नई दिल्ली: रिपब्लिक टीवी (Republic TV) के एडिटर इन चीफ अर्नब गोस्वामी को महाराष्ट्र की रायगढ़ पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. अर्नब गोस्वामी (Arnab Goswami) पिछले काफी समय से खबरों में थे. कभी सुशांत सिंह के मामले को लेकर, कभी TRP घोटाले की वजह से, कभी मुंबई के पुलिस कमिश्नर के साथ विवाद को लेकर, तो कभी शिवसेना और कांग्रेस के खिलाफ मुखर होने को लेकर लेकिन तब हमने इस बारे में कुछ नहीं कहा, क्योंकि ये उनकी अपनी पत्रकारिता थी और बहुत इमानदारी से कहें तो हमें पूरे तथ्यों की जानकारी भी नहीं थी, इसलिए हम चुप रहे, हमने थोड़ा समय लगाया. बहुत से लोगों ने हमसे पूछा कि हम चुप क्यों हैं? लेकिन हम चुप इसलिए रहे क्योंकि सत्य समय लेता है.


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आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप
फ्रांस के मशहूर लेखक वॉल्टेयर ने एक बार कहा था कि तुम जो बोलते हो, मैं उससे असहमत हो सकता हूं लेकिन तुम्हारे बोलने के अधिकार की रक्षा मैं मरते दम तक करूंगा. ये वो शब्द हैं जो आज पत्रकारों का मार्गदर्शन कर सकते हैं. अर्नब जो कहते हैं, हो सकता है उससे हम सहमत न हों. लेकिन हम उनकी अभिव्यक्ति का अधिकार दिलाकर रहेंगे और हम इसके लिए लगातार लड़ते रहेंगे.


उनकी इस गिरफ्तारी के केंद्र में सुशांत सिंह राजपूत की मौत या TRP घोटाला नहीं है और इसका उनकी पत्रकारिता से भी कोई संबंध नहीं है, बल्कि उन्हें दो वर्ष पुराने एक केस में गिरफ्तार किया गया है. उन पर अनवय नायक नाम के एक व्यक्ति और उनकी मां को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप है.


क्या है पूरा मामला
आरोपों के मुताबिक अर्नब गोस्वामी को इस व्यक्ति के कुछ पैसे लौटाने थे. लेकिन उन्होंने ये पैसे नहीं लौटाए जिसके बाद इस व्यक्ति ने सुसाइड नोट में अर्नब गोस्वामी का नाम लिखा और आत्महत्या कर ली. लेकिन इस मामले से जुड़ी एक बड़ी बात ये है कि पिछले साल जांच के बाद रायगढ़ पुलिस ने ये केस बंद कर दिया था और तब अर्नब गोस्वामी की न तो गिरफ्तारी हुई थी और न ही उनसे पूछताछ हुई थी. लेकिन अब आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की बेटी ने अर्नब गोस्वामी के खिलाफ फिर से शिकायत की और आज सुबह अर्नब गोस्वामी को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया.


महाराष्ट्र की अलीबाग पुलिस ने 5 मई 2018 को इस मामले में अर्नब गोस्वामी के खिलाफ एक FIR दर्ज की थी. 26 अप्रैल 2019 को अलीबाग पुलिस ने इस मामले में एक समरी रिपोर्ट कोर्ट में दाखिल की थी और एक तरह से यहां पर ये केस बंद हो गया था.


जुलाई 2020 में नायक परिवार ने इस केस को री ओपन करने को लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट में एक अपील दायर की.


पिछले महीने 12 अक्टूबर को नायक परिवार अलीबाग पुलिस से मिला और इसकी आगे जांच की मांग की और ठीक तीन दिन बाद यानी 15 अक्टूबर 2020 को अलीबाग पुलिस की सीआईडी यूनिट ने अदालत को बताया कि वो इस केस को दोबारा खोलकर इसकी जांच शुरू कर रहे हैं.


गिरफ्तारी पर कुछ सवाल
अब अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर कुछ सवाल भी उठ रहे हैं. पहला सवाल ये है कि जिस पुलिस ने तकरीबन एक साल की जांच के बाद मामले में ये कहकर क्लोजर रिपोर्ट फाइल कर दी थी कि उनके पास आरोपियों के खिलाफ सबूतों का अभाव है. उसी पुलिस को आज अचानक अर्नब गोस्वामी और दो अन्य आरोपियों के खिलाफ कौन से नए सबूत मिल गए?


