ग्राउंड रिपोर्टः चंबल में जारी है खोपड़ी और झोपड़ी की जंग
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में नकद नारायण नोटों के रूप में ही नहीं आ रहे. वे उन छोटी पर्चियों के रूप में भी आ रहे हैं जो मदिरा की सप्लाई की हुंडियां जैसी बन गई हैं.
ग्वालियरः देश की सबसे तेज गतिमान एक्सप्रेस सरपट भागी जा रही है. दिल्ली से ग्वालियर का सफर यह ट्रेन महज 3 घंटे में पूरा कर लेगी. और करे भी क्यों नहीं, 30 साल पहले इसी ग्वालियर शहर के नेता माधवराव सिंधिया ने उस जमाने में देश की सबसे तेज शताब्दी ट्रेन अपने शहर के लिए चलाई थी. वह ट्रेन अभी दो घंटे पहले ही चंबल के इस पुल से गुजरी होगी. और अब गतिमान चंबल के उसी पुल को थरथरा रही है. चंबल यानी मध्य भारत की सबसे साफ-सुथरी नदी, चंबल यानी ढूहों की धरती, चंबल यानी बीहड़ के बागी, चंबल यानी मध्य प्रदेश का सियासी मुकद्दर.
चंबल की इसी धरती पर अब विधानसभा चुनाव है. सत्ताधारी बीजेपी के लिए तो यह इलाका कुछ ज्यादा ही खास है. ग्वालियर संभाग के आठ जिलों में उसके पास आधा दर्जन मंत्री हैं. रुस्तम सिंह, नरोत्तम मिश्रा, लाल सिंह आर्य, नारायण सिंह कुशवाह, जयभान सिंह पवैया और यशोधरा राजे सब ग्वालियर संभाग की 34 में से किसी न किसी सीट से विधायक हैं. राज्य सरकार के इन मंत्रियों के अलावा केंद्र सरकार के कद्दावर मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी इसी इलाके से आते हैं. बीजेपी के पितृपुरुष पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तो खैर इस शहर के थे ही. बीजेपी का गढ़ होने के लिए और क्या चाहिए.
इसीलिए कांग्रेस को भी अगर बीजेपी का दुर्ग भेदना है तो लड़ाई यहीं से शुरू करनी है. क्योंकि पार्टी की चुनाव प्रचार कमेटी के हेड ज्योतिरादित्य सिंधिया खुद इसी इलाके से सांसद हैं. इस चुनाव में सिंधिया के असर को देखना हो तो कांग्रेस के प्रचार अभियान पर मत जाइये. कांग्रेस ने उन्हें अपना मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया है. सिंधिया की धमक भाजपा के प्रचार में दिखाई दे रही है.
भाजपा ने अपने प्रचार अभियान की थीम बनाई है: बहुत हुआ महाराज, हमारा नेता शिवराज’. भाजपा के इस विज्ञापन में बताए जा रहे महाराज कोई और नहीं सिंधिया राजघराने के वारिस ज्योतिरादित्य सिंधिया ही हैं. इलाके के प्रमुख अखबार देखें तो भारतीय जनता पार्टी विज्ञापन के मामले में बहुत आगे है. 26 नवंबर को स्थानीय अखबारों में फ्रंट पेज और बैक पेज पर भाजपा के फुल पेज और ऐसे ही रंगीन विज्ञापन थे, जबकि कांग्रेस का एक छोटा सा विज्ञापन अखबार के भीतर के पन्नों पर था.
विज्ञापनों के आकार का यह अंतर दोनों पार्टियों की माली हालत के फर्क को दिखाता है. लेकिन प्रत्याशियों की माली हालत को पार्टी की माली हालत से आंकना गलत होगा. इस मामले में दोनों तरफ मालदार लोग हैं. ग्वालियर शहर की सड़कों और घरों पर दोनों पार्टियों के झंडों की भरमार है. दोनों के कार्यकर्ता जोश में घूम रहे हैं और दोनों को अपनी जीत का भरोसा है.
