भीड़ की हत्या का ठीकरा Whatsapp पर फोड़कर कौन अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है
WhatsApp अफवाह फैलाने का माध्यम तो हो सकता है, अफवाह फैलाने की वजह नहीं. इसलिए अगर सरकार वाकई इस तरह की चीजें रोकना चाहती है तो उसे समस्या की जड़ों में जाना होगा.
देश के अलग-अलग इलाकों से पिछले 2 साल में आ रहे भीड़ द्वारा की गई हत्याओं के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्य किसी भी सूरत में इसे रोकें. उधर केंद्र सरकार ने WhatsApp से कहा है कि वह इस बारे में कुछ करे. सरकार को लगता है और काफी हद तक सही लगता है कि भीड़ द्वारा की गई हत्या में, अफवाह फैलाने और उकसाने में WhatsApp ने बड़ी भयानक भूमिका निभाई है.
सुप्रीम कोर्ट का ऐसा कहना और केंद्र सरकार का इस तरह का कदम उठाना कुछ हद तक जायज है, लेकिन अगर सरकार सिर्फ संदेश फैलाने वाले WhatsApp पर ही फोकस कर रही है तो वह निश्चित तौर पर डिसफोकस है, क्योंकि WhatsApp अफवाह फैलाने का माध्यम तो हो सकता है, अफवाह फैलाने की वजह नहीं. इसलिए अगर सरकार वाकई इस तरह की चीजें रोकना चाहती है तो उसे समस्या की जड़ों में जाना होगा. और समझना होगा कि इस देश में अफवाह कैसे और कौन फैलाता है. और उसका मकसद क्या होता है. क्योंकि अगर सरकार WhatsApp से इसलिए परेशान हैं कि उसके माध्यम से वह अफवाह के स्रोत तक नहीं पहुंच पाती है तो उसकी चिंता बहुत गहरी नहीं है. क्योंकि हाल ही में जिस ढाई हजार की भीड़ ने महाराष्ट्र में 5 लोगों को पीट-पीटकर मार डाला. वह भीड़ अंडर ग्राउंड नहीं थी. वे लोग सार्वजनिक रूप से खड़े थे और पुलिस के सामने उन्होंने जीवित बचे बाकी दो लोगों को भी मार डाला. यानी हत्यारे छुपे हुए नहीं थे, उजागर थे. अगर कोई छुपा हुआ था तो वह प्रशासन था, सरकार थी. इसलिए इन हत्याओं की जड़ों में जाना होगा.
अफवाहों के सिलसिले
देश में यह सिलसिला बहुत पुराना है. लेकिन अपने जीवनकाल में मुझे सबसे बड़ी अफवाह 90 के दशक के मध्य में गणेश जी को दूध पिलाने वाली घटना लगी थी. उस जमाने में WhatsApp तो क्या मोबाइल भी नहीं था और टेलीफोन के कनेक्शन भी बहुत कम लोगों के पास थे. लेकिन सुना सुनी यह बात इतनी तेजी से फैली कि मंदिरों के बाहर और घरों पर भी लोग भगवान को दूध पिलाने लगे. इस अफवाह के असर को देखकर मैं तब दंग रह गया, जब लोग दूध पिलाते थे और दूध मूर्ति के अंदर नहीं जाता था फिर भी वह यही कहते थे कि भगवान ने दूध पी लिया. एक ऐसा माहौल बन गया था कि जिसके हाथ से भगवान दूध ना पिएंगे, वह अपने आप को कम धार्मिक या चालू भाषा में कहें तो पापी समझने लगता था. ऐसे में हर आदमी पर ना सिर्फ दूध पिलाने का नैतिक दबाव बना, बल्कि दूसरों को यह बताने का भी दबाव बना कि उसके हाथ से भगवान ने दूध पी लिया है.
ज्यादा दूर ना जाएं तो नोटबंदी के दौर में चलें. उस समय एक अफवाह फैली कि नमक खत्म हो गया है. उसके बाद दुकानों पर नमक खरीदने के लिए कतारें लग गई. घंटे 2 घंटे के भीतर नमक के स्टॉक खत्म होने लगे और उसकी कीमतें आसमान छूने लगीं. मजे की बात यह है कि इस बीच WhatsApp या अन्य मैसेज जिस तेजी से नहीं चल रहे थे, अफवाह उससे कहीं तेजी से चल रही थी. यहां फिर सवाल उठता है की अफवाह किसने फैलाई होगी और लोगों ने क्यों उस पर इस कदर भरोसा किया होगा.
