MP Election Result 2023: रविवार को आएंगे एमपी चुनाव के नतीजे! जानें प्रदेश की राजनीति का पूरा इतिहास
Madhya Pradesh Legislative Assembly Full History: 3 दिसंबर का दिन मध्य प्रदेश के लिए बेहद खास है क्योंकि कल मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनावों के नतीजे आने वाले हैं और नतीजों से तय होगा कि अब मध्य प्रदेश को कौन दिखाएगा. हालांकि, इससे पहले हम जानते हैं कि मध्य प्रदेश में हुए पहले भी चुनाव यानी बहुत ही कम समय एमपी राजनीति का इतिहास आपको बताते हैं...
MP Chunav Result 2023: 3 दिसंबर का दिन मध्य प्रदेश के लिए बेहद खास है क्योंकि कल मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के नतीजे (Madhya Pradesh Assembly Election Results) आने वाले हैं और इन्हीं नतीजे से तय होगा कि अब मध्य प्रदेश को कौन चलाएगा? क्या एक बार फिर भाजपा की वापसी होगी या जनता कांग्रेस को मौका देगी तो चलिए रविवार को रिजल्ट आए तो इससे पहले हम जानते हैं कि मध्य प्रदेश में इससे पहले जितने भी चुनाव हुए हैं उनके बारे में. यानी बहुत ही कम समय में एमपी की जो राजनीति है, हम आपको उसका पूरा इतिहास बताते हैं...
मध्य प्रदेश का गठन
साल था 1956 का और दिन था 1 नवंबर का और इस दिन गठन हुआ भारत के दिल कहे जाने वाले मध्य प्रदेश का. अब एक नए राज्य का गठन हुआ तो जाहिर सी बात है कि इसको चलाने के लिए प्रशासन चाहिए, लोग चाहिए. जब मध्य प्रदेश का गठन हुआ तो मध्य प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने पंडित रविशंकर शुक्ल. हालांकि, पंडित जी ज्यादा दिन तक मुख्यमंत्री कुर्सी में नहीं बैठ पाए क्योंकि कुछ ही दिन बाद उनका देहांत हो गया. इसके बाद भगवंत राव मंडलोई को मध्य प्रदेश का दूसरा या कहे कि कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाया गया. अब जाहिर सी बात कार्यवाहक थे तो उनको बदलना तय ही था. इसके बाद नेहरू जी ने अपने खास यूपी के वकील को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया. जिनका नाम था कैलाश नाथ काटजू. कैलाश नाथ काटजू एमपी के तीसरे मुख्यमंत्री बने और विधानसभा चुनाव तक उन्होंने प्रदेश को चलाया.
1957 विधानसभा चुनाव
1957 में मध्य प्रदेश में पहले विधान सभा चुनाव हुए. कुल 288 सीटों पर चुनाव था, बहुमत के लिए 145 सीटों की आवश्यकता थी. कांग्रेस 49.83% वोट शेयर के साथ 232 सीटें हासिल करके सबसे बड़ी पार्टी बनी. वहीं, जयप्रकाश नारायण की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) 13.17% वोट शेयर हासिल करते हुए केवल 12 सीटें जीतने में सफल रही थी. चूंकि, पार्टी ने शानदार जीत हासिल की थी. इसलिए मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री कांग्रेस पार्टी ने कैलाशनाथ काटजू को ही बनाया.
1962 विधानसभा चुनाव
1962 के मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव में, कांग्रेस को एक बड़ा झटका लगा था. पिछले चुनाव की तुलना में पार्टी 90 सीटें हार गईं. हालांकि, कम सीटों के बावजूद, कांग्रेस कुल 288 सीटों में से 142 सीटें हासिल करके सरकार बनाने में कामयाब रही थी, जो बहुमत के 145 सीटों के आंकड़े से थोड़ा ही कम था. खास बात ये थी कि इस चुनाव में अखिल भारतीय जनसंघ 42 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. बता दें कि मौजूदा मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू को जाबरा (रतलाम) विधानसभा सीट पर हार का सामना करना पड़ा था, जिसके कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. एक बार फिर भगवंतराव मंडलोई 12 मार्च, 1962 से 30 सितंबर, 1963 तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, उनका कार्यकाल 1 वर्ष और 202 दिनों का था. मध्य प्रदेश की कुर्सी में फिर बदलाव हुआ, इसके बाद इंदिरा गांधी के खास और कद्दावर कांग्रेस नेता डीपी मिश्रा को मध्य प्रदेश को चलाने के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया.