और भरोसा सिर्फ अपने नाम या काम का नहीं है, गुपचुप दिए जाने वाले दाम का भी है. इसकी बानगी सेवा नगर कॉलोनी के पास एक सब्जी वाले से हुए दिलचस्प संवाद में मिली. उसने अपने एक नियमति ग्राहक से कहा कि वह 28 तारीख को दुकान नहीं खोलेगा. ग्राहक ने कहा कि वोटिंग के दिन सब्जी बेचना मना है क्या. सब्जीवाले ने कहा, नहीं ऐसा तो नहीं है. लेकिन उस दिन के लिए 500-500 रुपये प्रति वोट के हिसाब से उसे पेमेंट हो गया है, इसलिए उस दिन वह दुकान नहीं खोलेगा.
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में नकद नारायण नोटों के रूप में ही नहीं आ रहे. वे उन छोटी पर्चियों के रूप में भी आ रहे हैं जो मदिरा की सप्लाई की हुंडियां जैसी बन गई हैं. कई प्रत्याशियों ने पर्चियां छपा रखी हैं. ...क्वार्टर दें. इसमें खाली स्थान पर देने वाले की क्षमता के हिसाब से संख्या भर दी जाती है. क्वार्टर सप्लाई वाली ये पर्चियां सिर्फ शराब की सप्लाई तक सीमित नहीं हैं, कुछ और अनैतिक चीजों की सप्लाई के लिए भी क्वार्टर का कोडवर्ड इस्तेमाल हो रहा है.
कोडवर्ड की दुनिया शराब और शबाब से आगे जाकर सोशल मीडिया की रणनीति तक जा रही है. एक प्रमुख पार्टी ने अपनी सोशल मीडिया टीम को कोड दिया है: खोपड़ी और झोपड़ी. खोपड़ी का मतलब है शहरी मध्यमवर्ग और झोपड़ी का मतलब है समाज का गरीब तबका. इस पार्टी के पास न सिर्फ वोटर के फोन नंबरों का पूरा हिसाब है, बल्कि उनके आर्थिक वर्गीकरण का भी खाका है. वह अपने संदेश वर्ग और जाति के हिसाब से बना रही है और उसी के हिसाब से वोटर को भेज रही है.
हाल यह है कि एक-एक मतदाता को उनके नाम से फोन किया जा रहा है. उसमें पार्टी का मौजूदा विधायक मतदाता को वोट डालने की दावत दे रहा, भविष्य के वादे कर रहा है और पुरानी भूल-चूक लेनी देनी के लिए माफी मांग रहा है. अपने नाम के संबोधन के साथ आने वाले फोन वोटर को चौंकाते तो हैं, लेकिन उसे खुद को गण्यमान मानने का मुगालता भी दे रहे हैं.
लेकिन वही मतदाता अपनी इस पूछ परख से तब परेशान हो जा रहा है, जब प्रत्याशी के समर्थक झुंड बनाकर उसके घर वोट मांगने आते हैं और इसी बीच प्रत्याशी के प्रचार स्टिकर को वोटर की कार या बाइक पर चिपका देते हैं.
लेकिन सवाल तो यह है कि वोटर अपनी तर्जनी किस के नाम के आगे चिपकाता है. क्योंकि दोनों पार्टियां अपने काम के आधार पर वोट मांगने की जगह गुस्से के आधार पर वोट मांगना चाहती हैं. कांग्रेस की थीम है ‘मध्य प्रदेश को गुस्सा आता है’ तो भाजपा की थीम है ‘कांग्रेस को गुस्सा आता है, क्योंकि शिवराज काम करता है’. दोनों तरफ से गुस्से की मार्केटिंग है.
लेकिन एक तीसरा गुस्सा वोटर का भी है. जो इस बार सामने आने वाला है. यह गुस्सा ग्वालियर-चंबल के राजनैतिक समीकरण को निश्चित तौर पर बदलने वाला है. बहुत से दुर्ग ढह सकते हैं और महल की दीवारों में दरारें आ सकती हैं. जो खुद को अपराजेय समझते थे, वे एक-एक पार्षद की चिरौरी करते घूम रहे हैं. जो बागी हैं, वह जीतने के लिए नहीं, अपने पुराने दोस्तों को पटखनी देने की जेहाद पर निकले हैं. सपा और बसपा सिफ कांग्रेस को नुकसान नहीं पहुंचा रही हैं, वे भाजपा के वोट में भी सेंध लगा रही हैं.
समय गतिमान है और चंबल शांत. कुछ न कुछ बदलने वाला है, यह तय है. सवाल बस इतना सा है कि बदलाव ज्यादा होगा या कम.