भय और अविश्वास
हम लोग बहुत साइंटिफिक टेंपर या तर्कशील समाज नहीं है. हम संस्कार और विश्वासों से भरे लोग हैं. हम किताबों पर कम और वाचिक परंपरा पर ज्यादा भरोसा करते हैं. ऐसे में हम हर उस बात पर भरोसा करने के लिए प्रस्तुत हैं, जो हमारे भरोसे के आदमी के पास से आ रही है या फिर हमारे आसपास के कई आदमियों के पास से आ रही है.
इसके अलावा हम एक ऐसे समाज भी हैं जो घनघोर विपन्नताओ से घर गिरा हुआ है. संसाधन कम हैं और जरूरत ज्यादा और उस पर से प्रतिस्पर्धा की मार. हमें हमेशा डर लगा रहता है कि जो थोड़ा बहुत हमारे पास है, उसे कोई चुरा ना ले जाए. कोई छीन ना ले, हमारी महत्वाकांक्षाएं, हमारी योग्यताओं से ऊपर हैं. इसलिए उन्हें पूरा करने के लिए हमें जादू मंत्र की जरूरत पड़ती है. हमारा घर बाहर, पास पड़ोस, अब पुराने जैसा नहीं रह गया. ऊपर से TV अखबार और दूसरे समाचार माध्यम लगातार हमारा भयादोहन कर रहे हैं. ऐसे में हमें डर लगा रहता है कि हमारा बच्चा स्कूल गया है तो रास्ता सुरक्षित है या नहीं, अगर वह स्कूल में है तो वहां सुरक्षित है या नहीं, टीचर उसे पढ़ाता है या नहीं. अनिश्चितताओं का उसके पास ना तो कोई जवाब है ना कोई भरपाई. ऐसे में वह लगातार भय और अविश्वास में जीता है. इस भय और अविश्वास को कम करने की जिम्मेदारी लोकतांत्रिक सरकार और प्रशासन पर है. लेकिन वह तो खुद ही पंगु है न्याय से उठता भरोसा और भीड़ का बर्बर न्याय किसी भी मुल्क में आम आदमी को सुरक्षा का अहसास कराना और अन्याय होने की सूरत में न्याय दिलाना, चुनी हुई सरकार और उसकी मशीनरी का काम है. जब सरकारें ऐसा करने में विफल हो जाती हैं, तो लोग खुद ही कानून बनाने लगते हैं. जाहिर है, इन कानूनों का स्वरूप भीड़तंत्र के उन पुराने कानूनों जैसा होता है, जिसे हम मध्ययुग या बर्बर युग कहते हैं.
हाल में हुई भीड़ की हत्याओं को तो हम विमर्श में लाएंगे ही, लेकिन कुछ चीजें और देखिए.
सीतापुर के कुत्ते
उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में पिछले 1 साल में 1 दर्जन से अधिक व्यक्ति आवारा कुत्तों के शिकार बन गए. सुनने में यह घटना अजीब लगती है, लेकिन इसकी पुष्टि आधिकारिक प्रतिष्ठानों से हो चुकी है. होना यह चाहिए था कि इस बात का पता लगाया जाता कि आखिर सीतापुर में पर्यावरण संबंधी या पशुओं के व्यवहार संबंधी कौन सा बदलाव आया है, जिससे कुत्ते इतने आक्रमक हो गए. इसके साथ ही घातक कुत्तों को चिन्हित किया जाता है और उनका निस्तारण किया जाता. लेकिन यह दोनों काम कारगर ढंग से नहीं किए जा सके. नतीजा यह हुआ कि जिले में कुत्ता मारने के लिए सेनाएं बन गईं और देश में जिस तरह की बेरोजगारी है, ऐसे में इन सेनाओं के लिए सेनानियों की कमी नहीं है. बल्कि दिन भर यहां वहां घूमने और जलील होने से अच्छा है कि वे लोग कुत्ता मारने का ज्यादा रोमांचक और समाज की नजर में सम्मानित काम करें.
