नई दिल्‍ली: भारत का संविधान आज 71 वर्ष का हो गया है. लेकिन सोचिए क्या 71 वर्षों की इस लम्बी यात्रा के बाद भी भारत का संविधान व्यवहारिक बन पाया है और अगर नहीं बन पाया तो इसकी क्या वजह है? आज ये समझने का भी दिन है कि एक गणतंत्र के रूप में हमारे देश के नेताओं से कहां और क्या-क्या गलतियां हुईं और भारत के नेता देश का स्वभाव और उसका डीएनए समझ क्यों नहीं पाए?  जब आप ये समझने की कोशिश करेंगे तो आपको पता चलेगा कि आज़ाद भारत को असल में ऐसे नेता मिले थे, जिन्हें आज स्वतंत्रता का लाभार्थी कहा जाए तो गलत नहीं होगा और इसीलिए आज हम अपने इस विश्लेषण की शुरुआत देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के उस भाषण से करना चाहते हैं. जिसमें आज़ाद भारत में हुई गलतियों का सार छिपा है. 


पंडित नेहरू का ऐतिहासिक भाषण


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पंडित नेहरू ने वर्ष 1947 में 14 और 15 अगस्त की रात को संसद में ऐतिहासिक भाषण दिया था, जब देश को अंग्रेजों से आजादी मिली थी. मध्य रात्रि को दिए अपने इस भाषण में उन्होंने जो कहा था, 'When The World Sleeps, India Will Awake to Life and Freedom. इसका अर्थ था, जब दुनिया सो रही होगी, तब भारत आजादी के लिए जाग रहा होगा. अगर इसे Indian Standard Time के हिसाब से देखें तो उस समय कई देशों में सुबह हुई थी और भारत में रात का समय था. असल में दुनिया जाग रही थी और भारत में सोने का समय था और हमें लगता है कि भारत को उस समय अंग्रेजों से आजादी तो मिल गई थी लेकिन सत्ता में बैठे मुट्ठीभर लोगों की वजह से वो नींद से नहीं उठ पाया. 


71 वर्ष पूरे करने के बाद भी भारत का संविधान व्यवहारिक नहीं बन पाया


आज़ादी के 2 साल 5 महीने और 11 दिन बाद 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था और इसी के साथ भारत को नई दिशा में ले जाने के लिए कुछ लक्ष्य भी तय किए गए थे. लेकिन ये लक्ष्य सत्ता का वजन नहीं सह पाए और इसी का नतीजा है कि 71 वर्ष पूरे करने के बाद भी भारत का संविधान व्यावहारिक नहीं बन पाया. आज हमारे देश में 26 जनवरी का महत्व छुट्टी तक सीमित हो गया है और आप कह सकते हैं कि आज भारत, गणतंत्र दिवस पर देशभक्ति के गाने चला कर छुट्टी के मोड में चला जाता है. ये स्थिति क्यों बनी है, क्यों भारत के लोगों में असंतोष बढ़ता चला गया और कैसे हमारे देश के नेता गणतंत्र को सीढ़ी बनाने में कामयाब हुए. ये बताने से पहले हम आपको कहना चाहते हैं कि आप इस विषय पर हमें समर्थन देने के लिए #NehruEkBhool पर ट्वीट कर सकते हैं.


इस विषय पर हम कई दिनों से रिसर्च कर रहे थे और इस रिसर्च का संक्षेप में सार क्या है. वो हम आपको 4 पॉइंट में समझाएंगे. 


डिजाइनर नेताओं को जननायक मानना सबसे बड़ी गलती


पहला ये कि आजादी के समय लुटियंस दिल्ली के डिजाइनर नेताओं को जननायक मान लिया गया और इनमें जवाहरलाल नेहरू भी थे, जो मीडिया मैनेजमेंट जानते थे, जो अंग्रेजी बोलते थे और जो सत्ता के लालच में पूरी तरह डूबे हुए थे. ऐसे नेताओं ने खुद की ब्रांडिंग की और जननायक बनने की अपनी ख्वाहिश को पूरा किया.  यानी 1947 आते-आते आजादी के आंदोलन पर सत्ता का दीमक लग चुका था और इसमें कुछ नेताओं की महत्वाकांक्षाएं भारत के गणतंत्र पर हावी हो गई थीं और हमें लगता है कि डिजाइनर नेताओं को उस समय जननायक मानना सबसे बड़ी भूल थी और आज भारत जिस जगह खड़ा है, उसकी एक बड़ी वजह यही है. 


