके तहत या तो रैलियां, रोड शो और नुक्कड़ सभाएं शायद होंगी ही नहीं या फिर इनमें सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का सख्ती से पालन करना होगा.


दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में 70 वर्षों के इतिहास में पहली बार और दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका के 124 वर्षों के इतिहास में शायद पहली बार नेताओं को जनता तक पहुंचने के लिए रैलियों और रोड शो के अलावा दूसरे विकल्प अपनाने होंगे. ऐसा हम क्यों कह रहे ये समझने के लिए आपको इतिहास में चलना होगा. अमेरिका में 1897 में राष्ट्रपति बनने वाले विलियम मैकिनले के लिए कहा जाता है कि आधुनिक इतिहास में बड़े पैमाने पर जनसभाएं करने की शुरुआत उन्होंने ही अपने चुनाव प्रचार के दौरान की थी.


इसके बाद विलियम ग्लेडस्टोन 1892 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने थे. कहा जाता है कि आधुनिक इतिहास में चुनाव प्रचार के दौरान जनता के बीच जाकर भाषण देने की शुरुआत उन्होंने ही की थी और इसके बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1951-52 के दौरान पंजाब में हुई एक चुनावी रैली की है. इन तीनों रैलियों में भारी भीड़ देखने को मिली थी. 


ये तीनों वाकया ये बताते हैं कि पिछले कई दशकों में दुनिया में सबकुछ बदल गया, युद्ध लड़ने के तरीके बदल गए, कामकाज के तरीके बदल गए, सफर का तरीका बदल गया लेकिन जनता के बीच जाकर चुनाव प्रचार करने का तरीका नहीं बदला. लेकिन अब शायद इतिहास में पहली बार जनसंवाद का ये तरीका भी हमेशा के लिए बदलने वाला है.


अमेरिका में इस साल के अंत में होने हैं चुनाव
अमेरिका में इस साल के अंत तक चुनाव होने हैं. अमेरिका में वोटर्स की संख्या करीब 16 करोड़ है. जबकि इस साल के अंत में और अगले साल की शुरुआत में भारत में भी 6 अलग अलग राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं. ये राज्य हैं बिहार, तमिलनाडु, असम, पश्चिम बंगाल,केरल और पुड्डुचेरी. इन चुनाव में करीब करीब 25 करोड़ वोटर्स हिस्सा लेंगे. ये अमेरिका की कुल आबादी का करीब 78 प्रतिशत है. 


वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने करीब 142 चुनावी रैलियां की थी, इसके लिए उन्होंने करीब डेढ़ लाख किलोमीटर का सफर भी किया था और इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने करीब डेढ़ करोड़ लोगों को सीधे अपनी रैलियों के जरिए संबोधित किया था. 2014 में तो इसका स्केल और बड़ा था. 2014 का चुनाव प्रचार. आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा चुनाव प्रचार था. जिसमें अकेले प्रधानमंत्री मोदी ने करीब 5 हज़ार 827 रैलियों, कार्य्रकमों, 3D रैलियों और चाय पर चर्चा जैसे कार्यक्रमों को संबोधित किया था. लेकिन वर्ष 2020 इन सभी प्रथाओं को बदलने वाला साल साबित हो सकता है.


कोरोना वायरस की वजह से अब नेता भी भीड़ के बीच जाने से परहेज़ करेंगे और लोग भी शायद नेताओं का भाषण सुनने के नाम पर अपनी जान खतरे में ना डालना चाहे. हालांकि दक्षिण कोरिया जैसे देश ने कोरोना वायरस के बीच आम चुनाव कराए. लेकिन दक्षिण कोरिया में वोटर्स की संख्या साढ़े 4 करोड़ है. यानी बिहार के वोटर्स की संख्या से करीब आधी. हैरानी की बात ये है कि दक्षिण कोरिया की कुल आबादी करीब सवा 5 करोड़ है. यानी दक्षिण कोरिया की करीब 80 प्रतिशत आबादी के पास वोट का अधिकार है. दक्षिण कोरिया में वोटिंग से पहले सभी पोलिंग बूथ के सेनेटाइज किया गया, वोटर्स के शरीर का तापमान चेक किया गया और जिन लोगों में कोरोना वायरस के लक्षण पाए गए उन्हें वोट डालने के बाद सीधे टेस्ट के लिए भेज दिया गया? भारत का चुनाव आयोग भी दक्षिण कोरिया के मॉडल का विश्लेषण कर रहा है. लेकिन फिर भी भारत में करोड़ों वोटर्स से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराना आसान नहीं होगा. तो सवाल ये है कि फिर क्या किया जा सकता है.



