DNA ANALYSIS: दुनिया में विरोध प्रदर्शनों की `राजधानी` कैसे बन गया भारत?
महात्मा गांधी ने सत्याग्रह को आधार बनाकर अहिंसक आंदोलन किए. इसने आंदोलनों की कला को घर-घर तक पहुंचा दिया और आंदोलन ग्लैमराइज्ड होने लगे. आज भी आंदोलन के प्रति भारत के लोगों का आकर्षण कम नहीं हुआ है और जब ये आकर्षण विकृत हो जाता है तो ये `भारत बंद` की शक्ल ले लेता है.
नई दिल्लीः आज हम ये समझने की कोशिश करेंगे कि क्या अब भारत को बंद की राजनीति से आगे नहीं बढ़ जाना चाहिए? और क्या बंद करने की बजाय शुरू करने पर विचार नहीं होना चाहिए? आज ये समझने का दिन है कि आंदोलनों को आधुनिक और सकारात्मक कैसे बनाया जा सकता है. आज किसानों के समर्थन में 20 विपक्षी पार्टियों ने बंद का ऐलान किया था. ज़रा याद कीजिए कि आखिरी बार आपने सड़कों पर हुआ ऐसा कौन सा आंदोलन या विरोध प्रदर्शन देखा था. जो सफलतापूर्वक अपने उदेश्य हासिल कर पाया हो. 73 वर्षों के इतिहास में अगर किसी आंदोलन को सफलता मिली भी, तो वो बहुत तत्कालिक थी और जितनी देर में उस आंदोलन का निर्माण हुआ था. उससे कम समय में उसकी एक्सपायरी डेट आ गई. ऐसे तमाम उदाहरण आज हम आपको देंगे.
कल किसानों ने अपनी मांगों को लेकर भारत बंद बुलाया था, जिसे 20 राजनीतिक पार्टियों ने भी समर्थन दिया. इस दौरान देश भर के कई शहरों में विरोध प्रदर्शन हुए. इस बंद का असर मिला जुला रहा. जहां विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं. वहां इस बंद को सफल दिखाने की कोशिश हुई, जबकि बाकी के राज्यों में इस बंद का सिर्फ आंशिक असर ही दिखा. यानी इस बंद को लेकर सफलता की जो उम्मीद ये 20 विपक्षी पार्टियां कर रही थीं, उन्हें इसमें कोई विशेष सफलता नहीं मिली.
इस बीच सिंघु बॉर्डर पर किसान नेताओं की एक बैठक भी हुई. जिसमें आज सरकार के साथ होने वाली बैठक पर चर्चा की गई. जिन राज्यों में कांग्रेस और उसके समर्थन वाली सरकारें हैं, वहां जमकर प्रदर्शन हुए. लेकिन इन राज्यों में इस बंद को आम लोगों का साथ नहीं मिला. पश्चिम बंगाल में लेफ्ट पार्टियों के कार्यकर्ता रेल की पटरियों पर बैठ गए, जिसकी वजह से कई ट्रेनें रद्द हो गई और कई ट्रेनें देर से चलीं.
महाराष्ट्र में भी इस बंद का आंशिक असर दिखा. उत्तर प्रदेश में बंद के दौरान कई विपक्षी पार्टियों ने प्रदर्शन किए. उत्तर प्रदेश में कई जगहों पर प्रदर्शन कर रहे समाजवादी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पुलिस ने हिरासत में ले लिया. कर्नाटक में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने जबरन लोगों की दुकानें बंद करवाईं, जिसका विरोध भी हुआ. पटना में आरजेडी और लेफ्ट पार्टियों ने तोड़फोड़ और हंगामा किया. बिहार के कटिहार में भारत बंद के दौरान एक बीमार महिला दर्द से तड़पती रही, लेकिन प्रदर्शनकारियों ने उसे रास्ता नहीं दिया.
