DNA ANALYSIS: केरल में संक्रमण के दौरान मजहबी डिस्काउंट? जब दिवाली इको फ्रेंडली तो ईद क्यों नहीं
आपने ग्रीन दीवाली के बारे में सुना होगा. इको फ्रेंडली होली और इको फ्रेंडली गणेश उत्सव के बारे में भी सुना होगा, लेकिन ग्रीन ईद मनाने पर हमारे देश में कभी कोई चर्चा नहीं होती. अगर होती भी है तो इस चर्चा को एक विशेष धर्म के खिलाफ जोड़ कर देखा जाता है.
नई दिल्ली: अब हम आपके सामने एक सवाल उठाएंगे और वो ये कि कोविड के इस दौर में कांवड़ियों की भीड़ से ज्यादा कोरोना फैलेगा या ईद मनाने वालों की भीड़ से या फिर दोनों से. क्या कुंभ की भीड़ और ईद की भीड़ को अलग-अलग चश्मे से देखना चाहिए?
लॉकडाउन में भारी डिस्काउंट
केरल की सरकार ने डॉक्टरों और वैज्ञानिकों की सलाह न मानते हुए 20 तारीख को ईद से पहले लॉकडाउन में भारी डिस्काउंट दे दिया है और ये मामला अब सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया है. सुप्रीम कोर्ट में आज एक याचिका दायर हुई, जिसमें ये कहा गया कि ईद के लिए कोविड के नियमों में ढील देने से केरल में कोरोना का विस्फोट हो सकता है. अब सुप्रीम कोर्ट इस मामले में आज सुनवाई करेगा और ईद 21 जुलाई को है.
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी केरल सरकार को एक चिट्ठी लिख कर उसके फैसले की आलोचना की है और उसका कहना है कि ईद के धार्मिक आयोजन पर लॉकडाउन में ढील देने से कोरोना फैल सकता है और केरल सरकार को जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों से सीख लेनी चाहिए, जहां महामारी को देखते हुए पहले चारधाम यात्रा पर रोक लगाई और फिर कांवड़ यात्रा को भी रद्द कर दिया गया.
क्या ईद के त्योहार में भी कुछ बदलाव नहीं हो सकते?
आपको याद होगा 14 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कांवड़ यात्रा पर स्वत संज्ञान लिया था और उत्तर प्रदेश सरकार से इस यात्रा को रोकने की मांग की थी और उत्तर प्रदेश सरकार ने कोर्ट की इस बात को मान भी लिया और हमें लगता है कि ये सही भी है. इस कोरोना काल में ऐसे किसी भी कार्यक्रम को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, जिससे संक्रमण फैलने का खतरा है, लेकिन यहां ये सवाल भी है कि जब कांवड़ यात्रा रुक सकती है तो क्या ईद के त्योहार में भी कुछ बदलाव नहीं हो सकते हैं?
ग्रीन ईद मनाने पर कभी कोई चर्चा नहीं होती
आज हम एक नया विचार आपके लिए लाए हैं और वो ये है कि क्या दीवाली और होली के त्योहार की तरह ही ईद का त्योहार भी इको फ्रेंडली तरीके से सेलिब्रेट नहीं किया जा सकता? क्या ग्रीन दीवाली की तरह ग्रीन ईद नहीं मनाई जानी चाहिए? हमारे देश में छोटे बड़े मिला कर सभी धर्मों के 1 हजार से ज्यादा त्योहार हर साल मनाए जाते हैं और इनमें से कुछ त्योहारों पर एक्सपर्ट कमेंट्री हर साल होती है. आपने ग्रीन दीवाली के बारे में सुना होगा. इको फ्रेंडली होली और इको फ्रेंडली गणेश उत्सव के बारे में भी सुना होगा, लेकिन ग्रीन ईद मनाने पर हमारे देश में कभी कोई चर्चा नहीं होती.
अगर होती भी है तो इस चर्चा को एक विशेष धर्म के खिलाफ जोड़ कर देखा जाता है और हो सकता है कि आज हमारे इस विश्लेषण को भी कुछ लोग एक धर्म के खिलाफ बताएं, लेकिन इन लोगों से आज आपको सावधान हो जाना चाहिए, क्योंकि ये वही लोग हैं, जो ये कहते हैं कि दीवाली से वायु प्रदूषण फैलता है, होली के त्योहार से पानी की बर्बादी होती है और गणेश उत्सव से समुद्र और नदियों को नुकसान पहुंचता है.
