Freebies plan of political parties: तू डाल-डाल, मैं पात-पात. कोई भी राजनीतिक दल या कोई भी सरकार ये नहीं कह सकती कि वो जनता को मुफ्त की रेवड़ियां नहीं बांटती. लेकिन जिस तरह से राजनीतिक दलों के बीच वोटर्स को लुभाने के लिए मुफ्त में दिए जाने वाले उपहार और मुफ्त योजनाओं की घोषणा करने की होड़ मची है . वो अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो सकती है.


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इसलिए भारतीय स्टेट बैंक के अर्थशास्त्रियों ने सुप्रीम कोर्ट को सुझाव दिया है कि मुफ्त की योजनाओं पर सरकारी सब्सिडी, राज्य के कुल GDP या राज्य के कुल Tax Collection के एक प्रतिशत तक सीमित कर दी जानी चाहिए. यानी चुनाव आयोग हो या SBI.एक्सपर्ट्स देश की अर्थव्यवस्था पर Freebies के बढ़ते बोझ से चिंतित हैं. इसकी वजह ये है कि सरकारें बिना सोचे-समझे सरकारी खजाने और जनता के टैक्स के पैसे का इस्तेमाल मुफ्त की रेवड़ियां (Freebies) बांटकर अपने फायदे के लिए कर रही हैं.


देश में बढ़ रहा मुफ्त योजनाओ का चलन


अब आप खुद अंदाजा लगाइये कि जब जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा मुफ्त की योजनाओं पर खर्च किया जाएगा तो उसका भार तो ज्यादा टैक्स देकर और महंगाई के रूप में आम जनता को ही उठाना पड़ेगा. ये बात राजनीतिक दल अच्छी तरह से जानते हैं. लेकिन वोट बैंक की राजनीति उन्हें मुफ्त की रेवड़ियों बांटने के लिए प्रेरित करती हैं. इसका उदाहरण गुजरात और हिमाचल प्रदेश है, जहां चुनाव होने हैं. SBI की रिपोर्ट के मुताबिक हिमाचल प्रदेश में विभिन्न राजनीतिक दल जिन मुफ्त योजनाओं के वादे कर रहे हैं, उन्हें लागू करने की कीमत राज्य के कुल टैक्स क्लेक्शन का 2 से 10 प्रतिशत है. इसी तरह गुजरात में विभिन्न राजनीतिक दलों के मुफ्त वादों को पूरा करने में राज्य के कुल टैक्स कलेक्शन का 8 से 13 प्रतिशत हिस्सा खर्च करना पड़ेगा.


राजनीतिक दल कभी भी मुफ्त योजनाओं के लुभावने वादे करना नहीं छोड़ेंगे. इसलिए ये हमारा कर्तव्य है कि हम ऐसी मुफ्त की योजनाओं को नकारना सीखें जिससे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान हो. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया यानी RBI के मुताबिक राज्यों का सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में कर्ज 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए. RBI ने हाल में एक रिपोर्ट जारी करके बताया था कि देश के पांच राज्यों ने मुफ्त की योजनाओं पर बेतहाशा पैसे खर्च किए हैं, जिससे उनकी आर्थिक हालत पतली हो गई है.  


ये बड़े राज्य कर्ज के दलदल में डूबे


बिहार की GDP के मुकाबले राज्य सरकार पर कर्ज वर्ष 2022-23 में 38.7 फीसदी पहुंचने का अनुमान है. केरल में GDP के मुकाबले उसका कर्ज चालू वित्त वर्ष में 37.2 फीसदी पहुंच सकता है. पश्चिमी बंगाल सरकार पर कुल कर्ज की रकम GDP के मुकाबले 34.2 फीसदी है. राजस्‍थान की हालत कर्ज के मामले में सबसे ज्‍यादा खस्ता है.मौजूदा वित्तवर्ष में GDP के मुकाबले कुल कर्ज बढ़कर 39.8 फीसदी पहुंचने का अनुमान है. जबकि पंजाब की कुल जीडीपी के मुकाबले कर्ज की रकम 45.2 प्रतिशत है. इसके बावजूद पंजाब में मान सरकार ने मुफ्त बिजली जैसी योजनाएं लागू कर दी हैं.


इस आंकड़े को देखकर एक कहावत याद आती है- कर्ज लेकर घी पीना. असलियत ये है कि मुफ्त की योजनाओं (Freebies) का सारा घी सरकार और राजनीतिक दल पी रहे हैं और कर्ज का बोझ जनता पर पड़ रहा है. लेकिन ये बात जनता को समझ नहीं आ रही. जबकि सुप्रीम कोर्ट तक Freebies को लेकर चिंता जाहिर कर चुका है.  