दिल्ली में बंद का ज़्यादा असर नहीं दिखा. ज़्यादातर बाज़ार खुले रहे और बंद की वजह से मेट्रो सेवा भी प्रभावित नहीं हुई. हालांकि दिल्ली में इस पर राजनीति बहुत हुई. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली पुलिस पर अरविंद केजरीवाल को हाउस अरेस्ट करने का आरोप लगाया और आम आदमी पार्टी के नेताओं ने इसके विरोध में धरना भी दिया. हालांकि दिल्ली पुलिस ने इन आरोपों को खारिज कर दिया. दिल्ली पुलिस ने अरविंद केजरीवाल का एक दिन पुराना वीडियो भी जारी किया है. इस वीडियो में उनकी गाड़ी सीएम हाउस से बाहर जाती हुई दिख रही है.
किसान संगठन भी बंटते हुए दिख रहे
कल किसान नेताओं का एक दल भी केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात करने पहुंचा. इस बैठक में किसान नेता राकेश टिकैत भी मौजूद रहे. राकेश टिकैत ने सरकार के साथ बातचीत से जल्द शुभ संकेत आने की बात कही थी. यानी अब किसान संगठन भी बंटते हुए दिख रहे हैं. कुछ दल सरकार के साथ बातचीत करने को तैयार हैं और बीच का रास्ता निकालना चाहते हैं तो कुछ अब भी अपनी मांगों पर अड़े हैं.
कल हरियाणा में भी करीब डेढ़ लाख किसानों का नेतृत्व करने वाले कुछ किसान संगठनों ने कहा था कि वो नए कानूनों पर सरकार के साथ हैं. यानी अब धीरे धीरे ये आंदोलन कई गुटों में बंटता हुआ लग रहा है.
देश बंद, सड़क बंद, बाज़ार बंद . इससे सिर्फ़ हमारा यानी देश का नुक़सान होता है. अंग्रेजों के ज़माने में ये रणनीति ठीक थी लेकिन ये चिट्ठियों का नहीं ईमेल का ज़माना है, हाय हाय का नहीं, वाई फाई का ज़माना है इसलिए आज देश भर के संगठनों और राजनीतिक पार्टियों को ये सोचना चाहिए कि आंदोलनों को आधुनिक और सकारात्मक कैसे बनाया जा सकता है?
कहते हैं कि शरीर नष्ट हो जाता है. लेकिन आत्मा नष्ट नहीं होती, शरीर आत्मा के लिए सिर्फ एक वाहन का काम करता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि अपनी राजनीति को अजर और अमर रखने के लिए राजनीतिक दल भी प्रदर्शनों का किसी वाहन की तरह इस्तेमाल करते हैं और हमारे देश में पिछले 73 वर्षों से यही हो रहा है.
विरोध के शांतिपूर्ण तरीके ईजाद करने वालों में सबसे आगे महात्मा गांधी
भारत जब अंग्रेज़ों के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था, तब पहली बार इस तरह से इतने बड़े पैमाने पर सत्ता का विरोध शुरू हुआ. विरोध के अहिंसक और शांतिपूर्ण तरीके ईजाद करने वालों में सबसे आगे महात्मा गांधी थे. उन्होंने ये काम बहुत शानदार तरीके से किया भी. उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ एक भी गोली नहीं चलाई. लेकिन आंदोलनों के दम पर भारत को आजादी दिला दी.
1947 में भारत आजाद हो गया. 1948 में महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई और ये अध्याय यहीं समाप्त हो गया. लेकिन आज़ादी के बाद भी भारत में आंदोलनों का सिलसिला समाप्त नहीं हुआ.
देश आंदोलनों में अटका रहेगा?