ये बात सही भी है, लेकिन ये लोग कभी ये नहीं कहते कि ईद के त्योहार पर एक दिन में लाखों करोड़ों जानवरों को मार दिया जाता है और इससे भी पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है.
लाखों-करोड़ों जानवरों की कुर्बानी
इस समय पूरी दुनिया में इस्लाम धर्म को मानने वाले 190 करोड़ लोग हैं.अगर 5 लोगों का एक परिवार भी किसी जानवर की कुर्बानी देता है तो इस तरह से ईद के त्योहार पर एक दिन में ही 38 करोड़ जानवरों की कुर्बानी दे दी जाती है. हालांकि ये सिर्फ एक अनुमान है. ये संख्या इससे कम और ज्यादा भी हो सकती है.
ईद पर जिन जानवरों की कुर्बानी दी जाती है, उनमें भेड़, बकरी, गाय, ऊंट और भैंस जैसे जानवर होते हैं.
वर्ष 2016 में बांग्लादेश की राजधानी ढाका की कुछ तस्वीरें पूरी दुनिया में बहस का विषय बन गई थीं क्योंकि, तब वहां सड़कों पर उन हजारों जानवरों का खून बह रहा था, जिनकी कुर्बानी ईद के मौके पर दी गई थी. उस समय कुछ दिन तक ये बहस चली कि जानवरों की कुर्बानी नहीं देनी चाहिए, लेकिन ये बहस कभी सार्थक नहीं रही और इसे इस्लाम विरोधी बता कर खारिज कर दिया गया.
हिंदू धर्म के त्योहारों की सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग
हालांकि ये एक अपवाद भी है क्योंकि, जब भारत में हिंदू धर्म के त्योहारों की सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग होती है तो इसमें हमारे देश का एक वर्ग बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता है और हम अपने त्योहारों की आलोचना को स्वीकार भी करते हैं. आज देश में दीवाली का त्योहार बाद में आता है और ग्रीन दीवाली की चर्चा पहले से शुरू हो जाती है, लेकिन इस बहस को हिंदू विरोधी बता कर कभी पूरी तरह खारिज नहीं किया जाता.
आज भारत में ग्रीन पटाखों का कारोबार बड़ा होता जा रहा है और लोग त्योहार मनाने की अपनी परंपराओं में परिवर्तन ला रहे हैं.
-वर्ष 2019 में देश में धुआं फैलाने वाले पटाखों की ब्रिकी 20 से 30 प्रतिशत तक गिर गई थी.
-इसके अलावा कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में तो अब ग्रीन पटाखे ही फोड़े जा सकते हैं.
और ये बदलाव सिर्फ दीवाली के त्योहार में नहीं आया है. ठीक ऐसा ही परिवर्तन होली के त्योहार में भी हुआ है. आज देश में सूखी होली और ऑर्गेनिक रंगों के इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है ताकि होली के मौके पर जो पानी की बर्बादी होती है, उसे रोका जा सके और हम सृष्टि के प्रति अपना आभार व्यक्त कर सकें.
दीवाली और होली की तरह गणेश उत्सव को भी इको फ्रेंडली बनाने की मांग है. पिछले कुछ वर्षों में शुद्ध मिट्टी से बनी प्रतिमाओं की मांग बढ़ी है और अब तो सब्जी, फूल और फूलों के बीज से तैयार हुई गणेश प्रतिमाएं भी खरीदी जा रही हैं, लेकिन ये तमाम बदलाव हिंदू धर्म से जुड़े त्योहारों में ही ज्यादा देखने को मिलते हैं, लेकिन कभी कोई ग्रीन ईद की बात नहीं करता, जबकि ग्रीन ईद का विचार कई रूप में इस त्योहार को सार्थक बना सकता है. धर्म के नाम पर लाखों-करोड़ों जानवरों की कुर्बानी देना सिर्फ मानवता के खिलाफ नहीं है, बल्कि इससे पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है.
शाकाहार से 50 लाख मौतों को टाला जा सकता है
अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज की एक स्टडी के मुताबिक, अगर शाकाहार को भोजन में ज्यादा जगह दी जाए तो दुनिया में हर साल होने वाली 50 लाख मौतों को टाला जा सकता है.
भोजन में मांसाहार की मात्रा कम करने से दुनिया में हर साल लगभग 66 लाख 73 हजार करोड़ रुपये बचाए जा सकते हैं, जबकि ग्रीन हाउस गैसेज के उत्सर्जन में कमी आने से 33 लाख 36 हजार करोड़ रुपये की बचत हर साल हो सकती है.