दूसरा सवाल ये है कि पुलिस कस्टडी में किसी आरोपी से पूछताछ कुछ खास परिस्थितियों में ही की जाती है. जैसे कि अगर किसी आरोपी के देश छोड़कर भाग जाने की आशंका हो या वो सबूतों को मिटाने की कोशिश करे या गवाहों को प्रभावित करे.


लेकिन दो साल पुराने इस मामले में अब तक ऐसी कोई भी वजह पुख्ता तौर पर नजर नहीं आई थी फिर आज अचानक पुलिस को उन्हें गिरफ्तार कर पूछताछ करने की जरूरत क्यों पड़ी?


तीसरी बात ये है कि ऐसे में आरोपी को पूछताछ के लिए नोटिस भेजकर पुलिस स्टेशन बुलाया जा सकता था और बयान दर्ज करने के बाद जांच आगे बढ़ाई जा सकती थी लेकिन बजाय इसके पुलिस ने कोई नोटिस दिए बिना अचानक अर्णब गोस्वामी के घर पहुंचकर उन्हें सीधे गिरफ्तार कर लिया.


और चौथा सवाल ये है कि इस कार्रवाई के दौरान आरोपी को अपने वकीलों से भी बात करने का मौका नहीं दिया गया.


पत्रकार खुद खबर बन गए
हाल में जिस तरह की खबरें आईं उसे लेकर हम समय लेना चाहते थे क्योंकि हमने बचपन से ये कहावत सुनी थी कि Slow And Steady Wins The Race. यानी जो आराम से और स्थिरता के साथ काम करता है वही अंत में रेस को जीतता है. लेकिन न्यूज़ चैनल इसका उलट कर रहे थे और सबके बीच ये होड़ लगी थी कि कौन पत्रकारिता को ताक पर रखकर सबसे आगे निकल सकता है. पर जब अर्नब की गिरफ्तारी हुई तो हमें लगा कि इस पर बात करने का समय आ गया है क्योंकि इस गिरफ्तारी के दूरगामी परिणाम होंगे.


हमारे देश में लोग पत्रकार इसलिए बनते थे, क्योंकि हम आपके लिए, समाज के लिए कुछ करना चाहते थे, आपके प्रतिनिधि बनकर दुनिया की हर ऐसी जगह पर खड़े होना चाहते थे. जहां कोई इतिहास बन रहा होता है. हम आपको बताना चाहते थे कि सही क्या है और गलत क्या है. जब हम पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे थे तब हमें ये बताया गया था कि एक पत्रकार को कभी चुप नहीं बैठना चाहिए. यही पत्रकार का सबसे बड़ा गुण होता है लेकिन यही पत्रकार की सबसे बड़ी गलती भी होती है, फिर भी एक पत्रकार को बोलना चाहिए और जितना जल्दी हो सके, उतना जल्दी बोलना चाहिए.


चाहे माहौल किसी की जीत के जश्न का हो या माहौल डर का हो, पत्रकार को हर हाल में बोलना चाहिए और इसका मकसद सिर्फ और सिर्फ ये होना चाहिए कि आप तक सच्ची खबर पहुंचाई जा सके. लेकिन हमने ये नहीं सोचा था कि एक दिन पत्रकार खुद खबर बन जाएंगे. हम खुद खबर बन जाएंगे. लेकिन आज स्थिति ये है कि मीडिया, पत्रकार, रिपोर्टर सब खुद खबर बन गए हैं. ऐसा हमने कभी नहीं सोचा था, हम ये सोचकर पत्रकारिता में नहीं आए थे एक दिन हम अपने बारे में ही आपको रिपोर्ट कर रहे होंगे. लेकिन आज वो नौबत आ गई है और हम खुद खबर बन गए हैं.


झूठ बैलिस्टिक मिसाइल से भी तेज गति से उड़ने लगा
जब हम पत्रकारिता में आए तो हमें इस पेशे में लाने वाली ऊर्जा सच कहने की आदत थी. हम हमेशा से ये सुनते आए थे कि सत्य परेशान हो सकता है..लेकिन पराजित नहीं हो सकता. लेकिन अब समय बदल गया है. अब सत्य परेशान भी होता है और पराजित भी. झूठ में बूस्टर इंजन लग गया है और सच लगभग गतिहीन हो गया है. झूठ ध्वनि की गति से उड़ने वाली बैलिस्टिक मिसाइल से भी तेज गति से उड़ने लगा है. ऐसी एक मिसाइल को सात किलोमीटर की दूरी तय करने में 1 सेकेंड का समय लगता है. लेकिन सोशल मीडिया पर एक बटन दबाकर आधे सेकेंड में झूठ को दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाया जाता है. ये झूठ इतनी तीव्र गति से सफर करता है कि अब सत्य का रडार भी इसे पकड़ नहीं पाता. मिसाइल से तेज उड़ने वाला झूठ जबरदस्त नुकसान करता है और किसी समाज या देश को एक झटके में नष्ट करने की शक्ति रखता है जबकि सत्य कीचड़ में खिले एक कमल की तरह हो गया है जो खुद उसी कीचड़ में फंसा रहता है. आज सत्य गतिहीन, परेशान और पराजित हो चुका है.