भारत का स्वभाव और स्वधर्म 


दूसरी बात आज़ादी के बाद जब देश के स्वभाव को समझ कर स्वधर्म तय करने की बारी आई तो हमारे देश के नेता पश्चिमी देशों से प्रभावित हो गए. आप कह सकते हैं कि भारत के नेता उस समय ये भूल गए कि देश और देश के लोगों का क्या स्वभाव है. इन नेताओं ने भारत को उस रूप में ढालना शुरू कर दिया. जो भारत कभी था ही नहीं. पश्चिमी देशों से ये नेता कितने प्रभावित थे. उसकी एक झलक भारत के संविधान में भी नजर आई. 


भारत के संविधान में शासन प्रणाली ब्रिटेन की व्यवस्था से प्रभावित थी. यानी एक प्रधानमंत्री होगा, संसद होगी और कैबिनेट का गठन किया जाएगा. शासन करने की ये व्यवस्था ब्रिटेन से ली गई


इसी तरह राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया आयरलैंड से प्रभावित थी. आयरलैंड में ही राष्ट्रपति के चुनाव की अप्रत्यक्ष व्यवस्था है.  जिसे भारत ने 26 जनवरी 1950 को अपनाया. 


संविधान लिखा होना चाहिए. ये हमने अमेरिका से सीखा और आज दुनियाभर में भारत में सबसे बड़ा लिखित संविधान है. 


सरल शब्दों में कहें तो उधार पर लिए गए सिद्धांतों ने भारत का स्वभाव और स्वधर्म तय करने में बहुत बड़ी गलती कर दी. होना तो ये चाहिए था कि स्वभाव के आधार पर स्वधर्म यानी कर्तव्य तय किया जाता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. संविधान के निर्माता डॉ. बी.आर. अंबेडकर भी ये समझ गए थे और उन्होंने इस पर क्या कहा था, वो मैं आपको पढ़ कर सुनाता हूं. 



डॉक्‍टर अंबेडकर ने कहा था, 'मैं इसलिए संविधान के गुण-दोष पर नहीं जाऊंगा क्योंकि, मैं महसूस करता हूं कि एक संविधान कितना ही अच्छा हो. ये निश्चित रूप से बुरा साबित होता है.'


पश्चिमी देशों के सिद्धांत थोप दिए गए


भगवद्गीता में भी उल्लेख मिलता है कि कर्तव्य, दायित्व और न्याय का पालन ही सबसे बड़ा धर्म है और ये अलग इसलिए है क्योंकि हर व्यक्ति की अपनी एक प्रवृति होती है. क्षमता होती है और विश्वास होता है और इसे ही स्वभाव कहते हैं यानी आजादी के बाद भारत की अपनी एक प्रवृति, क्षमता और विश्वास था. लेकिन इस पर पश्चिमी देशों के सिद्धांत थोप दिए गए और ऐसा करके हमारे देश को वो स्वरूप देने की कोशिश हुई, जो वो कभी था ही नहीं. 


नेहरू देख रहे थे अपना राजनीतिक करियर 


तीसरी बात ये कि महात्मा गांधी चाहते थे कि कांग्रेस को भंग कर दिया जाए और उसको एक लोक सेवक संघ में बदल दिया जाए,  जो समाज की भलाई के लिए काम करे. महात्मा गांधी ने तब ये भी कहा था कि जो लोग राजनीति में बने रहना चाहते हैं. अपना दफ्तर बनाना चाहते हैं और संसद में जाने का ख्वाब देख रहे हैं उन्हें कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी बना लेनी चाहिए. लेकिन गांधीजी जो चाहते थे वो नहीं हुआ और जवाहर लाल नेहरू ने भी उनके इस विचार का सम्मान नहीं किया.  ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि, नेहरू उस समय अपना राजनीतिक करियर देख रहे थे. वो देश और उसकी जरूरतों को नहीं समझ रहे थे. 


देश में संविधान को लेकर क्या सोच है. इसको समझने के लिए हमने आज एक और किताब पढ़ी है. इसका नाम है,  India Since Independence. इसमें लेखक Granville Austin कहते हैं कि संविधान के निर्माण के समय संविधान सभा में ज्यादातर एक ही राजनीतिक दल के लोग शामिल थे और वो राजनीतिक दल था, कांग्रेस.  उस समय संविधान सभा को ही कांग्रेस माना जाता था और कांग्रेस को ही भारत का पर्याय कहा जाता था.