1967 का विधानसभा चुनाव
1967 के मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव में, कांग्रेस के प्रदर्शन में कुछ सुधार हुआ, पिछले चुनाव की तुलना में 25 अधिक सीटें जीतकर, 288 में से कुल 167 सीटें हासिल कीं. जिसके चलते राज्य में कांग्रेस की सरकार बनी. हालांकि, भारतीय जनसंघ (ABJS) ने भी शानदार प्रदर्शन किया था, पार्टी ने 78 सीटें जीतीं थीं, जो पिछले चुनाव से 36 सीटें ज्यादा थीं. खास बात ये थी कि इस विधानसभा में 3 मुख्यमंत्रियों ने राज किया. सरकार के गठन के बाद, मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा के खिलाफ कांग्रेसी नेता गोविंद नारायण सिंह ने विद्रोह कर दिया और लोक सेवक दल नामक एक नई राजनीतिक पार्टी बनाई. यहां बता दें कि गोविंद नारायण सिंह, विंध्य प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री अवधेश प्रताप सिंह या शॉर्ट में कहे तो एपी सिंह के बेटे थे. गोविंद नारायण सिंह ने संयुक्त विधायक दल नामक गठबंधन का नेतृत्व किया और राजमाता सिंधिया के समर्थन से मुख्यमंत्री बने. बता दें कि राजमाता सिंधिया ने विधानसभा के नेता के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यह मध्य प्रदेश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी.
गोविंद नारायण सिंह ने 30 जुलाई 1967 से 12 मार्च 1969 तक मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया. हालांकि, बाद में उनकी कांग्रेस में घर वापसी हुई. उनके जाने के बाद, राजा नरेशचंद्र सिंह 13 दिनों की छोटी अवधि के लिए अगले मुख्यमंत्री बने. खास बात ये थी कि वह मध्य प्रदेश के पहले आदिवासी मुख्यमंत्री थे और हैरान करने वाली बात ये है कि पूरे देश में सबसे ज्यादा आदिवासी अबादी वाले मध्य प्रदेश को इसके बाद कोई दूसरा आदिवासी सीएम नहीं मिल पाया. राजा नरेशचंद्र सिंह की कुर्सी गई तो फिर से सरकार कांग्रेस की बनी. बात मुख्यमंत्री की करें तो डीपी मिश्रा सीएम बनने के लिए पूरी तरह से तैयार थे. हालांकि, एक मामले के चलते वह मुख्यमंत्री नहीं बन पाए और इस बार मध्य प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल के बेटे श्यामाचरण शुक्ल को एमपी सौंपा गया.
बदला गया सीएम
1969 में श्यामाचरण एमपी के मुख्यमंत्री थे. 1969 में राष्ट्रपति चुनाव के समय पीएम इंदिरा गांधी चाहती थीं कि कांग्रेस के वीवी गिरी नहीं, बल्कि निर्दलीय उम्मीदवार रेड्डी जीतें. चुनाव में वीवी गिरी को मध्य प्रदेश से ज्यादा वोट मिले थे. इंदिरा ने इस बात को नोटिस कर लिया था. फिर जब 1971 के लोकसभा चुनाव में एमपी में कांग्रेस का कमजोर प्रदर्शन हुआ तो जनवरी 1972 में विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले श्यामाचरण को हटा दिया गया. इंदिरा के खास पी.सी.सेठी राज्य के मुख्यमंत्री बने थे और विधानसभा चुनाव तक उन्होंने ये जिम्मेदारी निभाई.
1972 का विधानसभा चुनाव
1972 के मध्य प्रदेश राज्य चुनाव में, कांग्रेस ने पिछले चुनाव से अपने प्रदर्शन में कमाल का सुधार करते हुए सबको चौंका दिया. इस समय तक बांग्लादेश बन गया था. इंदिरा की लोकप्रियता पूरे देश में थी. पार्टी को इसका लाभ मिला और उसने 220 सीटें हासिल कीं, जो पिछले चुनाव की तुलना में 53 सीटें ज्यादा थीं. जिससे उसे सरकार बनाने के लिए साफ बहुमत मिल गया. जनसंघ जो पिछले कुछ चुनावों में राज्य में बढ़ रही थी, ने केवल 48 सीटें जीतीं, जो उसकी पिछली संख्या से 30 सीटें कम थीं. कांग्रेस की शानदार जीत के बाद प्रकाश चंद्र सेठी ने दोबारा मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. उन्होंने तीन साल का कार्यकाल पूरा करते हुए 23 दिसंबर, 1975 तक इस पद पर कार्य किया. 1975 में भारत में आपातकाल लागू थी, विपक्षी नेताओं को पकड़- पकड़ के जेल में डाल दिया गया था. कहा जाता है कि देश की प्रधान मंत्री भले इंदिरा गांधी थीं, लेकिन सारे फैसले उनके बेटे संजय गांधी ले रहे थे. बताया जाता है कि इसी दौरान श्यामाचरण शुक्ल के भाई विद्याचरण शुक्ल, संजय गांधी के खास बने. फिर क्या था श्यामाचरण शुक्ल की दोबारा एमपी में एंट्री हो गई और वो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. जो कि 1977 के चुनाव तक चुनाव रहे.