नतीजा यह हुआ कि आसपास के इलाकों के कुत्तों की शामत आ गई और बड़े पैमाने पर कुत्ते मार दिए गए. यह खब्त इतनी आगे बढ़ी कि जहां कोई बच्चा गिर भी गया या चोट लग गई, वहां भी कुत्ते के हमले की अफवाह फैल गई. अपने बचपन के तजुर्बों से मैं जानता हूं कि कई मौकों पर बच्चों ने अपनी गलतियां छुपाने के लिए कुत्तों का बहाना बनाया होगा. फिर इन घटनाओं को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से इस तरह फैलाया गया होगा की बात को तिल का ताड़, बनने में देर नहीं लगी होगी.
मुंहनोचवा और चोटी काट
पिछले कई साल में इसी तरह की अफवाह मुंहनोचवा को लेकर चली और उस पर तो 'दिल्ली 6' फिल्म भी बन गई. पिछले साल इससे ज्यादा अफवाह चोटी काटने वाले की चली जो पूरे देश में फैल गई. किसी को दावे से नहीं पता कि उसकी चोटी कटी और कटी तो किसने काटी. लेकिन इस तरह की मनःस्थिति बनी, एक सामूहिक मनःस्थिति बनी कि बहुत से लोगों को लगने लगा चोटी कट गई है.
बुंदेलखंड में गाय से बचने की सेनाएं
अब तक बात हो रही थी अफवाहों की. अब हम बात कर रहे हैं प्रशासन की विफलता की. पिछले दो-तीन साल से बुंदेलखंड के इलाके में आवारा पशुओं से किसान बुरी तरह परेशान हैं. आवारा घूमते पशु और मुख्य रुप से गाय के झुंड रात में खड़ी फसल को चरने खेतों में घुस जाते हैं. इनसे बचने के लिए लोगों ने यह तरीका निकाला कि वह गायों को रात में अपने गांव से खदेड़ कर दूसरे गांव में भेज दें. जहिर है यह काम एक आदमी नहीं कर सकता था, इसलिए गांव वालों ने टोलियां बनाई और उनकी नाइट ड्यूटी लगाई गई.
जब एक गांव में यह काम हुआ तो दूसरे गांव में भी हुआ. अब दोनों तरफ गाय से बचने के लिए सेना बन गई तो संघर्ष गाय को खदेड़ने से बढ़कर इस बात पर पहुंच गया कि हम अपने गांव से गाय तो खदेड़ेंगे ही, साथ ही दूसरे गांव से गाय को अपने यहां ना आने दें. नतीजा यह निकला कि गाय तो गई एक तरफ, दोनों गांव की टोलियां आमने सामने आने लगीं. कभी डंडे चले
तो कभी हाथ पैर. कई जगहों पर पुलिस भी बुलाई गई लेकिन समस्या का समाधान नहीं निकला
समाज की नजर में ओझल सरकार
ऊपर बताई गई सभी घटनाओं में लोगों ने शुरू में पुलिस और प्रशासन से आशा लगाई, लेकिन वहां से कोई हल नहीं निकला तो लोगों ने कानून अपने हाथ में लेना शुरू कर दिया. जब शुरू में उन्होंने भीड़ का न्याय किया तो लोग अपने आस पड़ोस में हीरो बनकर उभरे और पुलिस प्रशासन ने यह सोच कर कंधे उचका दिए कि लोग खुद ही निपट लेंगे. लेकिन वह यह भूल गए कि ऐसा करके वह लोगों को उस बर्बर जमाने में जाने दे रहे हैं, जब लोकतंत्र की कल्पना नहीं थी, जब सत्ता का बंटवारा नहीं था, जब भीड़ जो कहती थी, वही सही होता था. और जब ताकतवर लोग अपने फायदे के लिए किसी भी कमजोर को अपराधी घोषित कर देते थे और भीड़ के हाथों मरवा देते थे.