आंदोलन के समानांतर प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब 


सबसे आखिरी बात ये कि जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ और अंग्रेजों की भारत पर पकड़ कमजोर होने लगी थी. तब जवाहर लाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना जैसे नेता ये समझ गए थे कि अब अंग्रेजों का शासन ज्‍यादा दिन तक नहीं रहेगा और बाद में ऐसा ही हुआ.  नेहरू और जिन्ना ने आजादी के आंदोलन के समानांतर प्रधानमंत्री बनने का वो ख्वाब बुनना शुरू कर दिया. जिसके लिए आज उन्हें स्वतंत्रता का लाभार्थी कहा जाए तो, गलत नहीं होगा. जब देश आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था तब नेहरू और जिन्ना अपनी राजनीतिक ख्वाहिशों को पूरा करने की रणनीति पर काम कर रहे थे, जिसमें उन्हें कामयाब भी मिली.  लेकिन हम मानते हैं उनकी इस निजी कामयाबी में देश का हित कहीं भी नहीं था.  वो सिर्फ और सिर्फ स्वतंत्रता के लाभार्थी बने और प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे. 


सरल शब्दों में कहें तो ये वो चार मार्ग थे, जो भारत को आजादी के बाद गलत दिशा में ले गए और इसकी वजह से संविधान का जो वृक्ष भारत के नागरिकों को छांव देने के लिए लगाया गया था. उसकी शाखाएं इन नेताओं ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए काट दी. 


तब मौन क्‍यों रहे महात्‍मा गांधी?


यहां एक बात और महत्वपूर्ण है कि जब ये सब हो रहा था तब महात्मा गांधी पूरी तरह चुप थे. महात्मा गांधी कहते थे कि सच बोलने में संकोच नहीं होना चाहिए और जब बात लोगों के हितों की हो और देश की हो, तो फिर सच बोलना और भी जरूरी हो जाता है. लेकिन आज़ादी के समय और आज़ादी के बाद जब नेताओं के जीवन में सत्ता का स्वार्थ सबसे ऊपर था. तब गांधीजी पूर्वी बंगाल, जो आज बांग्लादेश है. वहां भड़की साम्प्रदायिक हिंसा का विरोध कर रहे थे.  उन्होंने आजादी के लिए संघर्ष किया लेकिन आजादी के बाद उन्होंने अपनी भूमिका को सीमित कर लिया और वो नेताओं के राजनीतिक स्वार्थ पर पूरी तरह मौन रहे. हमें लगता है कि अगर गांधीजी तब नेहरू को समझाते और अपनी भूमिका को सीमित नहीं करते तो भारतीय राजनीति का स्वरूप जनहित के लिए समर्पित हो सकता था.  लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. 


राजनीतिक स्वार्थ का सिद्धांत 


कहते हैं कि जहां से नैतिकता की रेखा मिटनी शुरू होती है. वहीं से राजनीतिक स्वार्थ का सिद्धांत जन्म लेता है और आजादी के बाद हमारे देश में ऐसा ही हुआ.  इन गलतियों को भी आपको कुछ पॉइंट्स में समझना चाहिए. 


26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था और ये बात सब जानते हैं. लेकिन इससे एक दिन पहले क्या हुआ था, वो आपको कोई नहीं बताता. आज ही के दिन 25 जनवरी 1950 को भारतीय निर्वाचन आयोग का गठन हुआ था और यहीं से एक धारणा बनी कि चुनाव जीतना ही लोकतंत्र है. लोग वोट दे आएंगे तो लोकतंत्र का मकसद पूरा हो जाएगा. इस गलत धारणा की वजह से नेताओं ने देश की जरूरतों से ज्‍यादा चुनाव जीतने पर ध्यान देना शुरू कर दिया. चुनाव कैसे जीते जा सकते हैं, इसके लिए रणनीतियां बनाई जाने लगीं. जिसमें चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करना ही सबसे बड़ा मकसद था.  इससे हमारे देश के नेता चुनाव जीतने में तो माहिर हो गए लेकिन इस चुनावी प्रपंच में देश उन लक्ष्यों से भटक गया, जो आजादी से पहले उसकी प्राथमिकता थे. 


शिक्षा और स्वास्थ्य में कोई बदलाव क्यों नहीं आया?