73 वर्षों में भारत में 50 से भी ज्यादा ऐतिहासिक और बड़े विरोध प्रदर्शन और आंदोलन हो चुके हैं. इनमें हम छोटे मोटे प्रदर्शनों को नहीं जोड़ रहे हैं. अगर इनको भी इसमें जोड़ लिया जाए तो भारत में हर हर साल औसतन 2 से तीन प्रदर्शन होते हैं. अब आप सोचिए, जो देश आंदोलनों में अटका रहेगा तो वो आगे कैसे बढ़ पाएगा?
1857 में भारत के सैनिकों ने कंपनी राज के खिलाफ विद्रोह किया था. वो भारत के स्वतंत्रता की पहली लड़ाई थी, जिसमें सैनिकों ने हिंसा का भी सहारा लिया था. लेकिन इसके बाद गांधी जी ने सत्याग्रह को आधार बनाकर अहिंसक आंदोलन किए.
आंदोलन के प्रति भारत के लोगों का आकर्षण
इसने आंदोलनों की कला को घर-घर तक पहुंचा दिया और आंदोलन ग्लैमराइज्ड होने लगे. आज भी आंदोलन के प्रति भारत के लोगों का आकर्षण कम नहीं हुआ है और जब ये आकर्षण विकृत हो जाता है तो ये 'भारत बंद' की शक्ल ले लेता है. इसमें कोई भी पार्टी दूध की धुली नहीं है. आज के भारत बंद को 20 से ज्यादा राजनीतिक पार्टियों का समर्थन हासिल है. 2012 में बीजेपी के साथ मिलकर 12 पार्टियों ने इसी तरह से बंद का ऐलान करके. उस समय की यूपीए सरकार का विरोध किया था.
भारत में हड़ताल और बंद की शुरुआत
भारत में हड़ताल और बंद की शुरुआत पहली बार कब और कहां हुई थी. इसकी ठीक-ठीक कोई जानकारी तो उपलब्ध नहीं है. लेकिन कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में ये दावा है कि भारत में बंद और हड़ताल की शुरुआत 1862 में हुई थी. जब फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर हड़ताल पर चले गए थे. इसके सिर्फ 9 वर्षों के बाद हावड़ा स्टेशन के 1200 कर्मचारी हड़ताल पर चले गए. इनकी मांग थी कि इनके काम के घंटों यानी वर्किंग आवर्स को घटाकर 8 घंटे किया जाए.
इसके बाद हड़ताल और बंद का ये सिलसिला ऐसे ही चलता रहा. कहा जाता है कि राजनैतिक कारणों से पहली हड़ताल वर्ष 1908 में मुबई में की गई थी. 24 जून 1908 को ब्रिटिश सरकार की पुलिस ने बाल गंगाधर तिलक को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था और इसके विरोध में बॉम्बे में काम करने वाले सैकड़ों कर्मचारी हड़ताल पर चले गए थे और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे. 6 दिनों तक चले इस विरोध प्रदर्शन में 200 से ज्यादा लोगों की जान भी चली गई थी.
पूरी दुनिया के मुकाबले सबसे ज्यादा प्रदर्शन भारत में हुए
लेकिन आजादी से पहले जो आंदोलन, देशभक्ति और अंग्रेज़ों के जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने का जरिया हुआ करते थे. वो आने वाले 73 वर्षों में सिर्फ राजनैतिक पार्टियों का वाहन बनकर रह गए. आप भारत को दुनिया में विरोध प्रदर्शनों की राजधानी भी कह सकते हैं. ये बात हम आंकड़ों के आधार पर कह रहे हैं. हमने वर्ष 1990 से लेकर 2018 तक के कुछ आंकड़े निकाले हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि कैसे 18 वर्षों के दौरान पूरी दुनिया के मुकाबले सबसे ज्यादा प्रदर्शन भारत में हुए. अगर वर्ष 1995 से 2000 के बीच के दौर को छोड़ दें तो प्रदर्शनों का ग्राफ ज्यादातर समय ऊपर ही जाता रहा है.