हाल में शुरू हुई भीड़ द्वारा हत्याओं के मामले से पहले हमने गाय के नाम पर भीड़ द्वारा समुदाय विशेष के लोगों की हत्या के वाकये देखे. उन मामलों में सीधा न्याय करने के बजाय सोशल मीडिया पर राजनीति संरक्षित ऐसा अभियान चला कि मारे गए लोगों को दोषी ठहराने की कोशिश की गई. बहस सिर्फ इस बात पर नहीं हुई कि किसी को भी किसी का कत्ल करने का अधिकार नहीं है. अगर कोई अपराध हुआ भी है तो उसका दंड सिर्फ न्याय विधान से दिया जाएगा, भीड़ से नहीं. उस समय यह कहा गया कि मारे गए व्यक्ति के घर में गाय का मांस था या बकरे का. यह बहस अपने आप एक गुंजाइश खुलती है कि अगर मांस गाय का था तो हत्या कम से कम समाज की नजरों में उचित ठहरा दी जाए.
दादरी में अखलाक के परिवार पर जिस तरह से FIR हुई और राजस्थान में भी मृतक के परिवार पर केस लगाए गए और जिस तरह राजस्थान में मॉब लिंचिंग करने वालों को अदालत में दोषी नहीं ठहराया जा सका, उससे समाज में भीड़ का न्याय करने की प्रवृत्ति और बढ़ गई
भीड़ बनी भस्मासुर
गाय के नाम पर भीड़ के जिस जुनून को समाज के एक तबके और राजनीति के एक तबके का समर्थन मिला, उससे भीड़ का हौसला बढ़ गया. और पुलिस का हौसला कुछ कम हो गया. अब लोगों ने दूसरे विषयों पर भी फैसला ऑन द स्पॉट करने की तैयारी कर ली. असम, त्रिपुरा, महाराष्ट्र और झारखंड में हम यही प्रवृत्ति देख रहे हैं.
यहां ज्यादातर मामलों में कथित बच्चा चोर को भीड़ मार रही है. और सिर्फ मार नहीं रही है, हत्या को एक सामाजिक दायित्व की तरह निभा रही है. ठीक वैसे ही जैसे किसी जमाने में सती प्रथा रही होगी यानी एक ऐसी हत्या जिसे भीड़ और समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग, दोनों ही जायज ठहराते हैं. जाहिर है ऐसी हत्या को वहां का स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व भी खुली जुबान से ना सही, दबी जुबान से जायज ठहरा रहा होगा. ऐसे में बिगड़े हालात को संभालना प्रशासन और पुलिस के लिए बहुत ही ज्यादा कठिन हो जाएगा.
लौटने का रास्ता किधर है
सबसे पहला काम तो प्रशासन को गांव से लेकर जिले तक के स्तर पर लोगों को यह भरोसा दिलाना होगा कि उनके बच्चे सुरक्षित हैं. यह भरोसा दिलाने के लिए कार में बैठाकर भोंपू पकड़ाकर किसी दिहाड़ी मजदूर को गांव में भेजने से काम नहीं चलेगा. वहां कुछ दिन के लिए अर्धसैनिक बल भेजने पड़ेंगे. जिन्हें देखकर आम आदमी को भरोसा हो कि अब सरकार अपनी ताकत का इस्तेमाल बच्चों को बचाने में कर रही है और अब उन्हें खुद डंडे उठाने की जरूरत नहीं है. दूसरी तरफ समाज में मौजूद लफंगों के हौसले पस्त होंगे. उन्हें लगेगा कि वह अब अपने मनोरंजन के लिए किसी का कत्ल करने चलेंगे, तो उन्हें बहुत मुश्किल आएगी. एक बार जब विष चक्र टूट जाएगा तब सरकार के पास दूसरे विकल्प खुलने लगेंगे. तब स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व को भीड़ के इस पागलपन में वोट दिखाई देना बंद हो जाएगा. तब पुलिस को बच्चों की गुमशुदगी के हर मामले को उतनी ही मुस्तैदी से लेना पड़ेगा, जितनी मुस्तैदी से अभी मंत्रियों के प्रोटोकॉल को निभाने का काम लेते हैं. अगर समाज में कुछ वॉलंटियर भी खड़े कर लिए जाएं तो राह और आसान हो जाएगी. यह सब करने के साथ ही WhatsApp पर लगाम कसी जाए तो कुछ नतीजा निकलेगा वरना सिर्फ सोशल मीडिया पर दोष मढ़ कर इन हालात से नहीं निपटा जा सकता.