अब टेक्नोलॉजी से होगा चुनाव-प्रचार
इसका एकमात्र विकल्प ये है कि जिस तरह आप ऑनलाइन शॉपिंग करते हैं और सामान की होम डिलिवरी कराते हैं. ठीक उसी तरह चुनाव प्रचार की भी होम डिलिवरी कराई जाए. इसके लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, ऑनलाइन कैंपेन और डिजिटल टेक्नोलॉजी की मदद ली जाएगी. पिछले कुछ वर्षों में चुनाव प्रचार के दौरान डिजिटल टेक्नोलॉजी काफी बढ़ा है. लेकिन अब चुनाव प्रचार को पूरी तरह इन्हीं टेक्नोलॉजी के हवाले करना होगा.


2016 में डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव प्रचार में भी डेटा का जबरदस्त इस्तेमाल हुआ था. और ब्रिटेन की एक कंपनी कैंब्रिज एनालिटिका (Cambridge Analytica) पर तो ये आरोप भी लगा था कि उसने करोड़ों वोटर्स के डेटा का इस्तेमाल करके उन्हें प्रभावित किया. 2017 में ब्रिटेन के आम चुनावों में भी लेबर पार्टी ने तकनीक की मदद से वोटरों के रुझान का पता लगाने की कोशिश की थी.


2016 में ही जब ब्रिटेन में ब्रेक्जिट (Brexit) यानी ब्रिटेन के यूरोपियन यूनियन छोड़ने के मुद्दे पर वोट डाले गए तब भी तकनीक की मदद से मतदाताओं को प्रभावित किया गया था. एक अनुमान के मुताबिक इस दौरान मतदाताओं को यूरोपियन यूनियन छोड़ने के पक्ष में करीब 100 करोड़ विज्ञापन दिखाए गए थे. कई देशों में बड़ी राजनैतिक पार्टियां तो अब प्रचारकों की जगह डेटा साइंटिस्ट की भर्ती कर रही हैं.


अब भी दुनिया की राजनैतिक पार्टियां फेसबुक की लुक ए लाइक सर्विस का इस्तेमाल कर रही हैं. इस सर्विस के जरिए पार्टियां भविष्य के उन मतदाताओं का पता लगा सकती हैं। जिनके विचार पार्टी का समर्थन करने वालों से मिलते जुलते हैं. भारत में राजनैतिक पार्टियों को वोटर्स के डेटा का इस्तेमाल करना होगा और हो सकता है कि ये मतदाता भविष्य में मत डेटा कहलाने लगें. यानी ऐसे लोग जिनके डेटा से उनका मत पहचाना जा सकता है.



चुनाव-प्रचार में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस!
इसके अलावा भविष्य के चुनाव-प्रचार में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का भी जबरदस्त इस्तेमाल किया जा सकता है. आज आप जितनी भी डिजिटल डिवाइस प्रयोग करते हैं, वो आपके व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ बताने में सक्षम हैं. आपकी लोकेशन, आपके विचार, आपकी खरीददारी की आदतें और यहां तक कि आपके स्वास्थ्य के बारे में भी बड़ी आसानी से पता लगाया जा सकता है. मान लीजिए आपने अपने हाथ में एक स्मार्ट वॉच पहन रखी है या फिर एक फिटनेस बैंड बांधा हुआ है और इस दौरान आप किसी नेता का भाषण सुनते रहे हैं तो ये स्मार्ट वॉच या फिटनेस बैंड ये पता लगाने में सक्षम होगा कि आपको उस नेता का भाषण सुनकर खुशी हो रही है या क्रोध आ रहा है. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस इंसानी भावनाओं को पढ़ने में ज्यादा सक्षम हो जाएंगी और हो सकता है कि AI ही भविष्य में स्टार प्रचारकों की जगह ले ले.


चुनाव प्रचार के लिए नेताओं को रैलियां करने की जरूरत इसलिए भी नहीं होगी, क्योकि सारी प्रचार सामग्री आपके मोबाइल फोन पर उपलब्ध कराई जा सकती है और इसके लिए आपको किसी बड़े मैदान में, तपती धूप में भूखे पेट खड़े होने की भी जरूरत नहीं है. अब राजनैतिक पार्टियां भी मानने लगी हैं कि मतदाता वोट देने का मन घर के लिविंग रूम में नहीं बल्कि अपना मोबाइल फोन देखते हुए बनाते हैं. यानी आपका मोबाइल फोन ही चुनावी रैलियों का मैदान बन जाएगा.


