नई दिल्ली: आज हम डीएनए में एक सवाल के साथ आपके सामने आए हैं और सवाल ये है कि केरल में ईद पर लॉकडाउन में छूट देना कैसे सेकुलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्ष है और कैसे यूपी में कांवड़ यात्रा को मंजूरी देना सांप्रदायिक है? 


भीड़ का रंग भी अब धर्मनिरपेक्षता का रूप तय करने लगा? 


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1950 में जब हमारे देश का संविधान लागू हुआ था तो हमसे ये वादा किया गया था इस देश में रहने वाले हर नागरिक को बराबरी का दर्जा मिलेगा, चाहे वो किसी भी धर्म या जाति से हो और हम एक धर्मनिरपेक्ष देश कहलाएंगे.


हमसे वादा किया गया था कि यहां होली, दीवाली, क्रिसमस और ईद सबको बराबरी से मनाया जाएगा. सब पर एक जैसे नियम कानून लागू होंगे, लेकिन आज 71 वर्ष के बाद हम फिर वही सवाल उठा रहे हैं कि हमारे देश में दीवाली और ईद पर अलग-अलग नियम लागू क्यों होते हैं? और कैसे हमारे देश में भीड़ का रंग भी अब धर्मनिरपेक्षता का रूप तय करने लगा है? 


अगर भीड़ का रंग हरा है, तो उसे अलग चश्मे से देखा जाता है और अगर भीड़ का रंग केसरी हो तो उसे अलग चश्मे से देखा जाता है. इसलिए आज हम सबसे पहले यही सवाल उठाएंगे कि क्या भारत में धर्मनिरपेक्षता की नजर को कमजोर बनाने वाला ये चश्मा सबके लिए समान नहीं हो सकता? 


सुप्रीम कोर्ट में केरल के मामले को लेकर सुनवाई


कल 20 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में केरल के मामले को लेकर सुनवाई हुई, जिसमें कोर्ट ने केरल सरकार द्वारा ईद पर लॉकडाउन में दी गई छूट को लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ बताया. इस सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने दो बड़ी बातें कहीं.


पहली बात ये कि जो नियम यूपी में कांवड़ यात्रा को लेकर लागू होते हैं, वही नियम केरल में ईद के त्योहार पर भी लागू होते हैं और केरल सरकार को कांवड़ यात्रा पर दिए उसके निर्देशों का पालन करना चाहिए.


दूसरी बड़ी बात कोर्ट ने ये कही कि अगर लॉकडाउन में छूट की वजह से केरल में कोरोना का विस्फोट होता है तो कोई भी व्यक्ति इसे अदालत के संज्ञान में ला सकता है और इसके बाद कोर्ट इस पर उचित कार्रवाई करेगा.


यहां एक बात समझने वाली ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने भले केरल सरकार के फैसले की आलोचना की हो, लेकिन अदालत चाह कर भी इन नियमों पर रोक नहीं लगा सकी और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि, ये छूट 18, 19 और 20 जुलाई के लिए दी गई थी. यानी अगर सुप्रीम कोर्ट कल इन नियमों पर रोक भी लगा देता, तब भी इससे कोई बड़ा फायदा नहीं होता. ईद की खरीदारी के लिए केरल के बाजारों को 18 जुलाई से ही खोल दिया गया था.


हालांकि अगर सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश की कांवड़ यात्रा की तरह केरल सरकार की इस छूट पर भी तेजी दिखाई होती और सुपरफास्ट फैसला दिया होता तो शायद ये भीड़ वहां जुटती ही नहीं. केरल सरकार ने 16 जुलाई को ईद की खरीदारी के लिए लॉकडाउन में छूट का ऐलान किया था, लेकिन ये मामला सुप्रीम कोर्ट में तीन दिन के बाद 19 जुलाई को पहुंचा, यानी इस मामले में सुनवाई ही तब शुरू हुई, तब लॉकडाउन में छूट के नियम लागू हो गए थे, लेकिन यूपी के मामले में ऐसा नहीं हुआ था. यूपी की योगी सरकार ने 13 जुलाई को तय किया था कि राज्य में 25 जुलाई से कांवड़ यात्रा को मंजूरी दी जाएगी, लेकिन इसके अगले ही दिन 14 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्वत: संज्ञान ले लिया और यूपी सरकार से कांवड़ यात्रा को रोकने के लिए कहा.


सेलेक्टिव हो जाना डबल स्टैंडर्ड्स नहीं?