सच का रास्ता ​हर दिन मुश्किल होता जा रहा है
आज जो अर्णब गोस्वामी के साथ हुआ है वो मेरे (ज़ी न्यूज़ के एडिटर -इन- चीफ सुधीर चौधरी) के साथ 8 साल पहले हो चुका है और आज भी हो रहा है.जब मेरे साथ ऐसा हुआ था, तब सोशल मीडिया नहीं था और हमारे देश की मीडिया ने भी इस पर कोई शोर नहीं मचाया था. हम भी किसी के पास मदद मांगने नहीं गए, हमने किसी के सामने हाथ नहीं फैलाए. हम चुपचाप अपने रास्ते पर चलते रहे लेकिन ये रास्ता हर दिन मुश्किल होता जा रहा है.


मेरे खिलाफ इस समय देश के कई हिस्सों में केस दर्ज हैं. जम्मू में जमीन जेहाद की खबर दिखाए जाने पर मेरे खिलाफ केरल में गैर जमानती धाराओं में FIR दर्ज गई, पश्चिम बंगाल में धुलागढ़ दंगों की खबर दिखाने पर केस दर्ज किए गए.


शार्ली हैब्दो का कार्टून दिखाने पर हैदराबाद में केस चल रहा है, इस मामले पर दिल्ली में भी एक केस दर्ज है. निर्भया के दोस्त का इंटरव्यू करने पर एक केस दिल्ली में चल रहा है. DNA के एक एपिसोड मे महार्षि वाल्मीकि का नाम लेने पर एक केस मेरे खिलाफ पंजाब में चल रहा है.


सांसद महुआ मोइत्रा का भाषण दिखाने पर दिल्ली में मानहानि का एक केस मुझ पर दर्ज है. 2012 में एक बड़े कॉरपोरेट हाउस के खिलाफ खबर दिखाने पर भी मेरे खिलाफ केस किया गया था और अब तो बॉलीवुड के खिलाफ बात कहने पर भी मेरे खिलाफ केस कर दिया गया है.


सच पराजित होने लगता है तो हमें भी निराशा होती है
एक केस को लड़ने के लिए पुलिस स्टेशन जाना पड़ता है, कोर्ट जाना पड़ता है, वकील रखने पड़ते हैं और ये सब आपकी सारी ऊर्जा को खींच लेता है. इस पर पैसा खर्च होता है, परिवार चिंता में चला जाता है. लेकिन ये सब हम किस लिए करते हैं? इसलिए करते हैं ताकि आप तक सच पहुंचा सकें लेकिन जब सच पराजित होने लगता है तो हमें भी निराशा होती है, कुछ समय के लिए हमारी भी हिम्मत टूटने लगती है.


हम सिर्फ फरमाइशी खबरें पेश करें?
बहुत सारे लोग चाहते हैं कि हम खबर न दिखाएं खबरों के नाम पर सिर्फ विज्ञापन दिखाएं. यानी एक तरह से हम सिर्फ फरमाइशी खबरें पेश करें. लेकिन कहते हैं कि असली खबर वही होती है, जिसे कोई न कोई दबाने की कोशिश करता है, बाकि सब विज्ञापन है.


हमने इसे ही अपना ध्येय वाक्य माना लेकिन इसके बदले में हमें क्या मिला? इसके बदले में देश के लगभग हर कोने में हमारे खिलाफ मामले दर्ज किए गए, हमें अदालतों में घसीटा गया और कोशिश की गई कि हमारा सारा समय अपनी पैरवी करने में ही गुजर जाए और हमें पत्रकारिता करने की फुरसत ही न मिलें. अगर हमारे खिलाफ केस नहीं होता है तो कॉर्पोरेट्स को चिट्ठियां लिखकर कहा जाता है कि हमारी आर्थिक सप्लाई लाइन काट दी जाए ताकि हमारे चैनल बंद हो जाएं और हमारे पत्रकार बेरोजगार हो जाएं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि जिन पत्रकारों से उनकी रोजी रोटी छीनने की कोशिश की जाती है, उनकी कमाई एक पब्लिक रिलेशन एजेंट से भी कम होती है.