2017 में हुई एक स्टडी के मुताबिक एक फेसबुक लाइक भी ये बताने में सक्षम है कि वोटर का रुझान किस तरफ है. ये भी हो सकता है कि स्थानीय नेता, आपके घर आकर वोट मांगने की बजाय इंटरनेट पर चैट बोट (Chat Bot) यानी बातचीत करने वाले रोबोट के जरिए आपसे वोट मांगें. ऑनलाइन सेवाएं उपलब्ध कराने वाली की कंपनियां चैट बोट का इस्तेमाल करती हैं. चैट बोट से आप अपना सवाल पूछ सकते हैं और रोबोट, मशीन लर्निंग के आधार पर आपके सवालों का जवाब देता है. और इस पूरी प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण चरण भी शायद ऑनलाइन ही पूरा कराना होगा. यानी लोगों को अपना वोट डालने के लिए घर से बाहर जाकर लाइनों में लगने की जरूरत नहीं होगी, लोग ऑनलाइन ही किसी मोबाइल फोन एप्लिकेशन की मदद से ऐसा कर पाएंगे. AI आपका चेहरा पहचानने में सक्षम होगा और इसी के जरिए आपसे ऑनलाइन वोटिंग कराई जाएगी.


यानी आने वाले समय में चुनावी रैलियां और रोड शो बीते ज़माने की बात बन जाएंगे. लेकिन सिर्फ चुनाव के तरीके ही नहीं बदलेंगे बल्कि चुनाव के मुद्दे भी बदलने वाले हैं. पार्टियों के घोषणापत्र भी अब कोरोना वायरस के बाद की स्थितियों को देखते हुए बनाए जाएंगे. संभव है कि मैनिफेस्टो में स्वास्थ्य सबसे बड़ा मुद्दा बन जाए. घोषणा पत्र में पार्टियों को बताना पड़ेगा कि कोई महामारी फैलने की स्थिति में वो जनता के लिए क्या करेंगी ? ज्यादा से ज्यादा लोगों तक स्वास्थ्य सेवाओं पहुंचाने के लिए उनके पास कौन सी योजना है?


ये भी संभव है कि कोरोना वायरस के बाद स्थानीय नेता ज्यादा मजबूती से उभरें. क्योंकि अपने क्षेत्र की जनता की जरूरतें और समस्याएं स्थानीय नेताओं को सबसे अच्छे तरीके से पता होंगी. लेकिन अगर चुनाव प्रचार सीमित होगा तो नए नेताओं को इससे नुकसान भी हो सकता है क्योकि संकट के समय जनता नए लोगों पर दांव लगाना पसंद नहीं करती हैं.


DNA वीडियो:



सबसे बड़ी बात ये है कि अब शायद लोग जात-पात और धर्म के आधार पर वोट डालने से बचेंगे. क्योंकि इस संकट से देश की हर जाति और हर उम्र का व्यक्ति प्रभावित है. सब यही चाहेंगे कि उनका नेता जाति-और धर्म की बात करने की बजाय उनके स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था की बात करें. हालांकि इस महामारी ने समाज को अमीर और गरीब में जरूर बांट दिया है क्योंकि अमीरों की तुलना में गरीबों के लिए जीवन पहले से मुश्किल हो गया है. इसलिए हो सकता है कि आने वाले समय में गरीबों के हितों का ध्यान रखने वाला नेता ही सबसे बड़ा जन नेता बनकर उभरे.


इतना ही नहीं नेताओं को ऐसी महामारियों से लड़ने के लिए नई संस्थाएं बनाने की घोषणा करनी पड़ेगी. ये संस्थाएं उन देशों पर भी कार्रवाई करने में सक्षम होनी चाहिए जिन पर ऐसे वायरस जानबूझ कर फैलाने के आरोप हैं. राजनीति की तरह खेल की दुनिया भी बदल जाएगी. फुटबॉल और क्रिकेट जैसे लोकप्रिय खेलों के दौरान स्टेडियम अक्सर खचाखच भरे रहते हैं. लेकिन आने वाले समय में ऐसा नहीं हो पाएगा, टीमें स्टेडियम में खेलेंगी जरूर लेकिन वहां दर्शक नहीं होंगे. दर्शक या तो अपने टेलीविजन पर, अपने मोबाइल फोन और टैब्स पर या फिर वर्चुअल रियल्टी की मदद से ही अपना पसंदीदा खेल देख पाएंगे. यानी ये महामारी राजनीति के खिलाड़ियों से लेकर असली खिलाड़ियों तक का जीवन हमेशा के लिए बदल देगी.