दूसरी बात देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को दूरदर्शी नेता कहा जाता था. सत्ता की गोद में बैठे बहुत से डिजाइनर इतिहासकारों ने ये साबित करने की भी कोशिश की. लेकिन हमारा सवाल यहां ये है कि जब नेहरू दूरदर्शी नेता थे तो उन्होंने जनसंख्या, शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय व्यवस्था और पुलिस-प्रशासन जैसे मुद्दों पर ऐसे कदम क्यों नहीं उठाए. जिनकी देश को सबसे ज्‍यादा जरूरत थी.


जब भारत आजाद हुआ तब हमारे देश की कुल आबादी 36 करोड़ थी, जो आज 135 करोड़ हो चुकी है. यानी लगभग 100 करोड़ की आबादी बढ़ी है. अगर नेहरू दूरदर्शी होते तो वो इस दिशा में नीतियां लाते और आज भारत बढ़ती जनसंख्या की समस्या से नहीं जूझ रहा होता. 


इसी तरह जवाहरलाल नेहरू के शासन में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़े कदम नहीं उठाए गए. उनके नाम पर कुछ अस्पताल तो बने. स्कूलों के पाठ्यक्रम में उनकी कुछ उपलब्धियों को भी जोड़ दिया गया. लेकिन कभी किसी ने ये सवाल पूछने की हिम्मत नहीं की कि अगर नेहरू दूरदर्शी थे तो शिक्षा और स्वास्थ्य में कोई बदलाव क्यों नहीं आया? आज भी भारत में लोग अपने बच्चों का किसी अच्छे स्कूल में दाखिला नहीं करवा पाते. अच्छे अस्पतालों में इलाज से वंचित रह जाते हैं और इससे दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं हो सकता.  


आज़ादी से पहले 1943 में स्वास्थ्य क्षेत्र की हालत बहुत खराब थी. तब देश में कुल 10 मेडिकल कॉलेज ही थे, जहां से हर साल देश को 700 ग्रेजुएट्स मिलते थे और 8 साल बाद भी इसमें ज्‍यादा बदलाव नहीं आया. 1951 में 18 हजार ग्रेजुएट डॉक्‍टर्स ही थे और ज्‍यादातर डॉक्‍टर्स तब शहरों में ही काम करते थे. तब देश में कुल 1915 अस्पताल थे, जिनमें लगभग एक लाख 16 हजार बेड्स थे. सोचिए, 36 करोड़ की आबादी पर सिर्फ 1 लाख के करीब बेड थे. इसके बावजूद इस क्षेत्र में ज्‍यादा काम नहीं हुआ. 


...तो भारतीय अदालतों पर करोड़ों मामलों का बोझ नहीं होता


आज़ादी के बाद भारत की न्याय व्यवस्था में सुधार की सबसे ज़्यादा जरूरत थी. लेकिन ये सुधार सिर्फ नेताओं के निजी जीवन में दिखा. आज भारत में अदालतों पर 3 करोड़ 65 लाख से ज्‍यादा मामले पेंडिंग हैं और सबसे अहम इन मुकदमों को निपटाने में वर्षों लग जाते है. लेकिन अगर आजादी के बाद न्याय व्यवस्था को मजबूत करने की कोशिश होती, तो शायद आज भारतीय अदालतों पर करोड़ों मामलों का बोझ नहीं होता.


देशहित से ज्‍यादा निजी हितों को पूरा करने पर जोर


आज़ादी के बाद पुलिस और प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार पर भी ध्यान नहीं दिया गया. इससे सिस्टम में रिश्वखोरी की एक ऐसी प्रथा शुरू हुई, जिसने आम आदमी में असंतोष और अविश्वास को बढ़ावा दिया. आज हमारे देश के लोग पुलिस थानों में जाने से डरते हैं. सरकारी दफ़्तरों में उन्हें अधिकारियों की जेब गर्म करने के लिए कहा जाता है और हमें लगता है कि सिस्टम के DNA में ये बेईमानी आज़ादी के बाद ही आई क्योंकि, तब वो कदम नहीं उठाए गए. जिसकी देश को सबसे ज्‍यादा जरूरत थी.  यानी नेहरू एक भूल थे और उन्होंने देशहित से ज्‍यादा निजी हितों को पूरा करने पर जोर दिया. 


गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर आज ये समझने का भी दिन है कि आज़ादी के बाद भारत प्रगति के लक्ष्यों को क्यों प्राप्त नहीं कर पाया और जब आप ये समझेंगे तो आपको पता चलेगा कि हमारे देश में आज़ादी के बाद से नेता एक रेसिपी पर काम करते आए हैं जो उन्हें सत्ता की चौखट तक ले ही जाती है. इसलिए आज आपको इस रेसिपी में डाली जाने वाली चीजें भी समझनी चाहिए. 