भारत में सरकारों का रवैया खामोश बने रहने का
हमें आज रिसर्च के दौरान ये भी पता लगा कि ज्यादातर विरोध प्रदर्शनों के दौरान भारत में सरकारों का रवैया खामोश बने रहने का होता है यानी ज्यादातर समय सरकारें विरोध प्रदर्शनों को नज़र अंदाज़ करती है. प्रदर्शनकारियों से डील करने का दूसरा सबसे काॅमन तरीका है भीड़ को तितर बितर करना. इसके बाद नंबर आता है गिरफ्तारियों का. बहुत कम मौकों पर सरकारें प्रदर्शनकारियों से बात करती हैं. कुछ मौकों पर प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच हुई झड़प में गोली चलने से कुछ लोग मारे जाते हैं. लेकिन आम तौर पर ऐसा बहुत कम मौकों पर होता है.
इसके अलावा हमारे पास वर्ष 1990 से 2018 के बीच प्रदर्शनों में हुई हिंसा के भी कुछ आंकड़े हैं और ये आंकड़े बताते हैं कि इनमें से ज्यादातर विरोध प्रदर्शन किसी न किसी मौके पर हिंसक हो गए. सबसे ज्यादा हिंसक प्रदर्शन वर्ष 2001, 2008 और 2017 के दौरान हुए.
इसके अलावा Armed Conflict Location and Event Data के मुताबिक, उत्तर भारत में ज्यादातर विरोध प्रदर्शन लेबर यूनियनों के सहारे होते हैं, जबकि भारत के बाकी इलाकों में अमूमन हर प्रदर्शन के पीछे कोई न कोई राजनैतिक पार्टी होती है. लेकिन अब ऐसा लगता है कि उत्तर भारत के विरोध प्रदर्शनों को भी राजनैतिक पार्टियां हाई जैक करने लगी हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं, लेफ्ट पार्टियां जो इस आंदोलन में सबसे ज्यादा आक्रामक हैं. लेकिन लेफ्ट पार्टियां ये भूल जाती हैं उनके गढ़ यानी केरल में, किसान कानून में विवाद की वजह बनी पीएमसी व्यवस्था है ही नहीं, लेकिन वहां सरकार चलाने वाली लेफ्ट पार्टियां भी अब किसानों के आंदोलन में एंट्री करना चाहती हैं.
जब उदारीकरण का दौर शुरू हुआ...
भारत बंद या प्रदर्शनों के जरिए न तो पहली बार भारत में किसी कानून का विरोध हो रहा है और न ही ये आखिरी बार है क्योंकि, अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए आंदोलन का जो तरीका महात्मा गांधी ने ईजाद किया था उसे भारत के आजाद होने के बाद भी बदला नहीं जा सका है. पिछले तीन दशकों की ही बात करें तो वर्ष 1991 में भारत में जब उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो कुछ राजनैतिक पार्टियां इसका भी विरोध करने लगीं. उस समय वामपंथी विचारधारा वाले देश के कम से कम 35 अर्थशास्त्रियों ने इसका विरोध किया था और कहा था कि उदारीकरण से अच्छा है कि भारत IMF के सामने खुद को कंगाल घोषित कर दे.
इसी तरह शेयर मार्केट के दलालों ने वर्ष 1994 में शेयर मार्केट में इलेक्ट्राॅनिक ट्रेडिंग का विरोध किया था. इसी वर्ष भारत में प्राइवेट बैंकों को लाइसेंस मिलने की शुरुआत हुई थी और इसका भी कई यूनियनों ने जबरदस्त विरोध किया था.
1990 के दशक में ही जब भारत में FDI की अनुमति दी गई थी तब राजनैतिक पार्टियों ने इसका भी विरोध शुरू कर दिया था. हैरानी की बात ये है कि एक समय में बीजेपी भी FDI के विरोध में थी.
GST के कानून बनने से पहले और बाद में भी कई राज्य सरकारें और यूनियन इसका विरोध करते रहे.