फ्रीबीज और कल्याणकारी योजनाओं में समझें अंतर


हम ये नहीं कह रहे कि जनता के लिए मुफ्त की योजनाएं (Freebies) नहीं चलाई जानी चाहिए. लेकिन ज्यादातर लोग Freebies और कल्याणकारी योजनाओं में फर्क नहीं कर पाते. भारत जैसे देश में जहां बड़ी आबादी अपने भोजन और आवास जैसी बेसिक सुविधा तक के लिए सरकारों पर निर्भर रहती है. इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए केंद्र सरकारें राशन योजना, आवास योजना और अन्य योजनाएं चलाती रहती हैं. लेकिन दिक्कत ये है कि राजनीतिक दलों और सरकारों ने मुफ्त बिजली, टीवी, प्रति माह भत्ता जैसी Freebies को कल्याणकारी योजना कहना शुरू कर दिया है. इसलिए अब हम आपको जनकल्याण योजना और रेवड़ी कल्चर में अंतर बताते हैं. 


आम तौर पर सब्सिडी को दो भागों में बांटा जाता है. पहली मेरिट सब्सिडी और दूसरी नॉन मेरिट सब्सिडी. मेरिट सब्सिडी में आप बेहद जरूरी चीजों को रख सकते हैं. जैसे मुफ्त शिक्षा, मुफ्त राशन जैसी योजनाएं. वहीं आप नॉन मेरिट सब्सिडी को देखें तो इसमें आप मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी और मुफ्त किराये को रख सकते हैं. बिजली मुफ्त देने से इसका दुरुपयोग बढ़ेगा. लोग बिजली की बचत करने की बजाए इसे फिज़ूल खर्च करेंगे. इसी तरह पानी मुफ्त होगा तो उसकी फिज़ूलखर्जी बढ़ेगी. इन मुफ्त चीजों में आप देखेंगे कि इनसे सरकारों को वोटों का फायदा भले ही हो जाए लेकिन लॉन्ग टर्म में देश पर आर्थिक बोझ ही बढ़ेगा.


राजनीतिक दल देशहित के बारे में क्यों नहीं सोचते


इसलिए आपको स्पष्टता होनी चाहिए कि सरकारों की हर जनलकल्यणकारी योजना मुफ्त की रेवड़ी (Freebies) नहीं होती है. हम ये मानते हैं कि मुफ्त शिक्षा, मुफ्त स्वास्थ्य और मुफ़्त गैस सिलेंडर जैसी योजनाएं बेहद जरूरी हैं. हम सिर्फ़ इस ओर ध्यान खींचना चाहते हैं कि मुफ्त की भी तय सीमा होनी चाहिए? ये देखा जाना चाहिये कि क्या चीज़ मुफ्त में देना ज़रूरी है और क्या नहीं? और हर राजनीतिक दल को वादा करने से पहले ये जरूर बताना चाहिए उसकी मुफ्त की योजना में देशहित कहां है?


वैसे जरूरी नहीं है कि Freebies मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त टीवी, मुफ्त वॉशिंग जैसी बड़ी चीजों के रुप में ही दी जाए. हमारे देश में तो एक मुर्गे और एक बोतल में भी राजनीतिक दल अपने समर्थक जुटा लेते हैं. ऐसा ही एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. 


तेलंगाना में मुफ्त मुर्गे और शराब बांटने का वीडियो


तेलंगाना के इस वीडियो में TRS का एक नेता स्थानीय लोगों को मुफ्त में दारू और मुर्गा बांटता नजर आ रहा है . जिसे लेने के लिए लोगों की लंबी कतारें लग गईं . वीडियो में दिख रहा है कि लाइन में जितने भी लोग लगे हैं, सभी को एक-एक मुर्गा और शराब की बोतल दी जा रही है. दरअसल ये TRS की आम बैठक से पहले प्रमोशनल इवेंट है. जिसमें तेलंगाना राष्ट्र समिति को राष्ट्रीय पार्टी घोषित किया जाएगा. इससे पहले TRS नेता लोगों को शराब की बोतलें और मुर्गे बांट रहे हैं. ये काउंटर किसी भंडारे के काउंटर जैसा था. जहां मुर्गे और शराब की बोतलें सजाकर रखी गईं थीं. वहीं टीआरएस प्रमुख केसीआर और उनके बेटे और मंत्री केटी रामाराव के बड़े कटआउट भी उनके साथ है. 


तो जिस देश के राजनीतिक दल एक मुर्गा और शराब की बोतल में वोटरों को रिझाने में कामयाब हो जाते हों, सोचिए उस देश में मुफ्त बिजली और पानी जैसी मुफ्त की रेवड़ियां वोटर्स को कितनी रिझाती होंगी. लेकिन इससे देश की अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हो रहा है, उसकी चिंता ना कोई राजनीतिक दल करता है और ना कोई सरकार.


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