पब्लिक रिलेशन एजेंट से भी कम होती है पत्रकार की सैलरी
एक रिसर्च के मुताबिक वर्ष 2004 में अमेरिका में एक पीआर एजेंट की औसत मासिक कमाई ढाई लाख रुपये थी, जबकि एक पत्रकार सिर्फ दो लाख रुपये महीना कमाया करता था. 2013 में एक पीआर एजेंट की औसत कमाई बढ़कर साढ़े तीन लाख रुपये प्रति महीना हो गई जबकि इस दौरान एक पत्रकार की औसत कमाई में सिर्फ 22 हजार रुपये की वृद्धि हुई.


ये हाल तो अमेरिका के पत्रकारों का है. सोचिए भारत के पत्रकारों का क्या हाल होता होगा. ऐसे में न जाने कितने पत्रकारों को लगता होगा कि जब साज सज्जा वाला झूठ इतने पैसे कमा कर देता है तो पत्रकारिता छोड़कर क्यों न PR में चले जाएं.


PR करना आसान है लेकिन सत्य कहना आसान नहीं है. जिस समाज में लोग सत्य बोलना बंद कर देते हैं, उस समाज का पतन होने लगता है और अंत में उस समाज में कोई भी सच बोलने वाला वहीं बचता.


मार्टिन निमोलर जर्मन कवि थे उन्हें जर्मनी में नाजी शासन का विरोध करने के लिए जाना जाता था. उन्होंने इस संदर्भ में एक बहुत शानदार कविता लिखी थी. जिसका शीर्षक है, First they came.



आज हमने इस कविता का हिंदी अनुवाद किया है जिसमें वो कहते हैं-


पहले वे आए कम्युनिस्टों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था.
फिर वे आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था.


फिर वे आए यहूदियों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था.
फिर वे मेरे लिए आए
और तब तक कोई नहीं बचा था
जो मेरे लिए बोलता.


खबर नहीं होती वो विज्ञापन होता है...
पीआर एजेंट किसी कंटेंट को सजावट के साथ लोगों तक पहुंचाते हैं और अक्सर उसमें विज्ञापन से मिले पैसे का बूस्टर लगा होता है. लेकिन खबर वो है जो किसी को चुभे, किसी को परेशान करे और सत्य अक्सर लोगों को परेशान करता है. जिस खबर से कोई परेशान नहीं होता, जिसे कोई दबाना न चाहे और जिस खबर का मकसद सिर्फ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचना हो, वो खबर नहीं होती वो विज्ञापन होता है.


आज हम एक ऐसे दोराहे पर खड़े हैं जहां हमें ये तय करना है कि हमें आपको खुश करने वाला विज्ञापन दिखाना है या फिर किसी को चुभने वाला सच दिखाना है. हम सत्य दिखाएंगे तो हमारे खिलाफ FIR हो जाएगी, हमारा सर्विलांस शुरू हो जाएगा, हमें धमकियां मिलेंगी, हमारा परिवार बाहर नहीं निकल पाएगा, हमें ट्रोल किया जाएगा जबकि हम अगर विज्ञापन दिखाएंगे तो सब खुश रहेंगे. लेकिन ये आपके साथ बेईमानी होगी और जो पत्रकार इस बेईमानी से इनकार कर देंगे. उन्हें लोकतंत्र के मीडिया वाले चौथे स्तंभ में जिंदा चुनवा दिया जाएगा.


ये चौथा स्तंभ हमारे देश के लोकतंत्र की मजबूती के लिए बहुत जरूरी है. लेकिन इसकी नींव को कमजोर करके इसमें पैसा भरा जा रहा है. सत्ता द्वारा दिए गए पुरस्कार भरे जा रहे हैं और इस खंभे को हर पल तोड़ने की कोशिश हो रही है. जो पत्रकार इसके लिए तैयार नहीं हैं, उनके रास्ते में मुश्किलें खड़ी की जा रही हैं. हमारे देश में वैसे भी सच बोलने वाले पत्रकार लगभग विलुप्त हो चुके हैं. लेकिन जो बचे हैं उन्हें सबक सिखाने की धमकियां दी जाती हैं.


थोड़े दिनों में पत्रकारिता सबसे खतरनाक पेशों में आ जाएगी और हो सकता है कि पत्रकारिता पढ़ाने वाले संस्थानों में प्रवेश के समय छात्रों के हाथों में वैधानिक चेतावनी थमा दी जाए जिस पर लिखा होगा कि पत्रकारिता आपके स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए हानिकारक है.