1990 के दशक में जब भारत में कम्प्यूटर क्रांति की शुरुआत हुई तो बहुत सारी विपक्षी पार्टियां इसके भी पक्ष में नहीं थीं. इसके बाद बोफोर्स तोप का विरोध हुआ, रफाल लड़ाकू विमानों का विरोध हुआ. बालाकोट एयर स्ट्राइक का विरोध हुआ, सर्जिकल स्ट्राइक का विरोध हुआ, अफजल गुरु और याकूब मेमन जैसे आतंकवादियों को फांसी दिए जाने विरोध हुआ.
अगला विरोध कोरोना वायरस की वैक्सीन को लेकर?
हाल ही के दिनों में नए नागरिकता कानून का विरोध हुआ, NRC का विरोध हुआ और विरोध प्रदर्शनों का ये सिलसिला अब नए कृषि कानूनों तक पहुंच गया है. कुछ लोग नए संसद भवन के निर्माण का भी विरोध कर रहे हैं, बहुत संभव है कि अगला विरोध कोरोना वायरस की वैक्सीन को लेकर होने लगे और राजनैतिक पार्टियां इसके विरोध को भी आंदोलन की शक्ल दे दें.
विरोध प्रदर्शनों से हासिल क्या होता है?
लेकिन इन तमाम विरोध प्रदर्शनों से हासिल क्या होता है? वर्ष 2011 में जनलोकपाल कानून को लेकर दिल्ली में एक बड़ा आंदोलन हुआ. लेकिन आज तक वैसा जनलोकपाल कानून नहीं आ पाया जिसकी मांग की गई थी. आंदोलन करने वाले अन्ना हज़ारे वापस अपने गांव लौट गए. लेकिन शायद उन्होंने भी कभी ये जानने की कोशिश नहीं की है कि जनलोकपाल का क्या हुआ? इस आंदोलन से आम आदमी पार्टी का भी जन्म हुआ जो आंदोलन के दौरान कांग्रेस का विरोध कर रही थी. लेकिन आगे चलकर इस पार्टी ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई. बोफोर्स घोटाले का जमकर विरोध हुआ लेकिन इस घोटाले में राजीव गांधी की क्या भूमिका थी, इस बारे में आज भी कुछ साफ नहीं है.
अमेरिका से सीख सकती हैं भारत की राजनैतिक पार्टियां
भारत के लोगों को आंदोलन और विरोध प्रदर्शनों का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत हासिल है. संविधान का यही आर्टिकल लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी का मूलभूत अधिकार देता है. लेकिन राजनैतिक पार्टियों के लिए ये आंदोलन इंस्टैंट क्रांति का दिखावा करने के लिए एक उचित मंच बन जाते हैं और आंदोलनों के नाम पर विनाशकारी राजनीति होने लगती है, जबकि होना ठीक इसके विपरीत चाहिए यानी विरोध करने का सकारात्मक तरीका अपनाना चाहिए. लेकिन ये एक लंबा संघर्ष है. इसमें परिश्रम ज्यादा लगता है और किसी भी राजनैतिक पार्टी के पास न तो इसके लिए धैर्य है, न ही नीयत है. लेकिन अमेरिका के एक उदाहरण से भारत की राजनैतिक पार्टियां बहुत कुछ सीख सकती हैं. अमेरिका के तीन पूर्व राष्ट्रपतियों ने तय किया है कि वो सार्वजनिक रूप से कोरोना वायरस की वैक्सीन लगवाएंगे.
इन पूर्व राष्ट्रपतियों के नाम हैं, बराक ओबामा, जाॅर्ज डब्ल्यू बुश और बिल क्लिंटन. बराक ओबामा और बिल क्लिंटन डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति थे, जबकि जाॅर्ज डब्ल्यू बुश की विचारधारा रिपबल्किन है. लेकिन अपने देश के लोगों को संदेश देने के लिए ये तीनों नेता एक मंच पर आने वाले हैं. ताकि अमेरिका के लोगों के मन से नई वैक्सीन के प्रति डर को खत्म किया जा सके. अब आप कल्पना कीजिए कि क्या भारत में कभी ऐसा हो सकता है?
