DNA ANALYSIS: AMU के संस्थापक सर सैयद अहमद खान क्यों देश की आजादी को लंबे समय तक टालना चाहते थे?
वर्ष 1867 में ही सैयद अहमद खान को ब्रिटेन की सरकार ने Sir की उपाधि दे दी थी. इन उपाधियों को देने की शुरुआत पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद हुई थी और ये उन्हीं लोगों को दी जाती थी, जो ब्रिटिश सरकार के हित में काम करते थे. यानी यहीं से भारत के पुरस्कार गैंग की शुरुआत हुई थी.
नई दिल्ली: कल 22 दिसंबर को राष्ट्रीय गणित दिवस मनाया गया और इस मौके पर हम प्रतिभा के गणित और सांप्रदायिकता के गणित की एक तुलना करेंगे. 22 दिसंबर को राष्ट्रीय गणित दिवस के तौर पर इसलिए मनाया जाता है क्योंकि, वर्ष 1887 में इसी दिन भारत के महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का जन्म हुआ था. रामानुजन को अपनी प्रतिभा के दम पर ब्रिटेन की मशहूर Cambridge University जाने का मौका मिला. जहां पहुंचकर उन्होंने उस समय के बड़े बड़े अंग्रेज़ गणितज्ञों को भी विलक्षण प्रतिभा से अपना प्रशसंक बना लिया. लेकिन क्या आप जानते हैं कि जिस वर्ष रामानुजन का जन्म हुआ, उसी वर्ष अलीगढ़ मुस्लिम University की स्थापना करने वाले सर सैयद अहमद ख़ान ने भारत में सांप्रदायिकता के गणित को समझाते हुए लखनऊ में एक भाषण दिया था और यही भाषण आगे चलकर धर्म के नाम पर भारत के बंटवारे का आधार बना.
प्रतिभा के गणित और सांप्रदायिकता के गणित की तुलना
संयोग की बात ये है कि रामानुजन अपनी प्रतिभा के दम पर Cambridge University पहुंचे थे और सर सैयद अहमद ख़ान ने उसी Cambridge University का दौरा करने के बाद भारत में मुसलमानों के लिए Cambridge की तर्ज पर एक University बनाने का सपना देखा था और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना करके उन्होंने अपना ये सपना पूरा भी कर लिया था. 1920 में ही अंग्रेज़ों को अपनी प्रतिभा का मुरीद बनाने वाले श्रीनिवास रामानुजन की मृत्यु हुई थी और 1920 में ही अलीगढ़ मुस्लिम University की स्थापना हुई थी. अब इस University की स्थापना के 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं और आज इसी मौके पर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए एक कार्यक्रम को संबोधित किया. इस दौरान उन्होंने बताया कि AMU जैसे संस्थान देश की ताकत और यहां पढ़ने वाले मुसलमान देश की Soft Power हैं. जिसे पहचानने की जरूरत है. प्रधानमंत्री मोदी ने एक महत्वपूर्ण बात ये भी कही कि समाज में भेदभाव हो सकते हैं, राजनैतिक विचारधाराएं अलग अलग हो सकती हैं. लेकिन किसी भी वजह से विकास नहीं रुकना चाहिए. उन्होंने ये भी कहा कि कोई भी फैसला लेते हुए हमेशा देश को आगे रखकर फैसला करना चाहिए. आप प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के कुछ अहम हिस्से सुनिए फिर हम प्रतिभा के गणित और सांप्रदायिकता के गणित की तुलना करेंगे.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी देश की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटीज में से एक हैं. University Grants Commission से देश भर के विश्वविद्यालयों को जो अनुदान मिलता है उसका 15 प्रतिशत AMU के पास ही जाता है. वर्ष 2018 में UGC ने कुल 7 हज़ार 315 करोड़ रुपये का अनुदान दिया था, जिसमें से AMU के हिस्से 1 हज़ार 115 करोड़ रुपये आए थे.
