आप इसे चीन की लापरवाही कहिए या फिर साजिश लेकिन सच ये है कि एक देश की वजह से आज पूरी दुनिया जीवन और मृत्यु के एक ऐसे चक्र में फंस गई है जिससे बाहर निकलने की कोई सूरत फिलहाल दिखाई नहीं दे रही लेकिन इसके लिए चीन को क्या सज़ा दी जानी चाहिए? पूरी दुनिया इस समय सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रही है लेकिन क्या चीन को सबक सिखाने के लिए दुनिया को उसके साथ ECONOMIC DISTANCING करनी चाहिए ? यानी क्या दुनिया को चीन का आर्थिक बहिष्कार करना चाहिए?


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दुनिया के दो देशों ने इस पर काम शुरू कर दिया है. जापान और अमेरिका अब चीन को उसके कर्मों की सज़ा देने की कोशिश कर रहे हैं . इस हफ्ते मंगलवार को जापान ने एक बहुत बड़े आर्थिक पैकेज का ऐलान किया है. ये आर्थिक पैकेज 75 लाख करोड़ रुपये का है. ये जापान की कुल जीडीपी का 20 प्रतिशत है. आगे बढ़ने से पहले आप इस विषय पर जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे का ये बयान सनिए: 


कहा जा रहा है कि शिंजो आबे ने इतने बड़े पैकेज का ऐलान करके जापान को संदेश देने की कोशिश की है क्योंकि इस राहत पैकेज के जरिए जापान अपनी बड़ी बड़ी कंपनियो और फैक्ट्रियों को चीन से वापस बुलाना चाहता है. जापान की जो कंपनियां ऐसा करेंगी उन्हें सरकार इस राहत पैकेज के तहत आर्थिक मदद देगी जो कंपनियां जापान वापस आएंगी उनके लिए 15 हज़ार करोड़ रुपये और जो कंपनियां चीन के छोड़कर किसी और देश में जाएंगी उनके लिए 1600 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है. जापान ने अपनी कंपनियों को साफ साफ दिया है कि वो चीन को छोड़कर किसी भी देश में जाने के लिए स्वतंत्र हैं.


चीन से अमेरिकी कंपनियों का पलायन भी शुरू हो गया है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट पॉलिसी की वजह से कई कंपनियां अब चीन छोड़ने पर मजबूर हैं . चीन और अमेरिका के बीच ट्रेड वार यानी व्यापार युद्ध भी चल रहा है और यही वजह है कि पिछले वर्ष अमेरिका की करीब 50 कंपनियों ने पिछले साल ही चीन को गुड बाय कह दिया था और इस साल चीन छोड़ने वाली अमेरिकी कंपनियों की संख्या तेज़ी से बढ़ सकती हैं. कंसल्टिंग फर्म KEARNEY के मुताबिक चीन के प्रति अब दुनिया भर की कंपनियों का रवैया बदलने लगा है .


अब ये कंपनियां चाहती हैं कि वो दुनिया के अलग अलग देशों में कारोबार करे और अपनी फैक्ट्रियां लगाएं ताकि चीन पर निर्भरता को कम किया जा सके. दरअसल, चीन पिछले कई दशकों से दुनिया की फैक्ट्री बना हुआ , आपके जीवन से जुड़ी कई छोटी बड़ी चीज़ें भी चीन से ही बनकर आती है . लेकिन कोरोना वायरस की वजह से जब चीन में उत्पादन ठप हुआ तो पूरी दुनिया को ये समझ आ गया है कि चीन पर निर्भर रहने का अर्थ है अपनी ज़रूरतों से समझौता करना. दुनिया के करीब 400 करोड़ लोग इस समय लॉकडाउन में हैं और अगर कंपनियां चीन से माल खरीद ही नहीं पाएंगी तो इन 400 करोड़ लोगों तक जरूरत का सामान पहुंचेगा कैसे?


इसलिए दुनिया के तमाम बड़े बड़े देश अब चीन पर अपनी निर्भरता कम या फिर पूरी तरह खत्म करना चाहते हैं और इसकी शुरुआत जापान और अमेरिका ने कर दी है लेकिन सवाल ये है कि अगर बड़ी बड़ी कंपनियां चीन छोड़ देती हैं तो इससे दुनिया के किन देशों को फायदा होगा ? और चीन के मुकाबले कौन से देश नया विकल्प बन सकते हैं.


