DNA ANALYSIS: खेती के लिए मरते किसान, पति छीन लेने वाले कर्ज की कहानी
देश भर में जितना अनाज उगाया जाता है. उसमें पंजाब की हिस्सेदारी 12 प्रतिशत से ज्यादा है. लेकिन अब पंजाब के कई गांव ऐसे हैं जहां किसी भी परिवार में कोई पुरुष नहीं बचा है. इन गांवों में जितने भी घर हैं उसमें रहने वाले सभी पुरुष कर्ज की वजह से आत्महत्या कर चुके हैं.
नई दिल्ली: हम सब बचपन से ये सुनते आए हैं कि भारत किसानों का देश है और जितनी कद्र सेना के जवानों की होनी चाहिए उतना ही सम्मान देश के किसानों का भी होना चाहिए. शायद यही सोचते हुए पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा भी दिया था. लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत के 52 प्रतिशत किसान परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं.
यहां तक कि फिल्मों और कहानियों में पंजाब के जिन किसानों को सबसे खुशहाल किसान के रूप में दिखाया जाता है. उन किसानों के पास भी अब आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. देश भर में जितना अनाज उगाया जाता है. उसमें पंजाब की हिस्सेदारी 12 प्रतिशत से ज्यादा है. लेकिन अब पंजाब के कई गांव ऐसे हैं जहां किसी भी परिवार में कोई पुरुष नहीं बचा है. इन गांवों में जितने भी घर हैं उसमें रहने वाले सभी पुरुष कर्ज की वजह से आत्महत्या कर चुके हैं और अब लोग इन्हें विधवाओं का गांव कहने लगे हैं.
जब हमें इन गांवों के बारे में पता चला तो Zee News की रिपोर्टिंग टीम इन गांवों में पहुंची और आज हम आपको बताने वाले हैं कि हमारे रिपोर्टर ने उन गांवों में जाकर क्या देखा ?
10 वर्षों में साढ़े तीन हजार से ज्यादा किसानों ने की आत्महत्या
पंजाब में पिछले 10 वर्षों में साढ़े तीन हजार से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं और इनमें से 97 प्रतिशत आत्महत्याएं पंजाब के मालवा इलाके में हुई हैं. इसका परिणाम ये हुआ है कि मालवा के जिन खेतों में किसान कभी कपास, गेहूं और धान उगाया करते थे. वही खेत अब किसानों के कब्रिस्तानों में बदलने लगे हैं.
जीते जी किसान सिर्फ एक वोट?
वर्ष 2019 में भारत में 10 हज़ार 281 किसानों ने आत्महत्या की थी और इसके पीछे सबसे बड़ी वजह कर्ज़ ही थी. भारत में हर साल कुल जितने लोग आत्महत्या करते हैं उनमें से 8 प्रतिशत किसान ही होते हैं. भारत में किसानों के जो परिवार कर्ज़ में डूबे हैं उन पर औसतन 1 लाख 10 हज़ार रुपये का कर्ज़ है. सुनने में ये रकम आपको छोटी लग सकती है. लेकिन जो किसान साल भर अपने खेतों में फसल के उगने का इंतज़ार करता है और फिर उसे मामूली से मुनाफे पर बाज़ार में बेचता है. उसके लिए घर चलाने के साथ साथ कर्ज की किस्तें चुकाना मुश्किल हो जाता है और कई बार परिस्थितियां ऐसी हो जाती है कि किसान आत्महत्या कर लेते हैं. हकीकत ये है कि भारत में एक किसान जीते जी सिर्फ एक वोट बनकर रह जाता है और मरने के बाद वो सिर्फ मुआवजे वाली एक सरकारी फाइल में बदल जाता है.
जिस चौखट पर कभी गेहूं और धान की कटी हुई फसल बरकत का इशारा लाया करती थी, उस चौखट पर अब उदासी भरी सांझ रहती है. ये पंजाब के मानसा के कोट धर्मु गांव में किसान नाज़र सिंह का घर है. जहां अब नाज़र सिंह की सिर्फ यादें बाकी हैं, जिस पेड़ के नीचे नाज़र सिंह ने कभी अपने बेटे राम सिंह को किसानी के गुर सिखाए थे. पहले नाज़र सिंह ने उसी पेड़ पर फांसी लगाकर जान दे दी और फिर इसी साल उनके बेटे राम सिंह ने भी सलफास की गोलियां खा लीं. दोनों पीढ़ियां सिर्फ इसलिए खत्म हो गईं क्योंकि इस परिवार ने किसानी करने के लिए जो 4 लाख रुपये का कर्ज़ लिया था ये परिवार उसे चुकाने की स्थिति में नहीं था.
कर्ज़ के बोझ तले दबकर दो पीढ़ियां खत्म हो गईं
नाज़र सिंह की पत्नी की नजरें अब एक टक उसी पेड़ को देखती रहती हैं जिस पर लटक कर नाज़र सिंह ने अपनी जान दी थी. ये वाकया 1 सितंबर 2011 का है और आज भी नाज़र सिंह की पत्नी और बेटी उस दिन को याद करके रुआंसी हो उठती हैं. 4 लाख रुपए के कर्ज़ ने पहले पिता को आत्महत्या के लिए मजबूर किया, घर का एक हिस्सा बेचने के बाद भी परिवार दो ढाई लाख रुपए ही जुटा पाया. नाज़र सिंह के बेटे राम सिंह ने अपने पिता की कर्ज़ की किस्ते चुकाने की भरसक कोशिश की. लेकिन ब्याज़ बढ़ता गया, मूलधन वहीं का वहीं रहा और राम सिंह ने भी उसी दहलीज़ पर जान दे दी जिससे वो और उनके पिता खुशियों के अंदर आने का इंतज़ार ताउम्र करते रहे.