AMU में पढ़ने वाले हर छात्र पर केंद्र सरकार औसतन 3 लाख 98 हज़ार रुपये खर्च करती है, जबकि देश में प्रति व्यक्ति आय अभी सिर्फ सवा लाख रुपये है. AMU में 28 हज़ार से ज्यादा छात्र पढ़ते हैं और यहां पढ़ाने वाले टीचर्स की संख्य़ा 1300 से ज्यादा है और इस यूनिवर्सिटी में 98 शिक्षा विभाग हैं.
आजादी के 70 वर्ष बीत जाने के बाद भी AMU को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा हासिल है. जहां 50 प्रतिशत सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित हैं. हालांकि AMU से ये दर्जा वापस लेने से जुड़ा एक मामला अभी अदालत में लंबित है. AMU का कैंपस आकार में IIT दिल्ली और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के कैंपस से भी बड़ा है.
आपमें से शायद बहुत कम लोग ये जानते होंगे कि AMU से ग्रेजुएशन करने वाले पहले भारतीय का नाम ईश्वरी प्रसाद उपाध्याय था, जो भारत के महान इतिहासकार थे. उन्हें पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया था.
भारत के तीसरे राष्ट्रपति और भारत रत्न से सम्मानित ज़ाकिर हुसैन भी AMU के छात्र थे.
फ्रंटियर गांधी के नाम से मशहूर देशभक्त ख़ान अब्दुल ग़फार खान भी AMU के छात्र थे और उन्हें 1987 में भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया था.
भारत के पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी भी AMU के छात्र रहे हैं.
भारत के महान हॉकी खिलाड़ी ज़फर इकबाल ने भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की थी. जफर इकबाल को भारत में खेल की दुनिया के सबसे बड़े सम्मान अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री से भी सम्मानित किया जा चुका है.
यानी इस University ने देश को न सिर्फ दो-दो भारत रत्न दिए, बल्कि यहां से पढ़ने वाले कई छात्रों ने अलग अलग क्षेत्रों में देश का नाम रोशन किया.
देश को तोड़ने वाले मोहम्मद अली जिन्ना चाहिए या फिर देश की अखंडता
लेकिन इतना सब होने के बावजूद ये यूनिवर्सिटी कई बार विवादों के केंद्र में रहती है. वर्ष 2018 में इस यूनिवर्सिटी में लगी मोहम्मद अली जिन्नाह की तस्वीर हटाने को लेकर बहुत बड़ा विवाद हुआ था. छात्रों के एक पक्ष का कहना था कि यूनिवर्सिटी से मोहम्मद अली जिन्नाह की तस्वीर को हटाया नहीं जाना चाहिए क्योंकि, इन छात्रों का कहना था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को आगे बढ़ाने में जिन्नाह का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है और उनके पास इस यूनिवर्सिटी की छात्र यूनियन की आजीवन सदस्यता भी थी. लेकिन अगर ये छात्र चाहते तो देश को आगे रखकर इस पर विचार कर सकते थे कि इन्हें देश को तोड़ने वाले मोहम्मद अली जिन्ना चाहिए या फिर देश की एकता और अखंडता.
पिछले वर्ष नए नागरिकता कानून के विरोध में भी AMU में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे. यहां भी छात्र देश को आगे रखकर ये फैसला ले सकते थे कि उन्हें इस कानून का विरोध करना है या नहीं.
इतना ही नहीं प्रतिबंधित कट्टरवादी संगठन Students Islamic Movement of India यानी SIMI की स्थापना भी वर्ष 1977 में AMU के कुछ छात्रों ने ही की थी. इस संगठन के कई सदस्यों पर भारत में आतंकवादी गतिविधियों के आरोप हैं.
आरोप है कि कट्टरवादी इस्लामिक संगठन Popular Front of India यानी PFI भी AMU में बहुत सक्रिय रहता है. आरोप है कि PFI, AMU के मुसलमान छात्रों को स्कॉलरशिप भी देता है और कैंपस में होने वाले विरोध प्रदर्शनों की फंडिंग भी करता है.
