Karpoori Thakur: कभी पंडित, कभी मौलवी, कुली... तब हर हफ्ते हुलिया बदल लेते थे कर्पूरी ठाकुर
Karpoori Thakur Jayanti: आज कर्पूरी ठाकुर का जन्मदिन है. पूरा देश जननायक को श्रद्धांजलि दे रहा है. मोदी सरकार ने उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न देने की घोषणा की तो पूरे देश में चर्चा चल पड़ी. उनके बारे में एक दिलचस्प किस्सा है जब वह हर हफ्ते अपना हुलिया बदल लेते थे.
Karpoori Thakur Bharat Ratna: हम सोए वतन को जगाने चले हैं, हम मुर्दा दिलों को जिलाने चले हैं... बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और प्रसिद्ध समाजवादी नेता दिवंगत कर्पूरी ठाकुर ने यह कविता आजादी की लड़ाई के दौरान लिखी थी. बाद में यह समाजवादियों का प्रभात फेरी गीत बन गया. जयंती पर आज पूरा देश उन्हें याद कर रहा है. श्रद्धांजलि दे रहा है. कुछ घंटे पहले ही उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘भारत रत्न’ देने की घोषणा हुई है. ऐसे में आज की पीढ़ी देश के इस अनमोल रत्न के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने (Karprui Thakur Biography in Hindi) के लिए उत्सुक है.
हालांकि बिहार के बच्चे-बच्चे को यह नाम पता है. उन्हें राजनीति का वास्तविक ‘जन नायक’ कहा जाता है. उनकी विरासत पर विचारधाराओं से परे सभी पार्टियां दावा करती रही हैं. वैसे तो बहुत सी किताबें, लेख, संस्मरण ठाकुर के किस्से कहते हैं, लेकिन एक दिलचस्प वाकया उस समय का है जब देश में आपातकाल लागू हो गया था.
वो तूफान की आहट थी
इस समय हालत ऐसे हो गए थे कि इस जननायक को हर हफ्ते अपना हुलिया बदलना पड़ता था. साल 1975 में जून का महीना था. इंदिरा गांधी की सत्ता हिलने लगी थी. 22 जून की शाम जयप्रकाश नारायण जिस प्लेन से दिल्ली आने वाले थे, उसे रद्द कर दिया गया. यह आने वाले तूफान की आहट थी. 26 जून को आपातकाल लागू हो गया. जेपी समेत कई विरोधी नेता गिरफ्तार कर लिए गए.
कर्पूरी ठाकुर ने गिरफ्तार होने के बजाय भूमिगत आंदोलन चलाने के लिए व्यापक कार्यक्रम तैयार किया. नेपाल के वीरपुर के पास जंगल में उन्होंने क्रांति की योजना तैयार की. हालांकि उनका रास्ता शुरू से आखिर तक शांतिपूर्ण रहा.
कर्पूरी ने चलाया अंडरग्राउंड ऑपरेशन
पूरे 19 महीने भागदौड़ चली. जिन लोगों ने अपने-अपने इलाकों में संघर्ष के लगातार गुप्त कार्यक्रम किए, कर्पूरी ठाकुर उनके बीच एकता के सूत्र जैसे थे. प्रोत्साहन, मदद और दिशा देकर उन्होंने देशभर में शांतिपूर्ण भूमिगत आंदोलन का कुशल नेतृत्व दिया. पुलिस पीछे पड़ी रही, पर इस अजेय वीर को आंदोलन के दौरान गिरफ्तार नहीं कर सकी. इनकी संगठन-शक्ति, रणकौशल, प्रतिरोध शैली और भूमिगत आंदोलन के अनुभव हिंदुस्तानी समाजवादी और लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए प्रेरणा और शिक्षा के काम में फलदायक सिद्ध हो सकते हैं.
कर्पूरी ठाकुर 17 जून, 1975 को नेपाल चले गए, वहां दो महीने रहे. नेपाल में राजविराज, हनुमान नगर, विराट नगर, चतरा घूमते रहे. बिहार में भूमिगत नेताओं और कार्यकर्ताओं से बराबर संपर्क रखा. नेपाल आने के 3 दिन बाद ही सीआईडी पुलिस का एक दस्ता कर्पूरी ठाकुर के यहां पहुंच गया. बिहार के सीमावर्ती जिलों के कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों की एक बैठक सीतामढ़ी में हुई. इन लोगों ने नेपाल पुलिस अधिकारियों से अनुरोध किया कि कर्पूरी ठाकुर को भारत सरकार को सौंप दिया जाए. नेपाल सरकार ने यह बात नहीं मानी. जुलाई के दूसरे सप्ताह में नेपाल सरकार अपने विमान से उन्हें काठमांडू ले गई. वह एक प्रकार से नजरबंद थे.