कोटधर्मु गांव में ये सिसकियां किसी एक घर की कहानी नहीं है, बल्कि एक एक करके इस गांव के ज्यादातर घरों के पुरुष कर्ज के बोझ के तले दब कर आत्महत्या कर चुके हैं.
रंजीत सिंह का परिवार भी ऐसा ही है जिन्होंने किसानी के लिए कर्ज़ लिया था जो बढ़ते बढ़ते 11 लाख तक पहुंच गया. ऊपर से बेटे की बीमारी ने परिवार को तोड़कर रख दिया और रंजीत ने एक दिन अपने खेत में ही जाकर फांसी लगा ली.
परिवार का कहना है कि खेती करने के तरीकों में आए बदलाव की वजह से रंजीत सिंह को अपनी फसल पर दो से तीन गुना ज्यादा निवेश करना पड़ रहा था यानी लागत ज्यादा थी और मुनाफा कम ऐसे में कर्ज़ कम होने की बजाय बढ़ता गया.
कुछ ही दूरी पर भम्मा गांव के किसान गुरप्यार सिंह के परिवार में भी अब कोई भी पुरुष नहीं बचा है. अब इस घर में सिर्फ गुरप्यार की पत्नी परमजीत कौर और उनकी दो बेटियां रहती हैं. इस परिवार को भी कर्ज़ की दीमक खा गई और अब अकेली परमजीत इस कर्ज से भी छुटकारा पाना चाहती हैं और अपनी बेटियों के भविष्य को भी सुरक्षित करना चाहती है.
अपने साथ हुए हादसे के बारे में बताते हुए गांव भम्मा की रहने वाली परमजीत कौर बताती है कि कई साल पहले उसके पति गुरप्यार सिंह ने 11 लाख के कर्ज के दबाव के कारण आत्महत्या कर ली थी और कुछ महीने पहले इस परिवार के आखिरी सहारे 15 साल के उनके बेटे गुरनैब सिंह की एक दर्द नाक सड़क हादसे में मृत्यु हो गई.
परमजीत कहती हैं कि मेरे बेटा ही इस परिवार की आखिरी उम्मीद था जो अब खत्म हो गई. मेरे पति ने खेती के लिए ही कर्ज़ लिया था लेकिन फसल खराब हो गई और तब हम धान की फसल पर निर्भर हो गए उसे भी बेमौसम बारिश ने नष्ट कर दिया. अपने पति की मौत को याद करते हुए परमजीत कहती हैं कि मेरे पति मुझसे बिना कुछ कहे घर से निकल गए और अगली खबर जो मैंने सुनी वो मेरे पति की मौत की थी. मैं और मेरी बेटियां अभी तक उस सदमे से उबर नहीं पाए.
कर्ज़ के बोझ ने एक-एक सांस को बोझिल कर दिया
जब हम पंजाब में विधवाओं के गांवों से ये रिपोर्टिंग कर रहे थे. तभी हमारी मुलाकात राजविंदर कौर के परिवार से हुई, इस परिवार का किसान बेटा भी कर्ज़ की वजह अपनी जान दे चुका था. फांसी लगाने वाले जसवीर सिंह युवा थे. उनकी आंखों में अपने और अपने परिवार के लिए कई सपने थे. लेकिन कर्ज़ के बोझ ने उनकी एक-एक सांस को बोझिल कर दिया था.
जसवीर के पिता अपने बेटे के जाने का गम भुला नहीं सके थे और हाल ही में उनकी भी मृत्यु हो गई. ऐसा नहीं है कि किसानों की आत्महत्याओं को रोकने की कोशिशें नहीं हो रही है. लेकिन मदद के अभाव में ये काम बहुत आसान भी नहीं है.
पंजाब का मालवा अब किसानों की आत्महत्या के लिए पूरे देश में बदनाम
पंजाब का मालवा अब किसानों की आत्महत्या के लिए पूरे देश में बदनाम हो रहा है. मानसा के कोठधर्मु गांव में 4000 हज़ार वोटर्स रहते हैं लेकिन इनके बीच करीब 20 से 25 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. आरोप ये भी है कि कई बार किसानों को कपास जैसी फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम कीमत पर बेचने पर मजबूर किया जाता है. इसके अलावा मौसम की मार और लचर सरकारी व्यवस्थाएं कई बार किसानों के लिए आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ती.
ज्यादातर योजनाएं कागज़ों से नीचे नहीं उतर पातीं
आत्महत्या करने वाले किसानों को मुआवज़ा देने के लिए भी कई योजनाएं बनाई गईं लेकिन ज्यादातर योजनाएं कागज़ों से नीचे नहीं उतर पातीं. भारत को एक कृषि प्रधान देश कहा जाता है. लेकिन भारत के किसान जिस तरह से कर्ज़ के बोझ की वजह से अपनी जान दे रहे उसे देखकर लगता नहीं है कि हमारे देश के सिस्टम और राजनैतिक पार्टियों ने किसानों को कभी वोट से ज्यादा कुछ समझा है.
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