हमारे पास नेताओं वाली कुर्सी नहीं
इसलिए आज सुबह से मैं ये सोच रहा हूं कि क्या पत्रकारिता छोड़ने का समय आ गया है? हमारे पास नेताओं वाली कुर्सी नहीं है जिस पर हम जीवन भर चिपके रहें. जब तक आप हमें देख रहे हैं सुन रहे हैं, हम तभी तक हैं. मैं जब रिटायरमेंट के बारे में सोचता हूं तो मेरे दिमाग में यही आता है कि क्या रिटायरमेंट के बाद मुझे अपना बुढ़ापा अदालतों और थानों के चक्कर काटते हुए बिताना होगा. कभी केरल की अदालत में जाना होगा, कभी आंध्र प्रदेश जाना होगा, कभी जम्मू, कभी पश्चिम बंगाल तो कभी पंजाब की अदालतों के चक्कर काटने होंगे. मेरे परिवार की ट्रोलिंग होती रहेगी, मुझे वीजा नहीं मिलेगा. मुझे अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा का डर सताता रहेगा और जो सच के साथ समझौता कर लेंगे, उन्हें बड़े बड़े पुरस्कार मिलेंगे, मुफ्त विदेश यात्राओं के मौके मिलेंगे, बड़े बड़े अखबारों में स्तंभकार बनने के ऑफर आएंगे, विदेशी यूनिवर्सिटीज में पढ़ाने के मौके मिलेंगे.


लेकिन जो सच दिखाएगा उसकी राह में केस वाले कांटे बिछा दिए जाएंगे. अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक समय ऐसा आ जाएगा जब मां बाप अपने बच्चों से कहेंगे कि बेटा कुछ भी बन जाना लेकिन पत्रकार मत बनना और ये स्थिति अच्छी नहीं होगी क्योंकि, अगर ऐसा हुआ तो लोकतंत्र का पतन हो जाएगा, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को सत्ता के हथौड़ों से कमजोर कर दिया जाएगा और इसके ऊपर फूल पत्तियां और सुंदर-सुंदर बेल लगा दी जाएंगी. आगे चलकर कोई भी राज्य सरकार या केंद्र सरकार ये तय कर देगी कि अगर पत्रकारों ने सत्ता की बेलदारी नहीं की तो उन्हें जीवन भर अदालतों से बेल लेकर घूमना होगा.


हम यहां ये नहीं कह रहे कि अर्नब गोस्वामी ने क्या किया है और क्या नहीं. हम मानते हैं कि इस देश का कोई भी नागरिक, चाहे वो पत्रकार ही क्यों न हो, वो कानून से ऊपर नहीं है. लेकिन हम सिर्फ ये कह रहे हैं कि उनके खिलाफ इस कार्रवाई को जिस तरीके से किया गया वो ठीक नहीं है. इससे पूरी दुनिया को गलत संदेश गया है. ये एक ऐसा अलार्म है जो सबके कानों में बज रहा है. इस अलार्म को सुनकर देश के लोगों और मीडिया को जागना होगा, अगर आप अलार्म बंद करके सो गए तो फिर बहुत देर हो जाएगी.


नेताओं के बाद पत्रकारिता ने भी भरोसा खो दिया है
कहते हैं कि जब सत्ता सत्य पर हावी होने लगे तो इसे बचाने की पहली जिम्मेदारी पत्रकारों की ही होती है. सरकार और मीडिया एक दूसरे के पूरक भी हैं और आलोचक भी हैं. दोनों को एक दूसरे के काम में घुसपैठ नहीं करनी चाहिए बल्कि एक दूसरे पर नजर रखनी चाहिए. लेकिन इसमें किसी को भी लक्ष्मण रेखा नहीं लांघनी चाहिए. लेकिन अब तो किसी तरह की रेखा बची ही नहीं है और लक्ष्मण रेखाएं लांघने की ही परिणाम है कि नेताओं के बाद पत्रकारिता ने भी भरोसा खो दिया है.


हिंदी पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा था 'हम न्याय में राजा और प्रजा दोनों का साथ देंगे, परन्तु अन्याय में दोनों में से किसी का भी नहीं.


लेकिन आज के दौर में अगर पत्रकार इनमें से किसी का भी साथ न दें तो वो निशाने पर आ जाते हैं और फिर उनके द्वारा दिखाया गया सच उनके लिए ही परेशानी की वजह बन जाता है. लेकिन अगर पत्रकार एकतरफा हो जाएं. सत्ता की स्तुति करने लगें तो उनकी राह आसान हो जाती है और ऐसा न करने पर जो होता है वो आप अब तक समझ ही चुके हैं.