1977 का विधानसभा चुनाव
आपातकाल के बाद पूरे देश के साथ-साथ मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस को बहुत बुरी स्थिति का सामना करना पड़ा. 1977 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा. हालांकि, हम कह सकते हैं कि एमपी की राजनीति में अर्जुन सिंह का सूरज यहीं से उदय हुआ. अर्जुन सिंह को पहली बार कांग्रेस में बड़ी जिम्मेदारी मिली और उन्हें राज्य में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी दी गई. 1977 के मध्य प्रदेश चुनाव में जनता पार्टी विजयी हुई. 319 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए, पार्टी ने 230 सीटों पर जीत हासिल की. प्रदेश में यह एक ऐतिहासिक बदलाव था. कांग्रेस जिसके पास पिछले चुनाव में 220 सीटें थीं, उसने केवल 84 सीटें जीतीं. अखिल भारतीय राम राज्य परिषद ने चार सीटों पर चुनाव लड़ा और 2.88% वोट शेयर हासिल करते हुए एक सीट जीती. साथ ही पांच निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी. इसके बाद 24 जून 1977 को कैलाश जोशी ने मध्य प्रदेश के 9वें मुख्यमंत्री की भूमिका संभाली. हालांकि, खराब स्वास्थ्य के कारण, उन्हें 1978 में पद छोड़ना पड़ा. कैलाश जोशी ने 1977 से 1978 की अवधि के दौरान 208 दिनों की अवधि के लिए मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया. यहां ऐसा भी कहा जाता है कि आंतरिक मतभेदों के कारण मध्य प्रदेश में जनसंघ के पहले मुख्यमंत्री कैलाश जोशी को इस्तीफा देना पड़ा था. बता दें कि वर्तमान में चुनाव से पहले बीजेपी छोड़ कांग्रेस से चुनाव लड़ने वाले दीपक जोशी कैलाश जोशी के पुत्र हैं.
कैलाश जोशी ने अपने पद से इस्तीफा दिया तो वीरेंद्र कुमार सखलेचा को कुर्सी मिली. जी हां, अगर आप यह सोच रहे हैं कि इनका संबंध शिवराज सरकार में मंत्री ओमप्रकाश सकलेचा से है तो आप बिल्कुल सही हैं. ओमप्रकाश सखलेचा, वीरेंद्र कुमार सकलेचा के पुत्र हैं. वीरेंद्र कुमार सकलेचा ने 17 जनवरी, 1978 को जनता पार्टी के विधायक दल का नेतृत्व संभाला. अगले ही दिन, 18 जनवरी, 1978 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. लगभग दो वर्षों तक मध्य प्रदेश के दसवें मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान सकलेचा ने जनसंघ के प्रभाव को प्रदेश में बढ़ाया. उन्होंने, जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे को तेजी से आगे बढ़ाया, जिससे जनता पार्टी के जो पार्टनर थे, उनके साथ टकराव हुआ. उनके कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे. ऐसा माना जाता है कि बेटे के लिए दिल्ली में बांग्ला दिलाने के चक्कर में उनको कुर्सी छोड़नी पड़ी. भ्रष्टाचार के इन गंभीर आरोपों के कारण वीरेंद्र कुमार सकलेचा ने 19 जनवरी 1980 को अपना इस्तीफा सौंप दिया.