क्या कभी ये संभव है कि भारत की सभी राजनैतिक पार्टियां, बालाकोट एयरस्ट्राइक, सर्जिकल स्ट्राइक, चीन और आतंकवादियों को फांसी दिए जाने जैसे मुद्दों पर एक साथ आ जाएं और लोगों को बता सकें कि मुश्किल की घड़ी में सभी पार्टियां एक हैं. अफसोस भारत में अभी तक तो ऐसा नहीं हो पाया है और आगे भी हो पाएगा, इसकी संभावना बहुत कम है.
बेल्जियम के किसान भी नई कृषि नीति का विरोध कर रहे
जो लोग आंदोलनों के पक्ष में हैं उनके मन में ये सवाल जरूर आता होगा कि अगर मांगे मनवाने के लिए प्रदर्शन ना किए जाएं, तो फिर क्या किया जाए, सड़कें जाम ना की जाएं, तो फिर क्या किया जाए. नारेबाज़ी न की जाए तो क्या किया जाए, आज हम इसका भी जवाब लेकर आए हैं. बेल्जियम के किसान भी नई कृषि नीति का विरोध कर रहे हैं. लेकिन इसके लिए इन्होंने सड़कों को जाम नहीं किया बल्कि अपनी बात कहने के लिए अलग अलग तरीके अपनाए.
उदाहरण के लिए इन किसानों ने यूरोपियन काउंसिल के मुख्यालय के बाहर अपने जूते रख दिए और कृषि के औजारों के साथ जापान की एक मार्शल आर्ट फाॅर्म काता का प्रदर्शन किया.
ये किसान पिछले 2 वर्षों से अपनी मांगे मनवाने की कोशिश कर रहे हैं और इनका भी अपनी सरकारों के साथ वैसा ही संघर्ष चल रहा है, जैसा भारत के किसानों का है. लेकिन इनके तरीकों में और हमारे देश में आंदोलन के तरीकों में बहुत फर्क है.
अब कुछ लोग ये कहेंगे कि यूरोप के किसान समृद्ध हैं और वहां की सरकारें अपने किसानों की बातें सुन लेती हैं तो ऐसे लोगों को हम विरोध के कुछ और नए तरीकों के बारे में बताना चाहते हैं.
जब हुई Me too मूवमेंट की शुरुआत
उदाहरण के लिए 2018 में पूरी दुनिया में बड़े पैमाने पर मी टू मूवमेंट शुरू हुआ था. ये काम के दौरान होने वाली यौन हिंसा के विरोध में चलाया गया अभियान था. लेकिन इसके लिए कहीं सड़कों को जाम नहीं किया गया, टायर नहीं जलाए गए और नारेबाज़ी नहीं की गई. ये आंदोलन मुख्य रूप से सोशल मीडिया तक सीमित रहा लेकिन इसे जबरदस्त सफलता मिली. भारत में भी कई लोग इस अभियान का हिस्सा बने, भारत सरकार के एक केंद्रीय मंत्री को तो मी टू के आरोपों के बाद अपनी कुर्सी तक गंवानी पड़ी. कई लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई. बड़े बड़े कलाकारों को फिल्में मिलना बंद हो गईं और कई बड़ी प्रोडक्शन कंपनियों ने ऐलान किया कि वो मी टू के आरोपी किसी भी व्यक्ति के साथ कोई काॅन्ट्रैक्ट नहीं करेंगी. कई लोगों का सामाजिक बहिष्कार तक किया गया. इसमें कोई बड़ा नेता शामिल नहीं था. कोई नेता धरने पर नहीं बैठा, चाहे वो विपक्ष के नेता रहे हों या सरकार के नेता. लेकिन फिर भी इस आंदोलन ने अपना जबरदस्त असर दिखाया.
