रायपुर: कहते हैं सियासत में न कोई दोस्त होता है और न ही दुश्मन. राजनीतिक महत्वाकांक्षा में दोस्त कब दुश्मन बन जाए और दुश्मन कब दोस्त बन जाए पता ही नहीं चलता. कुछ ऐसी ही कहानी अजीत जोगी और दिग्विजय सिंह के बीच की है. 


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राजीव गांधी के कहने पर दिग्विजय सिंह है उन्हें राजनीति में लेकर आए. उसके बाद काफी सालों तक साथ रहे, फिर मनमुटाव हुआ. एक दौर ऐसा भी आया जब जोगी और दिग्विजय एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करने लगे. 
दरअसल, दिग्विजय सिंह को राजनीति में एक अच्छा दोस्त मिला था. इनकी दोस्ती राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बनती. अजीत जोगी सीधी कलेक्टर थे तो उस वक्त उनकी नजदीकियां अर्जुन सिंह से भी बढ़ी थीं. इसी के चलते वे अर्जुन सिंह के करीबी भी रहे. 


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उधर, राम मंदिर लहर के चलते 1990 में मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी. सुंदर लाल पटवा मुख्यमंत्री बने. वे दो साल मुख्यमंत्री रहे. इस बीच दिग्विजय और जोगी दोनों एक दूसरे को मजबूत करते रहे. और 1993 में कांग्रेस ने फिर बहुमत हासिल किया. दिग्विजय ने खुद को मुख्यमंत्री के तौर पर आगे बढ़ाया. अर्जुन सिंह के इशारे पर जोगी ने भी दावेदारी पेश कर दी थी.


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अर्जुन सिंह की शह पर जोगी ने खुद को अति पिछड़ी और आदिवासियों का नेता मान लिया. वे यहां तक समझ गए मेरी ताकत दिग्विजय से ज्यादा है. अर्जुन सिंह शायद समझ चुके थे कि जोगी और दिग्विजय की जोड़ी मुश्किल पैदा कर सकती है. तो उन्होंने जोगी को शह दे दी. यहीं से जोगी की महत्वाकांक्षा तेजी से जागी.


हालांकि अर्जुन सिंह अपनी चाल में कामयाब भी हो गए. जोगी की दावेदारी से दिग्विजय सिंह खुद को कमजोर भी समझ बैठे. जोगी की दावेदारी से प्रदेश के दिग्गज नेता भी शह-मात का खेल खेलने लगे. हालांकि जोगी उनके सामने ज्यादा दिन तक टिक नहीं सके. लेकिन उनकी दोस्ती में अब खटास आ चुकी थी. ये दुश्मनी बहुत लंबी चली. दिग्विजय और उनकी दुश्मनी में जोगी का साथ उनके कई समर्थकों ने छोड़ दिया.


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सात साल बाद छत्तीसगढ़ राज्य अलग होने वाला था. कांग्रेस को आदिवासी चेहरे की तलाश थी. जोगी पहले ही रेस में आगे थे. दिग्विजिय ने आलाकमान के आगे जोगी का नाम आगे बढ़ाया. दिल्ली से अजीत जोगी के नाम पर मुहर लगी. जोगी छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बने. इनकी दोस्ती की दरार कम हुई, लेकिन जोगी ने जनता कांग्रेस छत्तीगढ़ (जे) बनाकर अपना रास्ता अलग कर लिया था.