यानी AMU अनेकता में एकता की प्रतीक तो है लेकिन AMU की इस पहचान को कुछ लोग धूमिल करना चाहते हैं और इस यूनिवर्सिटी का सांप्रयादिक करण करना चाहते हैं. AMU के छात्रों को ऐसे लोगों को पहचानना होगा और अपनी यूनिवर्सिटी की असली पहचान को कायम रखना होगा.
सांप्रदायिकता के इसी गणित के सहारे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना करने वाले सर सैयद अहमद खान ने Two Nation Theroy को जन्म दिया था और आज आपको सांप्रदायिकता के इस गणित को एक गणितज्ञ और राजनीतिज्ञ के जीवन की तुलना से समझना चाहिए.
श्रीनिवास रामानुजन ने गणित की दुनिया को महान फॉर्मूले दिए
अब आप इसे विडंबना भी कह सकते हैं कि जिन श्रीनिवास रामानुजन ने गणित की दुनिया को महान फॉर्मूले दिए, लेकिन उनकी प्रतिभा को दुनिया ने बहुत देर से पहचाना. आज दुनिया भर के वैज्ञानिक मानते हैं कि रामानुजन के फॉर्मूलों से विज्ञान के गहरे से गहरे रहस्यों को सुलझाया जा सकता है. रामानुजन ने औपचारिक रूप से कभी अपनी शिक्षा तक पूरी नहीं की थी, लेकिन वो फिर भी अपनी प्रतिभा के दम पर पूरी दुनिया में पहचाने गए, हालांकि इसमें काफी समय लग गया.
जबकि वर्ष 1867 में ही सैयद अहमद खान को ब्रिटेन की सरकार ने Sir की उपाधि दे दी थी. इन उपाधियों को देने की शुरुआत पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद हुई थी और ये उन्हीं लोगों को दी जाती थी, जो ब्रिटिश सरकार के हित में काम करते थे. यानी यहीं से भारत के पुरस्कार गैंग की शुरुआत हुई थी.
आज जब आप किसी को Sir कहकर बुलाते हैं तो आप सोचते हैं कि आप सामने वाले व्यक्ति को सम्मान दे रहे हैं, लेकिन सच ये है कि ये शब्द गुलामी की याद दिलाता है. इसलिए आप चाहें तो Sir की जगह श्रीमान शब्द का इस्तेमाल भी कर सकते हैं.
Two Nation Theory के जनक सैयद अहमद ख़ान
खैर, अब हम अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना करने वाले सैयद अहमद ख़ान के राजनीतिक और सांप्रदायिक गणित का विश्लेषण करेंगे, लेकिन उससे पहले हम आपको रामानुजन के बारे में एक तथ्य और बताना चाहते हैं. रामानुजन जब ब्रिटेन गए तो वहां उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा. रामानुजन पक्के हिंदू थे और हिंदू धर्म के हिसाब से ही शाकाहारी भोजन किया करते थे, लेकिन ब्रिटेन में वो ठीक से शाकाहार नहीं कर पाते थे. इसलिए उनकी तबीयत और बिगड़ने लगी. हालांकि अंग्रेज़ों के देश में जाकर भी उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा. दूसरी तरफ 80 वर्ष तक जीने वाले सर सैयद अहमद ख़ान थे, जो देखते ही देखते शिक्षाविद वाली छवि से धर्म के नाम पर Two Nation Theory के जनक बन गए और धर्म की बुनियाद पर ही इस देश के दो टुकड़े हो गए. यानी किसी के लिए धर्म का गणित प्राणों से ऊपर हो जाता है, तो किसी के लिए धर्म का गणित लोगों को बांटने वाले फॉर्मूले में बदल जाता है.
सैयद अहमद खान ने वर्ष 1875 में अलीगढ़ में Anglo Mohammedan Oriental School की स्थापना करके अलीगढ़ आंदोलन की शुरुआत की थी. जिसका मकसद मुसलमानों को पश्चिमी देशों की तर्ज पर शिक्षित करना था और यही स्कूल आगे चलकर कॉलेज में और फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बदल गया. 1860 के दशक के अंत में सर सैयद अहमद ख़ान अपने दो पुत्रों के साथ ब्रिटेन की यात्रा पर गए थे और वहीं तमाम मशहूर यूनिवर्सिटीज में घूमने के बाद उन्होंने अलीगढ़ में मुसलमानों के लिए यूनिवर्सिटी स्थापित करने की योजना बनाई.
