छत्तीसगढ़ सहित पांच राज्यों में चुनाव की प्रक्रिया कल पूरी हो जाएगी. आज राजनीति में जनता की शिकायत रहती है कि नेता उनके लिए काम नहीं करते, लेकिन ये कहानी छत्तीसगढ़ के एक ऐसे राजा की है, जिन्होंने आजादी के बाद चुनाव लड़ा, जीत हासिल की और फिर अपनी जनता के हक के लिए संघर्ष करते हुए अपने ही महल की सीढ़ियों पर पुलिस की गोलियों से मारे गए. बात हो रही है बस्तर के राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की. आजादी से पहले बस्तर इस क्षेत्र की सबसे बड़ी रियासत थी.


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उन्हें एक ऐसे हालात में ब्रिटिश सरकार ने बस्तर का महाराज बनाया, जब उनकी मां का निधन हो गया था और उनके पिता को ब्रिटिश सरकार ने बस्तर से निर्वासित कर दिया था. उनका पालन अंग्रेजी माहौल में हुआ, गोरी नर्स और अंग्रेज गार्जियन उनकी देखरेख करते थे. ब्रिटिश सरकार की कोशिश थी कि उन्हें अंग्रेजों का वफादार बनाया जाए और बस्तर के आदिवासियों पर राजघराने के प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए वहां की खनिज संपदा का दोहन किया जाए.


आदिवासियों के लिए संघर्ष 
प्रवीरचंद्र भंजदेव की एक आदत थी. अन्याय उन्हें बर्दाश्त नहीं था, चाहें वो किसी पर हो. नतीजतन बस्तर के लोगों के लिए वे भगवान बन गए, जबकि अंग्रेज सरकार उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी. आजादी के बाद उन्होंने अपनी रियासत का भारत में विलय कर दिया और बस्तर जिला आदिवासी किसान-मजदूर सेवा संघ की स्थापना की.


प्रवीरचंद्र भुंजदेव ने आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष किया. वे कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने, हालांकि उन्होंने सरकार द्वारा वन और खनिज संपदा के दोहन के खिलाफ आदिवासियों के प्रदर्शन को राजनीतिक समर्थन दिया. इस कारण केंद्र सरकार उनसे खफा हो गई. 1959 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. इसके विरोध में आदिवासियों ने प्रदर्शन किया, जिसमें करीब एक दर्जन आदिवासी मारे गए. 1961 उनके रिहा होने के बाद बस्तर में आदिवासी आंदोलन मुखर होने लगे.


कैसे खुली माओवाद की राह? 
1962 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो बस्तर की दस में से आठ सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा, जबकि प्रवीर चंद्र भंजदेव के प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की. इसके बाद बस्तर में आदिवासी आंदोलन और तेज हो गए. 1966 में पुलिस ने कुछ संदिग्धों की तलाश के लिए राजभवन को घेर लिया. इसके चलते राजभवन में पुलिस और आदिवासियों के बीच संघर्ष हुआ और पुलिस की गोलीबारी में कई आदिवासियों की मौत हुए. साथ ही पुलिस की गोली से प्रवीरचंद्र भंजदेव भी मारे गए.


आदिवासी प्रवीरचंद्र भंजदेव को भगवान मानते थे. पुलिस की गोलियों से उनकी मौत होने पर आदिवासियों का सरकार से भरोसा उठ गया और देखते देखते बस्तर माओवाद का गढ़ बन गया.