देशभर में शनिवार (12 अक्टूबर) को दशहरा का त्योहार मनाया गया. ज्यादातर लोगों ने बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न रावण का पुतला जलाकर मनाया. लेकिन, क्या आप जानते हैं कि मध्य प्रदेश में एक ऐसा गांव हैं, जहां शनिवार को दशहरे के मौके पर वार्षिक अनुष्ठान के तौर पर 'रावण बाबा' की पूजा की गई. गांव की पंचायत का नाम भी रावण के नाम पर रखा गया है और इसे रावण पंचायत कहा जाता है, जो विदिशा जिले के नटेरन जनपद के अंतर्गत आता है.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

सदियों पुरानी है रावण के पूजा की परंपरा


टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार, रावण पंचायत के सचिव जगदीश प्रसाद शर्मा ने बताया, 'गांव के लोग रावण बाबा को प्रथम देवता या 'कुलदेवता' के रूप में पूजते हैं. पूजा के बाद गांव में भंडारे का भी आयोजन किया गया. स्थानीय लोगों ने रावण की मूर्ति की नाभि पर तेल चढ़ाया, जो लेटी हुई अवस्था में है.'


500 साल से ज्यादा पुरानी है मूर्ति


स्थानीय लोगों का अनुमान है कि दस सिर वाले रावण की यह लेटी हुई मूर्ति 500 साल से भी ज्यादा पुरानी है. हालांकि, इसको लेकर कोई आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं है. यहां न केवल राक्षस राजा का मंदिर है, बल्कि रावण को इतना महत्वपूर्ण माना जाता है कि विवाह के दौरान सबसे पहले निमंत्रण रावण को ही दिया जाता है. इसके साथ ही वार्षिक अनुष्ठानों और दावतों में शामिल किया जाता है. गांव की सरपंच प्रीत किराड़ के प्रतिनिधि राजेश धाकड़ ने बताया, 'दशहरे पर हमने 'रावण बाबा' की पूजा की, फिर 'आरती' की और उसके बाद 'भंडारा' भी आयोजित किया गया. शादी-ब्याह के मामले में पहला निमंत्रण देवता को दिया जाता है.'


मूर्ति को लेकर कई किस्से और मिथक


सूत्रों ने बताया कि मूर्ति को लेकर कई किस्से और मिथक मशहूर हैं. एक कहानी कहती है कि पास की दुधा पहाड़ी पर प्राचीन समय में एक राक्षस था, जो स्थानीय ग्रामीणों को परेशान करता था. उन्होंने उसे चुनौती दी कि अगर वह इतना शक्तिशाली है तो उसे 'लंकेश' से जाकर लड़ना चाहिए. राक्षस तब लंका की ओर भागा, लेकिन रावण के पहरेदारों ने उसे अंदर नहीं जाने दिया. वह तब तक कोशिश करता रहा, जब तक कि एक दिन 'लंकेश' उसकी चीखें सुनकर नहीं आ गया और फिर राक्षस से लड़ाई की. राक्षस को मारने के बाद लंकेश ने अपनी तलवार गांव के तालाब में रख दी और फिर थोड़ा आराम किया. इसी लेटी हुई स्थिति को मूर्ति में दिखाया गया है. स्थानीय लोगों का कहना है कि मूर्ति की आराम या लेटी हुई स्थिति को मिथकों के जरिए उचित ठहराया जाता है.