अंग्रेज़ों की संस्कृति से बहुत प्रभावित
सर सैयद अहमद ख़ान अंग्रेज़ों की संस्कृति से बहुत प्रभावित थे और वो मानते थे कि अंग्रेज़ों को भारत नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि, अंग्रेज़ी शासन के तहत ही भारत के मुसलमानों को आगे बढ़ने का अवसर मिल सकता है. सैयद अहमद ख़ान ब्रिटिश संस्कृति से कितना प्रभावित थे. इसे समझने के लिए आज आपको एक शेर सुनना चाहिए. कहा जाता है कि ये ये शेर मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने सैयद अहमद खान की ब्रिटेन यात्रा के संदर्भ में लिखा था. उसी समय अकबर इलाहाबादी के एक मित्र हज की यात्रा पर गए थे और दोनों की तुलना करते हुए उन्होंने लिखा.
सिधारें शेख़ काबा को, हम इंग्लिस्तान देखेंगे,
वो देखें घर ख़ुदा का, हम ख़ुदा की शान देखेंगे.
अकबर इलाहाबादी कहना चाहते थे कि शेख तो काबा जाए हम इंग्लैंड जाएंगे. शेख खुदा का घर देखें हम तो खुदा की शान. यानी इंग्लैंड की चकाचौंध देखेंगे.
भारत में मुसलमानों की राजनीति पर लिखी गई किताब
सैयद अहमद ख़ान ब्रिटेन की संस्कृति से कितना प्रभावित थे इसे समझने के लिए आज आपको भारत में मुसलमानों की राजनीति पर लिखी गई एक मशहूर पुस्तक के बारे में बताना चाहते हैं. इस किताब का नाम है- खिलाफत आंदोलन और इसके लेखक हैं, काज़ी मोहम्मद अदील अब्बासी जो खुद एक स्वतंत्रता सेनानी थे और कई अखबारों के संपादक भी थे. इस पुस्तक के पेज नंबर पर 26 पर लिखा है कि सर सैयद अहमद ख़ान कैसे देश की आजादी को लंबे समय तक टालना चाहते थे. ताकि अंग्रेज़ों के शासन में मुसलमान आगे बढ़ सकें.
सांप्रदियकता के बीजों ने बंटवारे का वृक्ष बनना शुरू कर दिया
कांग्रेस की स्थापना से पहले तक सैयद अहमद ख़ान देश की आजादी के पक्ष में थे, लेकिन कांग्रेस की स्थापना होते ही उन्हें लगा कि ये हिंदुओं की पार्टी है और अगर इस पार्टी की सरकार आई तो मुसलमानों को हिंदुओं से दबकर रहना होगा. इसलिए उन्होंने Two Nation Theory का सिद्धांत दिया और यहीं से भारत में बोए गए सांप्रदियकता के बीजों ने बंटवारे का वृक्ष बनना शुरू कर दिया.
भारत के संदर्भ मं देखा जाए तो सांप्रदायिकता के तीन वैचारिक लक्षण होते हैं. पहला ये मानना कि हिंदू और मुसलमान दोनों अलग अलग हैं. दूसरा ये कि दोनों समुदाय एक साथ नहीं रह सकते और तीसरा ये कि दोनों समुदायों की संस्कृति, तौर तरीके और रहन सहन अलग अलग है. सर सैयद अहमद ख़ान में ये तीनों वैचारिक लक्षण थे.
और इन्हीं लक्षणों से ग्रस्त होने की वजह से उन्हें लगता था कि अगर भारत आजाद हो गया तो अल्प संख्यक मुसलमानों को बहुसंख्यक हिंदुओं के नियंत्रण में रहना होगा. इसलिए उन्होंने पहले मुसलमानों को शिक्षित करने के लिए AMU की स्थापना की और फिर समय के साथ साथ दो राष्ट्र के सिद्धांत को मज़बूत किया.