सकलेचा गए तो एमपी में पटवा आए. हालांकि, बहुत ही कम दिनों के लिए आए. आपको बता दें कि सुंदरलाल पटवा को मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान सीएम शिवराज सिंह चौहान के राजनीतिक गुरु के रूप में भी याद किया जाता है. पटवा की बात करें तो वह दो बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, लेकिन दोनों बार उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई. 1980 में पटवा पहली बार मध्य प्रदेश के सीएम बने, लेकिन फिर जब इंदिरा गांधी की देश में वापसी हुई तो उन्होंने 9 राज्यों की सरकारों को बर्खास्त कर दिया. जिसमें मध्य प्रदेश की भी सरकार चली गई. यानी पटवा पहली बार 20 जनवरी 1980 से 17 फरवरी 1980 तक केवल 28 दिनों के लिए एमपी के 11वें सीएम रहे. दूसरी बार ऐसा कब हुआ, हम आपको आगे बताएंगे.
1980 का विधानसभा चुनाव
कुछ दिनों के राष्ट्रपति शासन के बाद मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए और यह चुनाव कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत ही अच्छा साबित हुआ क्योंकि जनता ने कांग्रेस को इस चुनाव में बंपर सीटें दीं. जहां पिछले चुनाव में कांग्रेस को मात्र 84 सीटें मिली थीं. इस चुनाव में पार्टी के 246 विधायक चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे. वहीं, भारतीय जनता पार्टी का एमपी में यह पहला चुनाव था और पार्टी को पहले चुनाव में 60 सीटें मिली थीं. शानदार जीत के बाद कांग्रेस ने दाऊ साहब यानी अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया. जैसा कि हमने आपको ऊपर बताया था कि 1977 से लेकर 1980 तक जब कांग्रेस पार्टी की सरकार मध्य प्रदेश में नहीं थी तो विपक्ष के नेता के जिम्मेदारी अर्जुन सिंह ने निभाई थी तो कहीं ना कहीं पार्टी को इतनी बंपर जीत मिली तो इसका इनाम अर्जुन सिंह को मिला और वह एमपी के 12वें मुख्यमंत्री बने.
1985 का विधानसभा चुनाव
1985 में एक बार फिर एमपी में विधानसभा चुनाव हुए और रिजल्ट पिछले बार जैसा ही था. कांग्रेस को फायदा ही हुआ. हालांकि, ज्यादा नहीं. कांग्रेस की 4 सीटें ही बढ़ी थीं, लेकिन यह खास बात यह थी कि पहले जैसा प्रदर्शन कांग्रेस ने फिर किया. दूसरी और बीजेपी की दो सीटें कम हो गईं. बीजेपी 60 से 58 पर आ गई. कांग्रेस पार्टी ने अच्छा परफॉर्मेंस किया था तो जाहिर सी बात है कि सिटिंग सीएम को फिर मुख्यमंत्री कुर्सी दी जाए और ऐसा हुआ भी, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के एक दिन बाद ही उन्हें पंजाब का राज्यपाल नियुक्त किये जाने के कारण इस्तीफा देना पड़ा. माना जाता है कि उस समय के पीएम राजीव गांधी के कारण अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था. इसको लेकर दो थ्योरी हैं. कई लोगों का कहना है कि मौजूदा मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी के बीच मनमुटाव था और इस वजह से राजीव गांधी ने स्थिति को संभालने के लिए बीच का रास्ता अपनाया और अर्जुन सिंह को पंजाब का राज्यपाल बनाकर भेज दिया. दूसरी थ्योरी ये कहती है कि ऐसा कोई विवाद था ही नहीं. पंजाब में शांति लाने के लिए ही अर्जुन सिंह को वहां भेजा गया था.
