नई दिल्ली: भारत को आजादी दिलाने की लड़ाई बहुत लंबे समय तक चलती रही, और तब जाकर 1947 में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति मिली. भारत के नागरिकों पर ब्रिटिश सरकार ने कई अत्याचार करे, जिसके चलते समय-समय पर विद्रोह की जिंगारी भारत के हर कोने-कोने से उठने लगी. अब आजादी के 75 साल पूरे होने पर भारत आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. भारत की आजादी के लिए मध्यप्रदेश  के वीर स्वतंत्रता सेनानियों ने जान तक दे दी. इन स्वतंत्रता सेनानियों ने कई आंदोलनों को चलाया ताकि अंग्रेजों के अत्याचार को रोका जा सके. तो चलिए जानते है उन स्वतंत्रता सेनानियों को जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपने प्राण तक त्याग दिए. 


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1. चंद्रशेखर आजाद
चंद्रशेखर आजाद कहते थे कि ''दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे.'' एक वक्त था जब उनके इस नारे को हर युवा दोहराता था. चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय क्रांति के नायक रहे. उनके अंदर देशभक्ति का जज्बा मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाबरा (जो अब चंद्रशेखर आजाद नगर) से जागा था. देश की आजादी के लिए उस समय अलग-अलग संगठन काम कर रहे थे, जिसमें अहिंसात्मक तौर पर अंग्रेजों का विरोध भी शामिल था. लेकिन कुछ सगंठनों का मानना था कि अंग्रेजों को उसी की भाषा में जवाब जेना चाहिए. तब राम प्रसाद बिस्मिल और शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेश चन्द्र चटर्जी द्वारा 1924 में गठित हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से आजाद जुड़ गए.



काकोरी कांड में लिया पहली बार भाग
रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ जुड़ने के बाद चंद्रशेखर ने रामप्रसाद बिस्मिल के लीडरशीप में काकोरी कांड (1925) में पहली बार सक्रिय रूप से भाग लिया. इसके बाद चंद्रशेखर ने 1928 में लाहौर में ब्रिटिश पुलिस ऑफिसर एसपी सॉन्डर्स को गोली मारकर लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया.


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खुद को मारी गोली
 सांडर्स की हत्या हुई तो ब्रिटिश सरकार इस क्रांतिकारी की तलाश में जुट गई. तब एक मुकबिर ने जानकारी दी कि आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में आजाद छिपे हुए हैं. तब ब्रिटिश पुलिस ने आजाद को चारों तरफ से घेर लिया लेकिन उन्होंने कसम खाई थी कि कोई फिरंगी उनकी जान नहीं लेगा. जब उन्हें अहसास हुआ कि अब उनकी जिंदगी में कुछ पल ही बचे हैं तो खुद को गोली मारकर भारत माता की आजादी के लिए शहीद हो गए.


2. तात्या टोपे
देश में आजादी का बिगुल फूंकने वालों में से एक नाम तात्या टोपे का भी है, जिन्होंने देश में न सिर्फ 1857 में स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी बल्कि पूरे देश में आजादी के लिए जंग छेड़ दी. उन्होंने देश की जनता को ये बताया कि आजादी क्या होती है, उसे हासिल करना कितना जरूरी है. बता दें कि स्वतंत्रता संग्राम के महानायक तात्या टोपे का जन्म 1814 में येवला (महाराष्ट्र) ग्राम में हुआ था. लेकिन 1859 में तात्या टोपे को शिवपुरी (मध्यप्रदेश) में फांसी दी गई थी. उन्हें ये फांसी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह और उनके खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए दी गई थी. फांसी से पहले उन्हें शिवपुरी में तीन दिन बंद रखा गया.