दुनिया में फिलहाल 5 ऐसे देश हैं जो चीन की जगह ले सकते हैं. इसमें पहला नाम भारत का है. भारत चीन के पैमाने पर ही लेबर फोर्स मुहैया करा सकता है क्योंकि आबादी के मामले में भारत चीन के बाद दूसरे नंबर पर है और चीन की ही तरह भारत में भी श्रम लागर बहुत कम है. दूसरे नंबर पर वियतनाम है जो कोरोना वायरस के संकट से पहले भी अमेरिका को करीब 5 हज़ार तरह के उत्पाद बेच रहा था. इसके अलावा थाइलैंड, मलेशिया और इंडोनेशिया को भी इससे काफी फायदा हो सकता है, क्योंकि इन देशों की आबादी भी अच्छी खासी है और इन देशों में भी श्रम लागत काफी कम है और इन पांचों देशों के पास सस्ते दामों पर कच्चा माल भी उपलब्ध है.


फिलहाल चीन दुनिया की फैक्ट्री है. आपके मोबाइल फोन से लेकर दीवाली पर लगाई जाने वाली लाइटें तक चीन में ही बनती है . चीन बड़ी सैन्य शक्ति ही नहीं बल्कि एक बड़ी आर्थिक शक्ति भी है इसलिए किसी भी बड़े देश की कंपनियों के लिए चीन छोड़ने का फैसला आसान नहीं है लेकिन यहां आपको ये भी समझना चाहिए कि चीन ने पिछले कुछ वर्षों में खुद को इतना सक्षम बनाया कैसे ? और उसकी उपलब्धियां क्या हैं.


चीन 70 वर्षों में 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को गरीबी से बाहर निकालने में सक्षम रहा है. चीन का लक्ष्य इस वर्ष के अंत तक अपने देश से गरीबी को पूरी तरह खत्म करना है. पिछले 70 वर्षों में हर 8 साल के दौरान चीन की अर्थव्यस्था का आकार दोगुना होता रहा है .


वर्ष 2050 तक चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिकी से दोगुनी हो जाएगी, हालांकि कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन ये चमत्कार 2030 से पहले भी कर सकता है. हालांकि, चीन को अभी भी एक विकासशील देश माना जाता है. लेकिन ऐसा इतिहास में पहली बार हो रहा है जब कोई विकासशील देश दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाला है.


ये भी सच है कि चीन ने आर्थिक तरक्की का सफर 70 वर्ष पहले नहीं बल्कि सिर्फ 42 साल पहले शुरू किया था. 1978 में चीन में डेंग ज़ाओपिंग सत्ता में आए और उन्होंने उदारीकरण की शुरुआत की, यानी चीन ने दुनिया के लिए अपने दरवाज़े भारत से 13 वर्ष पहले खोल लिए थे. भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर 1991 में शुरु हुआ था.


1978 में चीन की अर्थव्यवस्था सिर्फ 150 बिलियन डॉलर्स यानी आज के हिसाब से 10 लाख करोड़ रुपये थी . चीन की अर्थव्यवस्था 1997 में बढ़कर 1 ट्रिलियन डॉलर्स यानी 73 लाख करोड़ रुपये हो गई . और आज चीन की अर्थव्यवस्था भारत से कई गुना ज्यादा बड़ी है जिसका आकार करीब 14 ट्रिलियन डॉलर्स का है. ये 1100 लाख करोड़ रुपये के बराबर है . ये भारत की अर्थव्यवस्था से करीब 5 गुना ज्यादा है.


वर्ष 1980 में चीन विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का सदस्य बना और चीन में चार स्पेशल इकोनोमिक जोन बनाए गए. दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां चीन आने लगीं, क्योंकि चीन में श्रम लागत बहुत कम है. इसलिए चीन कुछ ही वर्षों में दुनिया की फैक्टरी बन गया. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे बड़े नेताओं में से एक Deng Xiaoping (डेंग ज़ाओपिंग) ने एक बार कहा था कि समाजवाद का मतलब गरीबी नहीं है, अमरी होना भी यशस्वी होने के बराबर है.


आज चीन सिर्फ आर्थिक तौर पर ही नहीं बल्कि सैन्य और कूटनीतिक तौर पर भी दुनिया के शक्तिशाली देशों में शामिल है जो काम डेंग जाओपिंग ने शुरू किया था उसे आज चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग आगे बढ़ा रहे हैं लेकिन शी ये काम कैसे कर रहे हैं और कैसे उनके इस उद्देश्य में चीन की संस्कृति उनकी मदद कर रही है ये आपको समझना चाहिए. आधुनिक इतिहास में ऐसा पहली बार है, जब दुनिया की किसी सुपर पावर का संबध पश्चिम से नहीं पूर्व से है. आज हम आपको चीन के आर्थिक विकास में छिपे खतरों के बारे में भी बताएंगे लेकिन पहले आपको ये समझना चाहिए कि चीन ने 40 वर्षों में ये चमत्कार आखिर किया कैसे?