वहीं, अर्जुन सिंह पंजाब गए तो मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री मोतीलाल वोहरा को बनाया गया. इसी पीछे की भी दिलचस्प कहानी है. पंजाब के राज्यपाल के रूप में नियुक्ति की जानकारी मिलने पर, अर्जुन सिंह ने तुरंत अपने बेटे अजय सिंह को बुलाया और उन्हें मोतीलाल वोरा को दिल्ली लाने का निर्देश दिया. कमरे से बाहर निकलकर उन्होंने तुरंत जहाज को वापस भोपाल के लिए रवाना कर दिया. अजय सिंह को मोतीलाल वोरा को लाने का काम सौंपा गया. मजेदार बात ये है कि मोतीलाल वोरा, अजय सिंह से खुद को कैबिनेट मंत्री बनाने के लिए सिफारिश कर रहे थे. वोरा सीधे मध्य प्रदेश भवन पहुंचे, जहां अर्जुन सिंह, कमल नाथ और दिग्विजय सिंह मौजूद थे. रात्रिभोज के बाद, चौकड़ी पालम हवाई अड्डे की ओर गई, जहां रूस की यात्रा के लिए जा रहे प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने मोतीलाल वोरा से कहा, 'अब आप मुख्यमंत्री हैं.' जिसके बाद मोतीलाल वोरा ने 13 मार्च 1985 से 14 फरवरी 1988 तक 2 वर्ष 338 दिन तक मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया. हालांकि, चुनाव से पहले उनको कुर्सी छोड़ने पड़ी और कारण था एमपी में अर्जुन सिंह की वापसी. अर्जुन सिंह 14 फरवरी 1988 से 24 जनवरी 1989 तक तीसरी बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन एक बार फिर उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी और इसके कारण था चुरहट लॉटरी विवाद. दरअसल, मुख्यमंत्री के रूप में अर्जुन सिंह के कार्यकाल के दौरान, उनके गृहनगर चुरहट में बाल कल्याण समिति ने लॉटरी बिजनेस शुरू किया, जिस पर 4 करोड़ रुपये के गबन का आरोप लगा. बता दें कि अर्जुन सिंह का नाम इससे जुड़ा और उन्होंने 1989 में अविश्वास प्रस्ताव के बाद इस्तीफा दे दिया था. जिसके चलते 11 महीने बाद ही उनकी कुर्सी फिर से चली गई. इसके बाद पूर्व में मुख्यमंत्री रह चुके 2 नेताओं को फिर से सीएम की कुर्सी मिलती है. मोतीलाल वोरा 25 जनवरी 1989 से 9 दिसंबर 1989 तक कुल 318 दिनों तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. वहीं, फिर श्यामा चरण शुक्ल ने पदभार संभाला और 9 दिसंबर, 1989 से 5 मार्च, 1990 तक 86 दिनों की अवधि तक सीएम के पद पर रहे.
1990 का विधानसभा चुनाव
1990 में सत्ता परिवर्तन होता है और पहली बार मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आती है. बीजेपी की सीटों में भारी इजाफा हुआ है और पार्टी 58 से 220 पर पहुंच जाती है. जबकि, कांग्रेस पार्टी 56 पर आ जाती है. इसके बाद सुंदरलाल पटवा दूसरी बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनते हैं. जैसा कि हमने आपको पहले ही बताया था कि पटवा जी की सरकार दो बार बर्खास्त हुई थी. हमने आपको पहली बार बताया था. दूसरी बार ऐसा इसी विधानसभा के दौरान होता है. दरअसल, 5 मार्च 1990 को सुंदरलाल पटवा दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हैं. हालांकि, लगभग ढाई साल बाद उन्हें अपनी कुर्सी खोनी पड़ती है क्योंकि बाबरी मस्जिद गिरने के बाद चार राज्यों की सरकार नप जाती है. जिसके कारण पटवा जी को अपना पद भी खोना पड़ता है. 15 दिसंबर 1992 को सरकार भंग होने के बाद मध्य प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग जाता है.
1993 का विधानसभा चुनाव
1993 के चुनाव नतीजों ने सभी को चौंका दिया क्योंकि उन दिनों देशभर में राम मंदिर आंदोलन जोरों पर था, लेकिन इसके बावजूद मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी जो पिछले चुनाव में 56 के आंकड़े पर लुढ़क गई थी. उसकी राज्य में वापसी होती है. पार्टी को 174 सीटें मिलती हैं. जिसके बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनते हैं 46 साल के दिग्विजय सिंह. वैसे मुख्यमंत्री बनने की रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधवराव सिंधिया और राज्य के इससे पहले तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके श्यामा चरण शुक्ल भी थे. हालांकि, अर्जुन सिंह ने कुछ ऐसा खेल किया कि जिससे गद्दी मिली उनके चेले दिग्गी राजा को. दिग्विजय सिंह का पहले कार्यकाल, मध्य प्रदेश की कई घटनाओं का गवाह बना. इसी कार्यकाल में मध्य प्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई. इसके अलावा मुलताई गोलीकांड भी दिग्विजय सिंह के पहले कार्यकाल में हुआ था, जो उनकी सरकार का सबसे बड़ा दाग था.