इनमें पहला है, आरक्षण. भारत के संविधान में आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ 10 वर्षों के लिए की गई थी और ये तय किया गया था कि 10 वर्षों के बाद इसकी समीक्षा की जाएगी और इसी पर आगे बढ़ते हुए इसे खत्म किया जाएगा. लेकिन नेताओं ने आरक्षण का इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिए किया और आज आरक्षण किसी भी नेता के लिए उसका मनपसंद टॉपिक होता है. 


तुष्टीकरण को बना लिया गया बड़ा हथियार 


सत्ता की इस रेसिपी में डाली जाने वाली दूसरी चीज है तुष्टीकरण. नेताओं ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के तुष्टीकरण को एक बहुत बड़ा हथियार बना लिया. सेकुलरिज्‍म की आड़ में तुष्टीकरण के विचार को हवा दी और ऐसा करके लोगों के वोट हासिल किए गए. जैसे बड़ी कंपनियां अपने किसी खराब प्रोडक्ट का प्रचार-प्रसार करके उससे प्रॉफिट कमा लेती हैं. ठीक वैसे ही नेताओं ने तुष्टीकरण के नकारात्मक विचार को राजनीति की रीढ़ बना दिया और धर्म के हिसाब से अपनी राजनीति शुरू कर दी और ये राजनीति आज भी होती है. 


तीसरी चीज है, ध्रुवीकरण. धर्म, सम्प्रदाय, जाति, भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता पर किसी एक मुद्दे को आधार बना कर ध्रुवीकरण की राजनीति शुरू हुई. शुरुआत में जब चुनावों में पार्टियों को इसका फायदा हुआ तो इससे ध्रुवीकरण का विचार मजबूत हो गया और ये विचार आज भी भारतीय राजनीतिक के DNA में मौजूद है.


जब डॉ. अंबेडकर के राजनीतिक करियर पर पड़ा असर


संविधान के निर्माता डॉक्टर भीम राव अंबेडकर ने नेहरू का ये सच दुनिया के सामने रख तो दिया लेकिन इस सच की उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. अंबेडकर देश के वित्त मंत्री बनना चाहते थे लेकिन उन्हें कानून मंत्री बना दिया गया और जब कानून मंत्री के तौर पर वो हिंदू कोड बिल संसद से पास कराना चाहते थे तो उन्हें ऐसा नहीं करने दिया गया. तब उन्होंने ये कहा था कि नेहरू ने ये बिल पास नहीं होने दिया. इस सच की वजह से ही डॉ. अंबेडकर का राजनीतिक करियर खराब कर दिया गया. उन्हें चुनाव में हरा दिया गया और इस तरह से वो गुमनामी में चले गए और 1956 में उनका निधन हो गया. 


विकास के मामले में क्‍यों पिछड़ गया भारत ? 


अब हम आपको अपने नेताओं की गलतियां समझाने के लिए तीन देशों का उदाहरण बताते हैं-


वर्ष 1947 में हमारे साथ दक्षिण कोरिया आजाद हुआ.


वर्ष 1942 में हमसे पहले ऑस्ट्रेलिया आजाद हुआ.


और वर्ष 1965 में हमारे बाद सिंगापुर आजाद हुआ.


लेकिन भारत विकास के मामले में इन देशों से आज बहुत पीछे है.  हमने भी ऐसे संपन्न देश का नागरिक होने का सपना देखा था लेकिन हमारे हिस्से में वो नहीं आ सका. इसकी वजह है इन तीन देशों के नेताओं की सोच. इन नेताओं ने चुनाव जीतने के लिए नीतियां नहीं बनाई. इन्होंने देश को महान बनाने के लिए विकास का मॉडल बनाया. सिंगापुर ने तय किया कि बोलने के अधिकार से ज्यादा विकास का अधिकार जरूरी है. उन्होंने अपने देश की जरूरतों को ध्यान में रखकर योजनाएं बनायी और हर आने वाले संकट के बारे में पहले ही सोचा जबकि हमारे यहां नेता खुद को विजनरी तो कहते रहे लेकिन देश के लिए उनके पास कोई विजन था. ये आज की स्थिति देखकर बिल्कुल नहीं लगता है.