पॉइंट ये है कि अगर कांवड़ यात्रा की तरह सुप्रीम कोर्ट ने ईद पर भी स्वत संज्ञान लिया होता तो शायद ये भीड़ इकट्ठा ही नहीं होती और केरल में कोरोना का विस्फोट करने वाली ये भीड़ जुटती ही नहीं. बड़ी बात ये है कि केरल सरकार ने कोर्ट को अपनी सफाई में ये कहा कि लॉकडाउन में छूट इसलिए दी गई क्योंकि, दुकानदार और व्यापारी संगठन इसकी मांग कर रहे थे. सोचिए,  केरल की सरकार व्यापारी संगठनों के सामने झुक गई और ये भी भूल गई कि इस समय पूरे भारत में केरल कोरोना के प्रतिदिन मामलों की सूची में टॉप पर है.


19 जुलाई को भारत में कोरोना के लगभग 30 हजार नए मरीज मिले थे, जिनमें से लगभग 10 हजार मामले अकेले केरल से थे. यानी कुल मामलों में अकेले केरल की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत से ज्यादा की थी, जिससे केरल सरकार के फैसले पर और भी गंभीर सवाल खड़े होते हैं.


केरल सरकार के इस सेकुलरिज्म वाले मॉडल को आप यहां के बाजारों से आई तस्वीरों से भी समझ सकते हैं. केरल के बाजारों में पिछले तीन दिनों से लोगों की भीड़ ईद की खरीदारी के लिए इकट्ठा हो रही है, लेकिन ये भीड़ कुम्भ की भीड़ की तरह किसी की आंखों को चुभती नहीं है और इसीलिए आज हम ये सवाल उठा रहे हैं कि क्या भीड़ को लेकर सेलेक्टिव हो जाना डबल स्टैंडर्ड्स नहीं हैं?


कांवड़ यात्रा को मंजूरी देना सांप्रदायिकता कैसे?


आज आपको ये भी समझना चाहिए कि केरल में ईद पर लॉकडाउन में छूट देना कैसे सेकुलर यानी धर्मनिरपेक्ष हो जाता है और कैसे यूपी में कांवड़ यात्रा को मंजूरी देना, सांप्रदायिक मान लिया जाता है?


2011 की जनगणना के मुताबिक, केरल में लगभग 27 प्रतिशत आबादी मुस्लिम समुदाय की है, जबकि यूपी में हिंदू आबादी लगभग 80 प्रतिशत है. समझने वाली बात ये है कि यूपी में अगले साल विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं, लेकिन इसके बावजूद राज्य की योगी सरकार ने कांवड़ यात्रा पर रोक लगा दी. वहीं केरल में लगभग 27 प्रतिशत मुस्लिम आबादी होने की वजह से केरल की लेफ्ट सरकार इस वोट बैंक को नजरअंदाज नहीं कर पाई.


मुस्लिम वोट बैंक का मोह


सरल शब्दों में कहें तो योगी सरकार ने कांवड़ यात्रा पर रोक लगाने के लिए अपने 80 प्रतिशत हिंदू वोट बैंक को कुंए में डाल दिया, लेकिन केरल सरकार 27 प्रतिशत मुस्लिम वोट बैंक का मोह नहीं छोड़ पाई और इसके लिए उसने कोरोना से भी समझौता कर लिया.


सोचिए, अगर यही फैसला यूपी सरकार ने लिया होता तो अब तक वहां की सरकार को हिंदू सरकार घोषित कर दिया गया होता और हमारे देश के विपक्षी नेता, बुद्धिजीवी और टुकड़े टुकड़े गैंग के सदस्य सरकार को कट्टरवादी हिंदुओं की सरकार बताने लगते, लेकिन केरल के मामले में ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ. किसी ने भी केरल की सरकार को मुस्लिमों की सरकार नहीं कहा और वहां की सरकार पर सांप्रदायिक होने के भी आरोप नहीं लगे.


कड़वी सच्चाई तो ये है कि जो सरकारें धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठा कर चलती हैं, वही सरकारें सांप्रदायिकता के सिद्धांत को बढ़ावा देती हैं और अल्पसंख्यकों की राजनीति करती हैं, लेकिन इस टेम्पलेट की हमारे देश में कभी कोई चर्चा नहीं होती. इसीलिए आज आपको एक उदाहरण के जरिए इस राजनीति को भी समझना चाहिए.