1978 तक चीन में महानदार्शनिक Confucius मूल्यों को बहुत महत्व दिया जाता था. इन मूल्यों में मानवता, ज्ञान, एकजुटता, वफादारी, और सही आचरण जैसी बातें शामिल थी . लेकिन चीन की कम्युनिस्ट सरकारों ने धीरे-धीरे इन मूल्यों को आधुनिकता के साथ जोड़ने का काम शुरु किया और इस विकास यात्रा में कुछ मूल्यों को सिरे से भूला भी दिया गया .


एतिहासिक तौर चीन में हमेशा से शासन करने वालों को बहुत सम्मान दिया जाता रहा है. चीन की संस्कृति के मुताबिक वहां शासक को एक संरक्षक माना जाता है. यानी चीन के पारिवारिक मूल्यों में भी सत्ता का प्रभाव अक्सर दिखाई देता है. विशेषज्ञों का कहना है कि चीन में सरकार और समाज को एक ही यूनिट माना जाता है.


इसलिए वहां की सरकार जब सख्त नियम लागू करती है, तो ज्यादातर लोग इनका विरोध नहीं करते, बल्कि ये मान लेते हैं कि ये नियम घर के किसी बड़े ने उनको लाभ पहुंचाने के लिए तय किए हैं. यानी चीन में सत्ता को बहुत शक्तिशाली माना जाता है और उसके खिलाफ जाने की हिम्मत कोई नहीं करता. कोरोना वायरस के दौर में राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा लिए गए फैसले भी इसी अनुशासन का उदाहरण है. शी ने खुद को चीन की सत्ता का केंद्र बना लिया है और वो आने वाले कई वर्षों तक चीन के लोगों के इस अनुशासन के दम पर राष्ट्रपति बने रहना चाहते हैं .


अब आपको चीन की कमज़ोरियों को भी समझना चाहिए. चीन की सबसे बड़ी कमज़ोरी है वहां विपक्ष और लोकतंत्र का अभाव. ये चीन की विकास यात्रा का वो पहलू है जिससे भारत ने हमेशा बचने की कोशिश की है. भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, और एक लोकतंत्र की विशेषता ये होती है कि वहां सब की बात सुनी जाती है. विपक्ष को भी अहमियत दी जाती है. लोगों की राय का सम्मान किया जाता है. विरोध प्रदर्शन को दबाया नहीं जाता, बल्कि इसे लोकतंत्र की ताकत माना जाता है. हालांकि इसकी वजह से कई बार विकास की रफ्तार धीमी हो जाती है . लक्ष्य वक्त पर हासिल नहीं हो पाते . इसलिए कुछ लोग इसे डेमोक्रेसी टैक्स भी कहते हैं. चीन में अमीर और गरीबों के बीच की खाई पहले से भी बड़ी हो गई है. चीन के ग्रामीण इलाकों में ये असमानता बहुत ज्यादा है और चीन की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज भी कम कुशल है . यानी इनकी काम करने कुशलता बहुत कम है. हालांकि चीन को कभी एशिया के सबसे गरीब और दरिद्र देशों में शामिल किया जाता था, लेकिन आज चीन दुनिया की महाशक्ति बन गया है.


अब यहां आपको चीन से जुड़ा एक एतिहासिक पहलू बताते हैं . चीन में सरकार और शक्तिशाली लोगों के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को सज़ा देने का इतिहास रहा है और जो लोग महामारियों से जुड़ा सच बताते हैं उन्हें भी कई बार मौत के घाट उतार दिया जाता है.


उदाहरण के लिए चीन के जिस डॉक्टर Li Wenliang (ली वेनलियांग) ने सबसे पहले कोरोना वायरस के खतरे से आगाह किया था उन्हें चीन की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और बाद में उनकी कोरोना वायरस से ही मौत हो गई. 2002 में SARS Virus के बारे में बताने वाले सर्जन को भी 45 दिनों के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था. 


2008 में चीन में एक व्यक्ति ने दूध कंपनियों के भ्रष्टाचार को उजागर किया था. ये कंपनियां दूध में खतरनाक केमिकल की मिलावट कर रही थी जिसकी वजह से 54 हज़ार बच्चों को अस्पताल में भर्ति कराना पड़ा था लेकिन ये खुलासा करने वाले Whistel Blower की भी चाकुओं से गोद कर हत्या कर दी गई .


लेकिन चीन में सच कहने वालों को सज़ा देने का इतिहास बहुत पुराना है . ढाई हज़ार साल पहले महान दार्शनिक Confucius के एक शिष्य Zhong You ने जब भ्रष्टाचार के मामले को उजागर किया तो उसकी


भी निर्मम तरीके से हत्या कर दी गई थी . कहा जाता है कि Zhong You के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए थे और कहा जाता है कि इसके बाद Confucius ने जीवन में फिर कभी मांस को हाथ नहीं लगाया. यानी Confucius से लेकर Communism तक चीन का इतिहास तो बदलता रहा लेकिन उसकी जन विरोधी प्रथाएं नहीं बदलीं.