क्लास खत्म होने के बावजूद भी पढ़ाते रहते थे मुक्तिबोध
प्रकाशकों की आपसी लड़ाई के कारण मुक्तिबोध की पुस्तक `भारतीय इतिहास एवं संस्कृति` पर मुकदमा किया गया कि इसमें धार्मिक महापुरुषों के बारे में गलत ढंग से लिखा गया है.
नई दिल्ली: आधुनिक हिन्दी में गहन वैचारिक रचनाओं के लिए विख्यात मुक्तिबोध आम जीवन में एक बहुत ही सरल व्यक्ति एवं ‘‘स्नेहिल पिता” थे और ऐसे प्रतिबद्ध अध्यापक थे जो कक्षा खत्म होने की घंटी बजने के बावजूद बच्चों को पढ़ाते रहते थे. मुक्तिबोध के जन्म शताब्दी वर्ष की समाप्ति पर उनके पुत्र रमेश मुक्तिबोध ने स्मृतियों को साझा करते हुए बताया, "पिता के रूप में उन्होंने मुक्तिबोध को सदैव एक निर्मल स्वभाव वाले व्यक्ति के रूप में पाया. अपने को उन्होंने कभी सर्वेसर्वा या ऐसा नहीं माना कि वह ही सभी कुछ जानते हैं.
कविता में वह कहते हैं, ‘‘मैं ब्रह्मराक्षस सृजन सेतु बनना चाहता हूं.’’ वह जिंदगी भर सीखना और पढ़ना चाहते थे. संक्षेप में वह एक स्नेहिल पिता थे.’’ मुक्तिबोध का जन्म 13 नंवबर 1917 को श्योपुर, ग्वालियर में हुआ था. मुक्तिबोध के रचनाकर्म में चांद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल (कविता संग्रह), काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी (कहानी संग्रह), कामायनी :एक पुनर्विचार, नयी कविता का आत्मसंघर्ष, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र(आखिर रचना क्यों), समीक्षा की समस्याएँ एवं एक साहित्यिक की डायरी (आलोचनात्मक कृतियाँ) शामिल है. रमेश ने बताया कि 1958 में राजनांदगांव आने के बाद मुक्तिबोध दिग्विजय महाविद्यालय में साहित्य पढ़ाते थे, वहीं वह विज्ञान के छात्र थे. उनके बारे में बताया जाता है कि मुक्तिबोध ने कभी अपनी कोई क्लास नहीं छोड़ी. पढ़ाते समय उन्हें किसी प्रकार का विघ्न बर्दाश्त नहीं था.
उन्होंने ने बताया, ‘वह पढ़ाते पढ़ाते इतने तल्लीन हो जाते कि कक्षा खत्म होने की घंटी कब बजी उनको यह भी नहीं पता चल पता था. दूसरी कक्षा लेने के लिए जब अन्य अध्यापक आता तो वह पढ़ाना बंद करते. उस जमाने में भी दो कक्षाओं के बीच पांच मिनट का अंतराल होता था और वह उस दौरान भी पढ़ाते रहते थे.’ पिता के संघर्षपूर्ण जीवन पर रमेश ने बताया, ‘‘उन्होंने जो रास्ता चुना था, वह खुद ही चुना था. उनके साहित्य एवं उनकी बातों से यही पता चलता है. भारतीय मध्यवर्ग की जो स्थिति बनती है, वह आयी और उन्होंने इससे जमकर संघर्ष किया. कभी समझौता नहीं किया.’’
मुक्तिबोध की अप्रकाशित या अधूरी रचनाओं के बारे में रमेश ने बताया, “मैंने उनकी रचनाओं के पुलिंदे से ऐसी सभी रचनाओं को निकाला. उन सभी रचनाओं को संकलित कर उनकी समग्र रचनावली में डाला गया है. अभी तक मुक्तिबोध की समग्र रचनावली छह खण्डों में आयी थी. किंतु इन अप्रकाशित रचनाओं को सम्मिलित कर उनकी समग्र रचनावली अब आठ खण्डों में आने वाली है.’’
11 सितम्बर 1964 को मुक्तिबोध के निधन के वक्त 23 बरस के रहे रमेश ने बताया कि 1960 में मुक्तिबोध से ‘‘भारतीय इतिहास एवं संस्कृति’ प्रकाशक ने यह कहकर लिखवाई थी कि यह पाठ्यक्रम में लगेगी. प्रकाशकों की आपसी लड़ाई के कारण इस पुस्तक पर मुकदमा किया गया कि इसमें धार्मिक महापुरुषों के बारे में गलत ढंग से लिखा गया है. यह मामला जबलपुर उच्च न्यायालय में चला. अदालत ने इस पुस्तक के कुछ अंश निकालने को कहा.
रमेश ने कहा, ‘‘इससे मुक्तिबोध को बहुत झटका लगा. उनका मानना था कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है और सरकार लेखन पर प्रतिबंध लगाना चाहती है.’’ उन्होंने बताया कि अब यह पूरी पुस्तक नये सिरे से प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध है.