‘दुर्वासा ऋषि ने मुझसे यह उपन्यास लिखवाया’ : व्यास सम्मान से सम्मानित सुरेंद्र वर्मा
हिंदी साहित्य का प्रतिष्ठित व्यास सम्मान ग्रहण करते हुए प्रसिद्ध नाटककार सुरेंद्र वर्मा ने कहा, ‘मैं तो मुगलकालीन नाटकों की श्रृंखला पर काम कर रहा था. लेकिन एक दिन भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की इमारत में मुझे दुर्वासा ऋषि मिल गए और समझाने लगे कि साहित्य में उनके ऊपर काम नहीं हुआ है. मैंने कहा कि मैं तो मुगलों के वैभव को जी रहा हूं, इस प्राचीन भारत पर क्यों काम करुं, लेकिन इन ऋषि-मुनियों के पास बड़ी दैवीय ताकत होती है जिसके चलते उन्होंने मुझसे कालिदास पर यह उपन्यास (काटना शमी का वृक्ष : पद्मपंखुरी की धार से) लिखवा ही लिया.’’
नई दिल्लीः ‘‘मैं तो मुगलकालीन नाटकों की श्रृंखला पर काम कर रहा था. लेकिन एक दिन भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की इमारत में मुझे दुर्वासा ऋषि मिल गए और समझाने लगे कि साहित्य में उनके ऊपर काम नहीं हुआ है. मैंने कहा कि मैं तो मुगलों के वैभव को जी रहा हूं, इस प्राचीन भारत पर क्यों काम करुं, लेकिन इन ऋषि-मुनियों के पास बड़ी दैवीय ताकत होती है जिसके चलते उन्होंने मुझसे कालिदास पर यह उपन्यास (काटना शमी का वृक्ष : पद्मपंखुरी की धार से) लिखवा ही लिया.’’ यह बात बुधवार को यहां हिंदी साहित्य का प्रतिष्ठित व्यास सम्मान ग्रहण करते हुए प्रसिद्ध नाटककार सुरेंद्र वर्मा ने कही.
उन्हें वर्ष 2016 का 26वां व्यास सम्मान उनके उपन्यास ‘काटना शमी का वृक्ष : पद्मपंखुरी की धार से’ के लिए दिया गया है. व्यास सम्मान हिंदी साहित्य में पिछले 10 वर्ष के दौरान प्रकाशित हुई सर्वश्रेष्ठ कृति को के. के. बिड़ला फाउंडेशन की ओर से दिया जाता है.
‘काटना शमी का वृक्ष : पद्मपंखुरी की धार से’ कालिदास के जीवन के रचनात्मक संघर्ष को दिखाता है. इस उपन्यास को लिखने में लगे 10 साल के समय पर चर्चा करते हुए वर्मा ने ‘भाषा’ से कहा, ‘‘किसी भी कृति को जब लिखना हम शुरु करते हैं तो यह पता नहीं होता कि इस पर कितना समय लगेगा. लेकिन काम करते रहने से एक दिन पता चलता है कि यह तो खत्म हो गया.’’ वर्मा को यह पुरस्कार ‘सरस्वती सम्मान’ से सम्मानित गोविंद मिश्र ने दिया. वर्मा को प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिन्ह और साढ़े तीन लाख रुपये की नकद राशि देकर सम्मानित किया गया.
इस मौके पर उपस्थित पुरस्कार चयन समिति के अध्यक्ष और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष प्रोफेसर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा, ‘‘वर्मा क्लासिक लिखते हैं जो कम पठनीय होते हैं. उनका यह उपन्यास अपठनीय है लेकिन इसमें शब्दों का उपयोग बहुत सोच-समझकर किया गया है. यह ठीक वैसे ही है जैसे रामचरित मानस में तुलसीदास ने शब्द संयोजन किया है और शायद यही वजह है कि उसे कई बार पढ़ा गया है. किसी कृति का सम्मान उसके बार-बार पढ़े जाने में हैं और यह कृति वैसी ही है.’’ दुर्वासा ऋषि के प्रसंग को विस्तारित स्वरूप देते हुए वर्मा ने कहा कि वह शाहजहां और उसके बच्चों के बीच उत्तराधिकार को लेकर छिड़े विवादों पर 11 नाटकों की श्रृंखला लिखना चाहते थे और उसी पर काम कर रहे थे. लेकिन एक दिन जब इतिहास अनुसंधान परिषद की इमारत में उनकी मुलाकात दुर्वासा ऋषि से हुई तो वे बोले कि उनके साथ के विश्वामित्र ऋषि को लेकर कई साहित्य रचना हुई हैं लेकिन उन्हें लेकर कुछ नहीं लिखा गया. फिर उनकी दुर्वासा ऋषि से गहन चर्चा हुई और अंतत: वह इस उपन्यास को लिखने के लिए राजी हो गए.
हास-परिहास में उन्होंने कहा कि जब इसका दूसरा संस्करण छपा तो दुर्वासा ऋषि फिर उनके पास आये और बोले कि ‘हिंदी साहित्य में दुर्वासा ऋषि का योगदान’ पर भी शोध होना चाहिए.