वर्ष 2015 में जब केरल में कांग्रेस गठबंधन वाली यूडीएफ सरकार थी, उस समय अल्पसंख्यक समुदाय के लिए स्कॉलरशिप स्कीम शुरू हुई थी. इसके तहत तब की यूडीएफ सरकार ने तय किया था कि इस स्कीम में 80 प्रतिशत स्कॉलरशिप्स मुस्लिम समुदाय के छात्रों को मिलेंगी, जबकि 20 प्रतिशत ईसाई छात्रों को मिलेंगी. केरल में मुस्लिम और ईसाई धर्म के लोगों की आबादी लगभग बराबर है, लेकिन इसके बावजूद ऐसा फैसला लिया गया, जिसमें सांप्रदायिकता की मात्रा काफी अधिक है और वर्ष 2021 में केरल हाई कोर्ट ने इस स्कीम को खारिज भी कर दिया था.


इस समय केरल ही नहीं, बल्कि देश के अलग अलग शहरों में ईद की खरीदारी के लिए बाजारों में लोगों की भारी भीड़ इकट्ठा हो रही है, लेकिन इस भीड़ को उस चश्मे से नहीं देखा जा रहा, जिस चश्मे से दीवाली और होली के त्योहार पर इकट्ठा होने वाली भीड़ को देखा गया था.


तीसरी लहर की वजह बन सकती है भीड़


हमारे पास एक अंतरराष्ट्रीय मीडिया नेटवर्क द्वारा प्रकाशित किए गए एक लेख की कॉपी है. इसमें लिखा है- Diwali is Looking Like a Super Spreader. हिंदी में इसका अर्थ हुआ- दीवाली का त्योहार कोरोना के लिए सुपर स्प्रेडर जैसा साबित हो रहा है.


क्या ईद के त्योहार पर देशभर में जुट रही भीड़ के लिए अब यही बातें लिखी जाएंगी? क्या इस पर भी यही नजरिया अपनाया जाएगा? आज ये बड़ा सवाल हम पूछ रहे हैं.


हमने देशभर से ईद की खरीदारी के लिए बाजारों में जमा हुई भीड़ की तस्वीरें निकाली हैं और हमें लगता है कि ये भीड़ भी दीवाली, होली और कुम्भ पर जुटने वाली भीड़ की तरह सुपर स्प्रेडर बन सकती है और इसे अलग नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए.


वैसे तो भारत में कोरोना के मामले कम हो रहे हैं, लेकिन इस भीड़ ने चिंता बढ़ा दी है और कई लोग कह रहे हैं कि क्या ईद का त्योहार कोरोना की तीसरी लहर की वजह बन सकता है?



ईद पर जानवरों की कुर्बानी 


आपको याद होगा हमने आपके सामने एक नया विचार रखा था कि क्या ग्रीन दीवाली की तरह अब ग्रीन ईद मनाने का समय आ गया है? एक नई रिपोर्ट में पता चला है कि इस समय मुंबई में 23 जगहों पर गैर कानूनी तरीके से बकरों और दूसरे जानवरों को बेचा जा रहा है. 


ये स्थिति तब है, जब महाराष्ट्र सरकार ने कोरोना के खतरे को देखते हुए जिंदा जानवरों की बिक्री पर रोक लगा दी है और ऐसे मार्केट्स को बंद रखने का फैसला किया है, लेकिन इसके बावजूद ईद पर इन जानवरों की कुर्बानी देने के लिए ये जानवर धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं.


इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि मुंबई में जो जानवर बेचे जा रहे हैं, उनकी संख्या 1 लाख से ज्यादा है और ये सभी जानवर असम, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से कुर्बानी देने के लिए खरीदे गए हैं. ये काम चोरी छिपे नहीं हो रहा है, बल्कि इस समय सड़कों और फुटपाथ पर अतिक्रमण करके इन जानवरों को ऊंचे दामों पर ईद की कुर्बानी के लिए बेचा जा रहा है.


झारखंड के हजारीबाग में तो 50 हजार रुपये तक के बकरे बेचे जा रहे हैं. सोचिए ये कैसी कुर्बानी हुई और इन जानवरों के अधिकारों का क्या होगा?


आज हम आपसे ये अपील करते हैं कि आप इको फ्रेंडली ईद मनाइए. इस बार रक्त रहित ईद मनाइए और मासूम जानवरों की कुर्बानी देना बंद कीजिए. हम आपसे यही कहना चाहते हैं कि इस बार बिना खून बहाए आपको अल्लाह की ईबादत करनी चाहिए. और हम यही कहेंगे कि जब अलग अलग धर्मों को अलग अलग चश्मे से देखा जाता है तो उस चश्मे से धर्मनिरपेक्षता धुंधली दिखाई देने लगती है और एक दिन दिखाई देना ही बंद हो जाती है.