नई दिल्ली: भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐतिहासिक आंदोलन हुए. आज़ादी की पृष्ठभूमि में काकोरी कांड की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. लेकिन विडंबना है कि इसके बारे में बहुत ज्यादा जिक्र सुनने को नहीं मिलता. इतिहासकारों ने काकोरी कांड को बहुत ज्यादा अहमियत नहीं दी. लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि काकोरी कांड वह घटना थी जिसके बाद देश में क्रांतिकारियों की नई तस्वीर भारतीय जनता के सामने आई. क्रांति के प्रति लोगों का नजरिया बदल गया.  


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उन्नीसवीं सदी में राष्ट्रवाद का जो दौर प्रारंभ हुआ, वह भारत के राष्ट्रीय फलक पर महात्मा गांधी के आगमन तक निर्विरोध जारी रहा. लेकिन फरवरी 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया, तब भारत के युवा वर्ग में जो निराशा उत्पन्न हुई उसका निराकरण काकोरी कांड ने ही किया था.


आजादी के इतिहास में असहयोग आंदोलन के बाद काकोरी कांड को एक बहुत महत्वपूर्ण घटना के तौर पर देखा जा सकता है. क्योंकि इसके बाद आम जनता अंग्रेजी राज से मुक्ति के लिए क्रांतिकारियों की तरफ और भी ज्यादा उम्मीद से देखने लगी थी. लोगों में गरम दल के प्रति सम्मान बढ़ने लगा और आज़ादी की नई किरण सामने नज़र आने लगी.


9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन में डकैती डाली थी. इसी घटना को ‘काकोरी कांड’ के नाम से जाना जाता है. काकोरी ट्रेन डकैती में खजाना लूटने वाले क्रांतिकारी देश के विख्यात क्रांतिकारी संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’(HRA) के सदस्य थे. क्रांतिकारियों का मूल मकसद ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था ताकि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को मजबूती दी जा सके.


एचआरए (HRA) की स्थापना 1923 में शचीन्द्रनाथ सान्याल ने की थी. इस क्रांतिकारी पार्टी के लोग अपने मकसद को अंजाम देने के लिए धन इकट्ठा करने के उद्देश्य से डाके डालते थे. इन डकैतियों में धन कम मिलता था और निर्दोष व्यक्ति मारे जाते थे. इस कारण सरकार क्रांतिकारियों को चोर-डाकू कहकर बदनाम करती थी.इन हालात के कारण ,क्रांतिकारियों ने अपनी लूट की रणनीति बदल कर सरकारी खजानों को लूटने की नई नीति बनाई. काकोरी ट्रेन की डकैती इस दिशा में क्रांतिकारियों का पहला बड़ा प्रयास था.


काकोरी षडयंत्र के संबंध में जब एचआरए (HRA) दल की बैठक हुई तो अशफाक उल्लाह खां ने इसका विरोध किया था , लेकिन सर्वसम्मति से ये योजना पास कर दी गई थी.


काकोरी डकैती में कुल 4601 रुपये लूटे गए थे. इस लूट की व्याख्या करते हुए लखनऊ के पुलिस कप्तान मि. इंग्लिश ने कहा कि , ‘डकैत क्रांतिकारी खाकी कमीज और हाफ पैंट पहने हुए थे. उनकी संख्या 25 थी. यह सब पढ़े-लिखे लग रहे थे. पिस्तौल में जो कारतूस मिले थे, वे वैसे ही थे जैसे बंगाल की राजनीतिक क्रांतिकारी घटनाओं में प्रयुक्त किए गए थे.’


इस घटना के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी. देश के कई हिस्सों में बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां हुई. हालांकि काकोरी ट्रेन डकैती में 10 आदमी ही शामिल थे, लेकिन 40 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया. जवाहरलाल नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी समेत बड़े-बड़े लोगों ने जेल में क्रांतिकारियों से मुलाकात की. 


काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा लगभग 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला. इस पर सरकार का 10 लाख रुपये खर्च हुआ. छह अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ. जज हेमिल्टन ने धारा 121अ, 120ब, और 396 के तहत क्रांतिकारियों को सजा सुनाईं.


जज ने इस मुकदमे में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी की सजा सुनाई.शचीन्द्रनाथ सान्याल को कालेपानी और मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सजा हुई. योगेशचंद्र चटर्जी, मुकंदीलाल जी, गोविन्द चरणकर, राजकुमार सिंह, रामकृष्ण खत्री को 10-10 साल की सजा हुई. विष्णुशरण दुब्लिश और सुरेशचंद्र भट्टाचार्य को सात और भूपेन्द्रनाथ, रामदुलारे त्रिवेदी और प्रेमकिशन खन्ना को पांच-पांच साल की सजा हुई.


वहीं दूसरी तरफ आम जनता में इस घटना के बाद क्रांतिकारियों के प्रति सम्मान बढ़ गया था. फांसी की सजा की खबर सुनते ही जनता आंदोलन पर उतारू हो गई. अदालत के फैसले के खिलाफ शचीन्द्रनाथ सान्याल और भूपेन्द्रनाथ सान्याल के अलावा सभी ने लखनऊ चीफ कोर्ट में अपील दायर की, लेकिन इस अपील को निरस्त कर दिया गया और सभी की सजा बरकरार रही.