पवन दुरगम/बीजापुर: छत्‍तीसगढ़ के बस्‍तर में आज से 161 साल पहले 1859 में पुतकेल के जमींदार नागुल दोरला की अगुवाई में आदिवासियों ने ‘कोई विद्रोह’ का बिगुल फूंका था. जिसमें साल वृक्ष के जंगलों को बचाने के लिए ‘एक साल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर’ के नारे के साथ बीजापुर सहित पूरे छत्तीसगढ़ का आंदोलन बन गया था. इस आंदोलन की गूंज आज भी सुनाई देती है.


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जंगलों को काटे जाने के ख‍िलाफ 1859 ई. में आद‍िवास‍ियों ने क‍िया था विद्रोह 
बस्तर की दोरली की उपभाषा (बोली) में ‘कोई’ का अर्थ होता है वनों और पहाड़ों में रहने वाली आदिवासी प्रजा. पुराने समय से वन बस्तर रियासत का महत्वपूर्ण संसाधन रहा है. दक्षिण बस्तर अंग्रेजों की शोषण व गलत वन नीति से आदिवासी काफी असन्तुष्ट थे. फोतकेल के जमींदार नागुल दोरला ने भोपालपट्टनम् के जमींदार राम भोई और भेजी के जमींदार जुग्गाराजू को अपने पक्ष में कर अंग्रेजों द्वारा साल वृक्षों के काटे जाने के खिलाफ 1859 ई. में विद्रोह कर दिया. विद्रोही जमींदारों और आदिवासी जनता ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि अब बस्तर के एक भी साल वृक्ष को काटने नहीं दिया जाएगा, और अपने इस निर्णय की सूचना उन्होंने अंग्रेजों एवं हैदराबाद के ब्रिटिश ठेकेदारों को दी.


आरा चलाने वालों का सिर काट डाला
ब्रिटिश सरकार ने नागुल दोरला और उनके समर्थकों के निर्णय को अपनी प्रभुसत्ता को चुनौती मानकर वृक्षों की कटाई करने वाले मजदूरों की रक्षा करने के लिए बन्दूकधारी सिपाही भेजे. दक्षिण बस्तर के आदिवासियों को जब यह खबर लगी, तो उन्होंने जलती हुई मशालों को लेकर अंग्रेजों के लकड़ी के टालों को जला दिया और आरा चलाने वालों का सिर काट डाला. आन्दोलनकारियों ने ‘एक साल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर’ का नारा दिया. इस जनआन्दोलन से हैदराबाद का निजाम और अंग्रेज घबरा उठे. आखिरकार निजाम और अंग्रेजों ने नागुल दोरला और उसके साथियों के साथ समझौता किया. सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर कैप्टन सी. ग्लासफोर्ड ने विद्रोहियों की भयानकता को देखते हुए अपनी हार मान ली और बस्तर में लकड़ी ठेकेदारों की प्रथा को समाप्त कर दिया.


यह विद्रोह आज के शिक्षित समाज के लिए एक प्रेरणा
बस्तर के वनों को समय से पूर्व कटने से बचाने का यह विद्रोह बस्तर का ही नहीं वरन् छत्तीसगढ़ का अपने किस्म का अनोखा विद्रोह था. इस विद्रोह के पीछे आदिवासियों की आटविक मानसिकता का परिचय मिलता है. सालद्वीप के मूल प्रजाति साल की रक्षा के लिए सभ्य समाज से दूर कहे जाने वाले आदिवासियों ने जो अनोखा संघर्ष किया है. वह उनके पर्यावरण के प्रति जागरुकता को दर्शाता है. यह विद्रोह आज के शिक्षित समाज के लिए एक प्रेरणा है. इस विद्रोह में जनजातियों की वैचारिक दृढ़ता के दर्शन होते हैं.


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