इसी तरह बेंगलुरू में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने टूटी सड़कों का विरोध बहुत दिलचस्प अंदाज़ में किया. इसने सड़क पर मौजूद गड्ढों में मगरमच्छ की कलाकृति बना दी. इससे बेंगलुरू प्रशासन का ध्यान इस समस्या की तरफ गया और अगले दिन से ही पूरे शहर की सड़कों की मरम्मत का काम शुरू हो गया.
आंदोलन 2.0 सड़कों पर नहीं, सोशल मीडिया पर
आप इसे आंदोलन 2.0 भी कह सकते हैं जो सड़कों पर नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर होता है. लेकिन हमारे देश के राजनेताओं को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है क्योंकि हमारे देश में अगर कोई नेता सड़कों पर उतरने के लिए 100 लोगों की भीड़ भी जमा कर लेता है तो लोग उसे बड़ा नेता कहने लगते हैं.
73 वर्षों के दौरान करीब 54 वर्षों तक कांग्रेस या कांग्रेस के समर्थन से चलने वाली सरकारों ने भारत में राज किया है. ज़ाहिर है कि ज्यादातर आंदोलन और विरोध प्रदर्शन भी कांग्रेस के खिलाफ ही हुए. लेकिन क्या कांग्रेस कभी पूरी तरह खत्म हो पाई. आज भी भारत के करीब 18 से 20 प्रतिशत लोगों को कांग्रेस का वोटबैंक माना जाता है. 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 51 सीटें मिली, 2012 तक सत्ता में कांग्रेस ही थी. लेकिन कोई भी आंदोलन कांग्रेस का नामोनिशान पूरी तरह से नहीं मिटा पाया.
यहां तक कि इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के विरोध में जय प्रकाश नारायण ने कांग्रेस के खिलाफ बहुत बड़े आंदोलन किए, कांग्रेस के हाथ से कुछ वर्ष के लिए सत्ता भी निकल गई. लेकिन 1980 में एक बार फिर से कांग्रेस जीत गई और इंदिरा गांधी फिर से देश की प्रधानमंत्री बन गईं.
हम ये नहीं कह रहे कि उस समय कांग्रेस के खिलाफ चलाए गए आंदोलनों का कोई असर नहीं हुआ. लेकिन आपको ये सोचना चाहिए कि अगर आंदोलनों का असर स्थायी होता तो शायद इंदिरा गांधी के बाद भी उनकी ही संतानें इतने वर्षों तक सत्ता में नहीं रहतीं.
जब ब्रिटेन बड़े आर्थिक और श्रमिक सुधारों के दौर से गुज़र रहा था
40 साल पहले 1980 के दशक में जब ब्रिटेन बड़े आर्थिक और श्रमिक सुधारों के दौर से गुज़र रहा था, तब वहां भी इन सुधारों के खिलाफ ऐसे ही विरोध प्रदर्शन हो रहे थे लेकिन तब वहां की तत्कालीन प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर ने इन विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ सख्त रूप अपनाया. उन्होंने कहा कि अगर ब्रिटेन को तरक्की के रास्ते पर जाना है तो वो इन सुधारों से पीछे नहीं हट सकतीं. तब ब्रिटेन की लगभग सभी ट्रेड यूनियनें, मारग्रेट थैचर के खिलाफ थीं. लेकिन वो इस दबाव में नहीं आईं और माना जाता है कि उनके इसी कड़े रुख ने ब्रिटेन की डूबती अर्थव्यवस्था को बचा लिया था और ब्रिटेन ने अपना पुराना वर्चस्व फिर से हासिल किया. आप कह सकते हैं कि भारत भी सुधारों के दौर से गुज़र रहा है और भारत यहां से किस दिशा में जाएगा, ये इस बात पर निर्भर करेगी कि भारत की सरकार इन दबावों के आगे झुकती है या नहीं.