देश के अलग अलग धार्मिक समुदायों को हमेशा बांटकर रखने का विचार कैसे आज भी देश की बहुत सारी समस्याओं की जड़ में है. इसे आप एक उदाहरण से समझिए.
1932 में अंग्रेजों ने पुरस्कार गैंग को सबसे बड़ा पुरुस्कार दिया जिसे इतिहास में Communal Award के नाम से जाना जाता है जो मुसलमानों के लिए तो अच्छा था पर देश के धार्मिक विभाजन और नफरत के विकास में बहुत घातक साबित हुआ. इस Communal Award के नाम पर मुसलमानों को नौकरियों में अलग पहचान दी जाती थी.
ज्यादा से ज्यादा मुसलमानों को सरकारी पदों पर देखना चाहते थे सैयद अहमद ख़ान
अंग्रेज़ों के शासन में सरकारी नौकरियां भी किसी पुरस्कार से कम नहीं हुआ करती थी और सर सैयद अहमद ख़ान ज्यादा से ज्यादा मुसलमानों को सरकारी पदों पर देखना चाहते थे. ये दौड़ दूसरे समुदायों के बीच भी बहुत तेज़ हो चुकी थी और इसका नतीजा ये हुआ कि वर्ष 1951 तक भारत में प्राइवेट नौकरियां करने वालों की संख्या 12 लाख थी और सरकारी नौकरियां करने वालों की संख्या 33 लाख से ज्यादा हो चुकी थी. जबकि आज देश में सवा दो करोड़ लोग सरकारी नौकरी करते हैं और 43 करोड़ लोग प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करते हैं.
कुल मिलाकर अब भारत बदल रहा है और हमें इस बदलाव को बाधित नहीं होने देना है. भारत के अल्पसंख्यक भारत की ताकत हैं और हमें इसे पहचानने की जरूरत है. भारत में 20 करोड़ मुसलमान हैं. पूरी दुनिया में इंडोनेशिया के बाद भारत में मुसलमानों की आबादी सबसे ज्यादा है और ये 20 करोड़ लोग भारत की Soft Power हैं, लेकिन भारत अपनी इस Sot Power को ठीक से पहचानने में ज्यादा सफल नहीं रहा है. भारत में इतनी बड़ी संख्या में मुसलमानों के होने के बाद होना तो ये चाहिए था कि इस्लामिक देशों के बीच भारत का कद मजबूत होता और भारत इन देशों के बीच अपनी बात मजबूती से रख पाता, लेकिन इसके बावजूद भारत इन देशों के बीच हमेशा बैकफुट पर रहता है. जहां हमें Stake Holder होना चाहिए वहां हम सिर्फ आरोपों का जवाब देते रहते हैं. Organization Of Islamic Coopration जैसे संगठनों में भारत के खिलाफ प्रस्ताव लाया जाता है और कहा जाता है कि भारत ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर देश के मुसलमानों का ख्याल नहीं रखा है.
देश के अल्पसंख्यक अपनी Soft Power को पहचानें
जबकि सच ये है कि जम्मू कश्मीर में सिर्फ 85 लाख 67 हज़ार मुसलमान रहते हैं जबकि देश के बाकी हिस्सों में रहने वाले मुसलमानों की संख्या 19 करोड़ से ज्यादा है और ज्यादातर मुसलमान बाकी भारतीयों की तरह खुशी खुशी रहते हैं. लेकिन बहुत चालाकी से कश्मीर को भारत के सभी मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है. जम्मू-कश्मीर के 85 लाख मुसलमानों के नाम पर 19 करोड़ मुसलमानों को भड़काया जाता है. ये भारत को बदनाम करने की साजिश है. इसलिए देश के अल्पसंख्यकों को चाहिए कि वो अपनी Soft Power को पहचानें और देश को बांटने वाली शक्तियों को परास्त करें.