बप्पी राय/दंतेवाड़ा: जिले में मौजूद बैलाडीला अपने आप में हजारों रहस्य समेटे हुए है. जिस पर शोध आज पर्यंत-अपर्याप्त है. ज़ी मीडिया की टीम ने बीते दिनों ट्री - फ़र्न का एक बगीचा और उसके सम्मुख मौजूद एक जलप्रपात को दर्शकों के सामने लाने का प्रयास किया है. यू तो ट्री -फर्न की प्रजाति (species of tree fern) के इस तरह के वृक्ष आकाश नगर क्षेत्र में पहले भी देखा गया है. जिसे संरक्षित भी किया गया है. किन्तु इस तरह फ़र्न के वृक्षों का बगीचा पहली बार देखा गया है. हरि घाटी का जलप्रपात किरंदुल नगर से महज 5 km दूरी पर है. जो कि दुनिया और पर्यटकों की नजरों से ओझल है.इस जलप्रपात तक पहुंचने वाले मार्ग में हमारी टीम को दिखा ट्री -फर्न का एक बगीचा.


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ट्री -फ़र्न एक विलुप्त प्रजाति का पौधा होता है. जो कि आज से 3 लाख वर्ष पहले हमारी धरती पर बहुतायत मात्रा में पाई जाती थी और यह फर्न का पौधा शाकाहारी डायनासोर का मुख्य भोजन हुआ करता था. पूर्व में भी बैलाडीला की पहाड़ियों में आकाश नगर के पास भी यह डायनासोर युगीन पौधे पाए गए थे. जिसे नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिसिन एंड प्लांट डिवीजन द्वारा संरक्षित किया गया था. किंतु इतने भारी तादात में फर्न के वृक्षों का यह बगीचा पहली बार हरिघाटी के इस क्षेत्र में देखा गया है. अब जरूरत है इन वृक्षों को संरक्षित करने की.


यह क्षेत्र भारत की नवरत्न कंपनी में से एक कंपनी NMDC के लीज क्षेत्र में मौजूद है.इस कारण भी इस क्षेत्र में सैलानियों के हस्तक्षेप से अछूता था. इस बगीचे से मजह आधा km आगे बढ़ने पर हमें दिखा कि हरि घाटी का विशाल जलप्रपात जो कि 100 फीट से अधिक ऊंचाई से गिरता है. आस-पास में कई गुफाएं भी देखीं.जिसके संबंध में ग्रामीणों ने बताया कि भारी बरसात के समय जंगली जानवर इस गुफा का इस्तेमाल करते हैं. बैलाडीला के पहाड़ों को जलप्रपातों का पहाड़ कहा जाता है. प्रत्येक 5 km के अंतराल में एक जलप्रपात अवश्य दिखेंगे. किन्तु अब यह जलप्रपात हैवी ब्लास्टिंग के कारण विलुप्ति के कागार पर है. इनके संरक्षण की जरूरत है. 



फ़र्न प्रजाति के पौधे कुछ चुनिंदा जगहों में ही पाए जाते हैं
इस संबंध में वन विभाग के अधिकारियों ने बताया कि फ़र्न प्रजाति का इस प्रकार के पौधे अफ्रीका और अमेरिका के जंगलों में कुछ चुनिंदा जगहों में ही पाए जाते हैं. इसके अलावा अन्य कहीं नहीं देखा गया है.केवल बैलाडीला के पहाड़ो में ही इन पौधों को वृक्ष का आकार लेते देखा गया है. इन पौधों को इस आकर तक आने में दो से ढाई हजार वर्ष लग जाते हैं. इन्हें संरक्षित किए जाने के दिशा में प्रयास किया जा रहा है.