1998 का विधानसभा चुनाव
1998 के चुनाव में दिग्गी राजा के पक्ष में जनता ने वोट किया और कांग्रेस पार्टी एक बार फिर सत्ता में आई. 5 साल सरकार रहने के बावजूद भी सीटों में ज्यादा अंतर नहीं आया और पहले के मुकाबले कांग्रेस को मात्र दो ही सीटें कम मिलीं. हालांकि, दिग्विजय सिंह का ये कार्यकाल गलतियों से भरा रहा, प्रशासन में संविदा कल्चर आया और सहायक शिक्षकों की जगह शिक्षाकर्मियों को नियुक्त किया गया, जिससे सरकारी कर्मचारी सरकार से नाराज हो गए. राज्य की सड़कें ख़राब हालत में थीं, राज्य के लोग बिजली के लिए तरसते थे. भाजपा दिग्विजय सिंह को "मिस्टर बंटाधार" उनको इसी कार्यकाल की कमियों के चलते ही कहती है.
2003 विधानसभा चुनाव
2003 में मध्य प्रदेश में बदलाव हुआ.10 साल की दिग्विजय सरकार को जनता ने मौका नहीं दिया और भाजपा युग मध्य प्रदेश में 2003 से ही आया. बता दें कि 2003 आते-आते मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ अलग हो गया था तो पहले जो 320 सीटें होती थीं, अब वह 230 हो गईं थीं. चुनाव में भाजपा को 230 में से 173 सीटें मिलीं और मुख्यमंत्री बनीं तेज तर्रार हिंदूवादी नेता उमा भारती. हालांकि, उनके पास मुख्यमंत्री की कुर्सी ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकी. दरअसल, एक केस के चलते अदालत ने उमा के खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी कर दिया था. जिसके चलते उनको मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. लेकिन, उमा ऐसे ही नहीं गई उन्होंने अपने खास बाबूलाल गौर को भगवान की शपथ दिलवाकर मुख्यमंत्री का पद सौंपा. हालांकि, गौर भी ज्यादा दिन तक मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में टिक नहीं सके और इसके बाद मध्य प्रदेश में आया शिवराज युग.
2008 विधानसभा चुनाव
2008 में जनता ने एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी को मौका दिया. हालांकि, सीटें कुछ कम हुईं. 2003 के मुकाबले बीजेपी को 30 सीटें कम यानी 143 सीटें मिलीं. वहीं, कांग्रेस पार्टी की सीटें 38 से बढ़कर 71 हो गईं. मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान का कार्यकाल जारी रहा और इन 5 साल में मध्य प्रदेश में बदलाव हुआ और पहले के मुकाबले राज्य में विकास हुआ.
2013 विधानसभा चुनाव
2013 की बात करें तो इस विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश में व्यापम का मुद्दा विपक्ष द्वारा उठाए जा रहा था. हालांकि, विधानसभा चुनाव में इसका खास असर नहीं दिखा क्योंकि पहले के मुकाबले भाजपा की सीटें बढ़ी. जी हां, 2008 में बीजेपी को 143 सीटें मिली थीं, जो 2013 में बढ़कर 163 हो गईं. कांग्रेस की हालत इस चुनाव में और ज्यादा खराब हो गई. कांग्रेस 58 पर आ गई. शानदार जीत के बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान का कार्यकाल जारी रहा.
2018 विधानसभा चुनाव
2018 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो इस चुनाव में कांग्रेस का नारा था कि अब वक्त है बदलाव का और ऐसा हुआ भी कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सरकार बनाई. कमलनाथ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और सिंधिया मुख्यमंत्री बनते-बनते चूक गए. इसके बाद कमलनाथ के कार्यकाल में सिंधिया और कमलनाथ के बीच तनातनी देखी गई. कई लोगों का यह भी कहना था कि मुख्यमंत्री भले ही कमल नाथ थे, लेकिन सरकार दिग्विजय सिंह चला रहे थे और सरकार में सिंधिया का महत्व, दिग्विजय सिंह के कारण बिल्कुल भी नहीं था. इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव होते हैं, जहां सिंधिया अपनी ही लोकसभा सीट गुना हार जाते हैं. इस चुनाव का असर मध्य प्रदेश की राजनीति पर कुछ महीने बाद पड़ा, जब मार्च 2020 के महीने में कोविड महामारी के दौरान मध्य प्रदेश में बड़ा बदलाव हुआ. सिंधिया के साथ कई विधायकों और कुछ मंत्रियों ने पार्टी छोड़ दी. जिसके बाद कमलनाथ की सरकार गिर गई और एक बार फिर शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. कुछ महीनों के बाद उपचुनाव हुए जिसमें कांग्रेस छोड़कर आए कांग्रेस विधायकों ने बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ा. जिसमें बीजेपी को ज्यादा सीटें मिलीं और भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव तक अपनी सरकार चलाई.