कवि गोपाल दास 'नीरज' की लोकप्रियता का आलम यह था कि राजा से लेकर रंक तक सब उनकी कविताओं और कंठ के मुरीद थे. इसी कड़ी में इटावा के ग्रामीण अंचल में एक कवि सम्‍मेलन में शिरकत करने का उनका किस्‍सा बहुत मशहूर है. दैनिक जागरण की एक रिपोर्ट के मुताबिक उस कवि सम्‍मेलन में शिरकत करने के लिए 'नीरज' ने खास शर्त रखी. दरअसल वह इलाका बीहड़ क्षेत्र में पड़ता था और 1960-70 के दशक में चंबल के बीहड़ों में डाकुओं का बड़ा आतंक था. हालांकि ये डाकू खुद को 'बागी' कहलाना पसंद करते थे. इस कारण ही 'नीरज' ने आयोजकों से गुजारिश करते हुए कहा कि कार्यक्रम खत्‍म होने के तत्‍काल बाद उनको गाड़ी से रेलवे स्‍टेशन तक पहुंचवा दिया जाए.


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लिहाजा प्रोग्राम के बाद उनके लिए जीप का तत्‍काल प्रबंध किया गया. लेकिन दिक्‍कत यह हुई कि जब रात के अंधेरे में जीप जब जंगल से गुजर रही थी तो उसका डीजल खत्‍म हो गया. अब घने जंगलों और घुप अंधरों के बीच ड्राइवर के साथ 'नीरज' फंस गए. कुछ पल ही बीते थे कि वहां दो नकाबपोश प्रकट हुए. उन्‍होंने चिल्‍ला कर पूछा कि कहां से आ रहे हो? ड्राइवर ने पूरा ब्‍योरा देते हुए कहा कि साथ में प्रसिद्ध कवि हैं. उन डकैतों ने कहा कि 'दद्दा' के पास चलना पड़ेगा.


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ठिकाने पर पहुंचने के बाद डकैतों ने परिचय कराते हुए कहा कि साथ में कविजी हैं. पहले तो 'दद्दा' बिल्‍कुल प्रभावित नहीं हुए और बोले कि हम कैसे मानें कि तुम कवि हो? फिर थोड़ा नरम पड़ते हुए कहा कि चलो भजन सुनाओ. 'नीरज' ने भजन सुनाया. 'दद्दा' को पसंद आया. फिर क्‍या था, एक के बाद एक भजन सुने-सुनाए गए. 'दद्दा' उनकी आवाज पर मंत्रमुग्‍ध हो गए. आखिर में जेब में हाथ डालकर 100 रुपये का नोट निकालकर ईनाम के रूप में दिया और अपने डकैतों से उनको सम्‍मानजनक ढंग से छोड़ने का आदेश दिया.


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डकैतों ने साथ में डीजल का एक टीन ड्राइवर को दिया और घुड़कते हुए उससे कहा कि चलने से पहले डीजल टंकी चेक कर निकलना चाहिए था. जब 'नीरज' ने चलते वक्‍त उन नकाबपोशों से दद्दा के बारे में पूछा तो उनसे कहा गया कि यहां से चुपचाप चले जाओ. बाद में 'नीरज' को पता चला कि 'दद्दा' का असली नाम बागी सरदार माधो सिंह था और उस जमाने में उनको चंबल का शेर कहा जाता था.


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डाकू माधो सिंह को चंबल के बीहड़ों में रॉबिन हुड जैसी ख्‍याति थी. उसके बारे में कहा जाता था कि वह केवल अमीरों को लूटता था. उस कुख्‍यात डकैत पर 23 मर्डर और 500 अपहरण के मामले दर्ज थे. 1960-1970 के दशक में चंबल में आतंक का पर्याय माने जाने वाले माधो सिंह ने अपने 500 साथियों के साथ जय प्रकाश नारायण के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था.