लुंगी पहनी और गायब
नेपाल से भागने के लिए कर्पूरी ठाकुर को वेश बदलना पड़ा. उन्होंने दाढ़ी, मूंछ और सिर के बाल बढ़ा लिए थे. लोग उनको पहचानने के आदी हो गए थे. 5 सितंबर 1975 की रात 10 बजे उन्होंने नाई को बुलाया. दाढ़ी-मूंछ सफा कराया और सिर के बालों को भी छोटा करा दिया. लुंगी पहनी और रात 11-12 बजे गायब हो गए.
अपने मित्रों के प्रयास से एक नेपाली लिबास 'दाउरा सुरूवाल' का बंदोबस्त कर लिया था. इसे पहनकर उन्होंने मोहन सिंह नाम से 'थाई एयरवेज' का टिकट कलकत्ता होते हुए मद्रास के लिए लिया. इसी नाम और वेशभूषा में वह काठमांडू से कलकत्ता चले गए. दमदम हवाई अड्डे पर कुछ लोगों से गुप्त बातचीत की. मद्रास में भूमिगत नेताओं की एक बैठक होनी थी. जार्ज फर्नांडिस से वहां भेंट हुई, पर नानाजी देशमुख पहले ही गिरफ्तार हो गए थे.
मौलवी के वेश में ठाकुर
मद्रास में 10 दिन रहने के बाद वह बेंगलुरु आ गए. वहां से मुंबई आए. तब तक नेपाली वेशभूषा छोड़कर वह मौलवी बन गए थे. नाम रखा खान साहब. बंबई से कर्पूरी ठाकुर दिल्ली आए. वहां 5 दिन रहने के बाद लखनऊ आ गए. मौलवी वेश छोड़कर कुली के वेश में आ गए. कुछ नेताओं से मिलना था. वह केवल लुंगी और गंजी पहनकर पहुंच गए. किसी को शक हो गया तो फौरन लखनऊ से गोरखपुर निकल गए. नेपाल जाकर मुस्लिम वेश धारण कर लिया. जल्दी ही समझ में आ गया कि खतरा है तो वह ट्रक से जनकपुर चले गए. वहां से कोलकाता पहुंचे.
वह इतनी सफाई से अपनी वेशभूषा बनाते थे कि पहचानना मुश्किल था. वह नए लिबास का टेस्ट लेते थे. पहनकर कुछ लोगों को दिखाते फिर नया रूप धारण करते. कुछ समय बाद वह मुलतानी वेशभूषा में आ गए थे. कटक में वह पंडित के वेश में रहे. कुछ इसी तरह उनका संघर्ष चला.
कर्पूरी ठाकुर की कहानी
1924 में बिहार के एक सुदूर गांव के अत्यंत गरीब परिवार में कर्पूरी ठाकुर का जन्म हुआ था. पिता नाई का काम करते थे. नंगे पैर और बासी खाना खाकर स्कूल जाना पड़ता था. हाई स्कूल तक किसी तरह पढ़ा. आगे समस्तीपुर के अपने गांव पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) से 12 किमी पैदल चलकर रेलवे स्टेशन पहुंचते, वहां से ट्रेन पकड़कर दरभंगा जाते थे. यह रोज की दिनचर्या थी. 1942 में पटना विश्वविद्यालय पहुंचे और भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े.
उन्होंने गरीबी को देखा नहीं, उसे जिया था. यही वजह थी कि वह दुख-दर्द, बेकारी, पिछड़ेपन के लिए हमेशा संघर्ष करते रहे. आर्थिक- सामाजिक भेदभाव और उत्पीड़न उन्होंने झेला था.
डॉ. लोहिया ने बिहार को समाजवादी आंदोलन की एक सशक्त प्रयोगशाला के रूप में देखा था, जिसका नेतृत्व करने की असीम क्षमता उन्होंने कर्पूरी ठाकुर में देखी थी. 1967 की बात है वह बिहार के उप मुख्यमंत्री थे. तब केंद्र सरकार से राज्य का पत्राचार अंग्रेजी में हुआ करता था. कर्पूरी ने विरोध किया. आगे बिहार सरकार ने हिंदी में पत्राचार शुरू किया.
कर्पूरी ठाकुर पर प्रो. जाबिर हुसैन ने एक कविता लिखी थी-
वो आदमी जो भीड़ से घिरा है
बहुतों की नजर में सिरफिरा है
वो आदमी जो भीड़ में घिरा है
दरअसल परमात्मा नहीं, भीड़ की आत्मा है
(महान कर्मयोगी: जननायक कर्पूरी ठाकुर, डॉ. भीम सिंह की किताब से कुछ अंश)