हर धर्म में हो ये परिवर्तन
जानवरों की बलि देने की मान्यता सिर्फ इस्लाम धर्म में नहीं है. हिंदू धर्म में भी धार्मिक अनुष्ठानों में जानवरों की बलि दी जाती है और हमें लगता है कि परिवर्तन सिर्फ एक धर्म की परंपरा में नहीं आना चाहिए, बल्कि सभी धर्मों को इसे अपनाना चाहिए.
दो दिन पहले जब जम्मू-कश्मीर में इस तरह की अफवाह उड़ी कि जानवरों की कुर्बानी पर वहां प्रतिबंध लगने वाला है तो कुछ इस्लामिक संस्थाएं नाराज हो गईं, जिसके बाद जम्मू-कश्मीर प्रशासन को ये स्पष्ट करना पड़ा कि बकरीद के मौके पर ऐसा कोई बैन नहीं लगाया गया है. दुनियाभर में ऐसे कई संस्थाएं और लोग हैं, जो जानवरों के अधिकारों की बात करती हैं, लेकिन जिन जानवरों को कुर्बानी के लिए मार दिया जाता है, क्या उनके अधिकार नहीं होते. ये भी आज एक बड़ा सवाल है? इसलिए यहां आज आपको ये भी जानना चाहिए कि इस्लाम धर्म में कुर्बानी के लिए क्या कहा गया है?
इस्लाम धर्म में कुर्बानी के लिए क्या कहा गया है?
कुरान में बताया गया है कि एक बार अल्लाह ने हज़रत इब्राहिम साहब की परीक्षा लेनी चाही. उन्होंने हज़रत इब्राहिम साहब को हुक्म दिया कि वो अपनी सबसे प्यारी चीज को उन्हें कुर्बान कर दें. हज़रत इब्राहिम को अपने बेटे हज़रत इस्माइल सबसे ज्यादा प्यारे थे, क्योंकि उन्हें 86 वर्ष की उम्र में हज़रत ईस्लाइल के रूप में पहली संतान नसीब हुई थी.
उन्होंने अल्लाह के हुक्म को पूरा करते हुए अपने बेटे की कुर्बानी दे दी, लेकिन जब उन्होंने अपनी आंख खोली तो देखा कि उनका बेटा उनके पास जीवित खड़ा था. इस परीक्षा में हज़रत इब्राहिम साब पास हो गए थे.
लेकिन समय के साथ इस्लाम धर्म में कुर्बानी का मतलब बदलता चला गया और आज के जमाने में लोग एक दो दिन पहले बाजार से बकरे को खरीद कर लाते हैं और उसकी कुर्बानी दी जाती है, जबकि इससे कुर्बानी का असली मकसद कभी पूरा नहीं होता. कुर्बानी का अर्थ है, ऐसी चीज की कुर्बानी देना जो आपको सबसे प्रिय हो.
अब सोचिए कि ईद से एक दो दिन पहले खरीदे गए जानवर प्रिय कैसे हो सकते हैं और इनकी जान लेना कितना सही है.
पाकिस्तान के लेखक और पत्रकार तारिक़ फ़तह ने एक बार कहा था कि लोग जानवरों की जगह अपने मोबाइल फोन की कुर्बानी क्यों नहीं देते क्योंकि, मोबाइल फोन से प्रिय आज के जमाने में क्या हो सकता है.
रीति-रिवाजों और परंपराओं को एक चश्मे से क्यों नहीं देखा जाता?
इस समय दुनिया में एक भी देश ऐसा नहीं है, जिसने ग्रीन ईद के विचार को अपनाया हो, लेकिन यूरोप के कुछ देशों में ऐसा कानून बनाया गया है कि वहां जानवरों को बेहोश करके ही उनकी कुर्बानी दी सकती है, लेकिन इस्लाम धर्म के प्रचारक मानते हैं कि इस कानून से कुर्बानी का मकसद पूरा नहीं होता.
यहां एक विडम्बना ये भी है कि सुप्रीम कोर्ट वैसे तो दीवाली पर प्रदूषण फैलाने वाले पटाखों पर बैन लगा देता है, लेकिन इको फ्रेंडली ईद को लेकर कभी भी स्वत संज्ञान नहीं लेता. अब सवाल है कि हमारे देश में सभी धर्मों के रीति-रिवाजों और परंपराओं को एक चश्मे से क्यों नहीं देखा जाता है.