Lal Krishna Advani Entry In Politics: देश में लगातार तीसरी बार केंद्र की सत्ता का संचालन करने वाली भारतीय जनता पार्टी के शिखर पुरुष, देश के पूर्व गृहमंत्री और भारत रत्न से सम्मानित राजनेता लालकृष्ण आडवाणी शुक्रवार (08 नवंबर) को 97 साल के हो गए. अपने जीवन के 98वें वर्ष में प्रवेश करने वाले आडवाणी को देश और दुनिया भर के प्रशंसकों की शुभकामनाएं मिल रही हैं. क्योंकि भारतीय राजनीति में आजादी के बाद पहले चुनाव 1952 से लगातार आज तक वह सीधे या परोक्ष रूप से प्रभावशाली किरदार रहे हैं.


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भारतीय राजनीति में 'छद्म-सेकुलरवाद' को हराने की सफल रणनीति


देश भर में आडवाणी को विभिन्न राजनीतिक उपलब्धियों के लिए हमेशा याद किया जाता है. देश की राजनीति में कांग्रेस और उसकी मददगार सियासी पार्टियों की नेहरूवादी 'सेकुलरवाद' को 'छद्म-सेकुलरवाद' का नाम देकर उसे चुनौती देने और उसे हराने की सफल रणनीति को जमीन पर उतारने वाले आडवाणी को विरोधी भी सम्मान की नजर से देखते हैं. अपनी रथयात्राओं के लिए मशहूर आडवाणी ने भारतीय राजनीति को न केवल नई दिशा दी, बल्कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर रामलला के भव्य मंदिर के पुनर्निर्माण का रास्ता खोलने वाले लोगों में भी प्रमुख रहे.


राजनीति में आडवाणी जैसा आत्म-बलिदान का उदाहरण बेहद कम


लगभग पचास साल से आडवाणी की राजनीति को करीब से देख रहे शिक्षाविद और पूर्व राज्यसभा सदस्य बलबीर पुंज ने एक्स पर लिखा कि राष्ट्रीय लोकप्रियता के शिखर पर होते हुए जब वे प्रधानमंत्री पद के बहुत निकट थे, तब उन्होंने अपनी स्वेच्छा से इस अवसर को अटल जी को सौंप दिया था. वैश्विक राजनीति के इतिहास में इस तरह के आत्म-बलिदान के उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं. पुंज ने आडवाणी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सच्चे कार्यकर्ता, परिश्रमी, विनम्र और समाजहित के लिए सदैव व्यक्तिगत सुख-समृद्धि का त्याग करने को तैयार रहने वाला राजनेता बताया.


हवाला कांड में महज आरोप लगने पर ही संसद की सदस्यता से इस्तीफा


जेल जाने के बाद भी अपने पद से त्यागपत्र नहीं देने और जांच एजेंसियों पर दबाव बनाने के लिए सड़कों पर हिंसक प्रदर्शन तक का सहारा लेने वाले कुछ मौजूदा राजनेताओं के दौर में लालकृष्ण आडवाणी के सियासी किरदार को बार-बार एक मिसाल और जरूरी सबक के तौर पर जिक्र में शमिल किया जाता है.


ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक, जब हवाला मामले में कांग्रेस शासन की ओर से आरोप लगाए गए, तो आडवाणी ने राजनीति में नैतिकता, ईमानदारी और शुचिता का एक उदाहरण पेश करते हुए संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. तब उन्होंने घोषणा की थी कि जब तक अदालत उन्हें निर्दोष घोषित नहीं करतीं, तब तक वे चुनावी राजनीति से दूर रहेंगे. इस मामले में उन्होंने जांच एजेंसियों के साथ भी पूरा सहयोग किया और क्लीनचिट पाने के बाद ही राजनीतिक वापसी की.


भाजपा को प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनाने में आडवाणी की अहम भूमिका


संयमित आहार औक कम शब्दों में निजी संवाद करने वाले लालकृष्ण आडवाणी इस उम्र में भी अपनी दृष्टि, कड़ी मेहनत और आदर्श उदाहरणों से असंख्य लोगों को बेहतर मनुष्य, समर्पित राजनीतिक कार्यकर्ता और भाजपा को एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में विकसित करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं. आइए, जानते हैं कि कराची में एक साधारण शिक्षक और विभाजन की त्रासदी के बाद एक पत्रकार के रूप में करियर आगे बढ़ाने वाले आडवाणी राजनेता क्यों और कैसे बन गए. साथ ही इसकी क्या वजह थी?


आडवाणी ने 'माई कंट्री माई लाइफ' में करियर के बारे में क्या-क्या बताया?


लालकृष्ण आडवाणी ने 'माई कंट्री माई लाइफ' नाम से आत्मकथा लिखी है. प्रभावशाली लेखक के रूप में उन्होंने इस किताब में समकालीन राजनीति को लेकर अपने विचार और राजनीति में एंट्री के बारे में भी लिखा है. हिंदी में 'मेरा देश मेरा जीवन' नाम से प्रकाशित अनुवाद के मुताबिक, 8 नवंबर 1927 को सिंध प्रांत (पाकिस्तान) में जन्मे लालकृष्ण आडवाणी ने कराची के सेंट पैट्रिक्स स्कूल से पढ़ाई की. 


उन्होंने साल 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिडूमल नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया. इस दौरान ही वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक से जुड़े. इसके दो साल बाद 1944 में उन्होंने कराची के मॉडल हाई स्कूल में बतौर शिक्षक नौकरी की. 


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भारत विभाजन, संघ में प्रचारक, संयोगवश अटलजी से मुलाकात और फिर...


लालकृष्ण आडवाणी ने 1947 में देश का बंटवारा होने के बाद मुंबई आकर गवर्नमेंट लॉ कॉलेज से लॉ में ग्रेजुएशन किया. इस दौरान उन्होंने संघ से जुड़े हिंदुस्थान समाचार न्यूज एजेंसी और ऑर्गनाइजर मैगजीन में पत्रकार के तौर पर भी काम किया. कई अंग्रेजी अखबारों में फिल्म की समीक्षा भी लिखी. बाद में वह संघ के प्रचारक बने. इसी बीच, श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ ट्रेन से मुंबई जा रहे उनके सहयोगी अटल बिहारी वाजपेयी से उनकी पहली मुलाकात हुई. हालांकि, तब राजस्थान के कोटा में संघ के प्रचारक रहे लालकृष्ण आडवाणी जनसंघ के तत्कालीन नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय से मिलने स्टेशन पहुंचे थे.


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नगरपालिका चुनाव, मुंबई से राजनीति में एंट्री, फिर अटल-आडवाणी की जोड़ी


संयोगवश अटलजी से हुई पहली मुलाकात ने लालकृष्ण आडवाणी को बहुत प्रभावित किया. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कश्मीर में निधन के बाद अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ में नेतृत्व की भूमिका में आए. इस बीच मुंबई में नगरपालिका चुनाव से आडवाणी ने राजनीति में एंट्री ली. बाद में संघ और जनसंघ की योजना से 1957 में अटलजी के सहयोग के लिए आडवाणी को दिल्ली भेजा गया. आगे चलकर भारतीय राजनीति में अटल-आडवाणी की शानदार जोड़ी एक जीवित किंवदंती की तरह बनकर सामने आई, जिसके बारे में लगभग सबको पता है.