अंग्रेजों को गुना में हराया
क्रांतिकारी तात्या टोपे अंग्रेजों को खदेड़ने  के लिए 1857 क्रांति के आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे. वे राघौगढ़ के समीप एक पहाड़ी पर बने गांव से गुजर रहे थे. वहां अंग्रेजों की फौज से उनकी मुठभेड़ हुई थी. तात्या टोपे ने अंग्रेजी फौज का डटकर मुकाबला किया और अंतत: उसे हरा दिया. तात्या टोपे ने गुना जिले के विजयपुर गांव में तात्या टोपे ने अंग्रेजी फौज को हराकर जनरल लेफ्टिनेंट को मार गिराया था. आपको बता दें कि आज भी विजयपुर गांव में जनरल लेफ्टिनेंट की 158 साल पुरानी अष्टधातु की कब्र बनी हुई है.


3. टंट्या मामा भील (इंडियन रॉबिन हुड)
देश के कई क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपने अपने तरीके से जंग लड़ी थी. अंग्रेज़ों से जंग लड़ने वाले एक क्रांतिकारी 'टंट्या भील' भी थे. उन्होंने अंग्रेजों की शोषण नीति के विरुद्ध आवाज उठाई और गरीब आदिवासियों के लिए मसीहा बनकर उभरे. वह केवल वीरता के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक कार्यो में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के लिए जाने जाते थे. इतिहासकारों की मानें तो वर्ष 1842 खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडदा में भाऊसिंह के घर टंट्या का जन्म हुआ था. . पिता ने टंट्या को लाठी-गोफन व तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण दिया. टंट्या ने धर्नुविद्या के साथ-साथ् लाठी चलाने और गोफन कला में भी दक्षता हासिल कर ली. युवावस्था में अंग्रेजों के सहयोगी साहूकारों की प्रताड़ना से तंग आकर वह अपने साथियों के साथ जंगल में कूद गया. टंट्या मामा भील ने आखिरी सांस तक अंग्रेजी सत्ता की ईंट से ईंट बजाने की मुहिम जारी रखी थी.  अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह करने के बावजूद 'टंट्या मामा' के कारनामों के चलते अंग्रेज़ों ने ही उन्हें 'इंडियन रॉबिन हुड' नाम दिया था.



पातालपानी रेलवे स्टेशन पर फांसी
साल 1857 से लेकर 1889 तक टंट्या भील ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. वह अपनी गुरिल्ला युद्ध नीति के तहत अंग्रेजों पर हमला करने में माहिर थे. लेकिन अपने ही बीच के कुछ लोगों की मिलीभगत के कारण वह अंग्रेजों की पकड़ में आ गए और चार दिसंबर 1889 को उन्हें फांसी दे दी गई. फांसी के बाद अंग्रेजों ने उनके शव को इंदौर के निकट खंडवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी रेलवे स्टेशन के पास फेंक दिया। इसी जगह को टंट्या की समाधि स्थल माना जाता है. 



4.  वीरांगना रानी अवंती बाई   
रानी अवंती बाई का जन्म मध्यप्रदेश में 16 अगस्त 1831 को मनकेहणी जिला सिवनी के जमींदार राव जुझार सिंह के यहां इस वीर बालिका का जन्म हुआ था. जुझार सिंह लोधी राजपूत समुदाय के शासक थे. रानी अवंती बाई ने अपने बचपन से ही तलवारबाजी, घुड़सवारी इत्यादि कलाएं सीख ली थीं. बाल्यकाल से ही वीर व साहसी इस वीरांगना की जैसे-जैसे आयु बढ़ती गई उनकी वीरता और शौर्य की चर्चाएं भी बढ़ने लगी. विवाह के बाद रानी अवंती बाई सिवनी छोड़ रामगढ़ की हो गई. लेकिन कुछ साल बाद उनके पति का देहांत हो गया. 



जब पूरे देश में लार्ड डलहौजी हड़प नीति के जरिये तेजी से साम्राज्य विस्तार कर रहा था. उसकी कुदृष्टि अब रानी के रामगढ़ पर भी थी लेकिन रानी किसी भी कीमत पर अपनी स्वाधीनता का सौदा नहीं करना चाहती थी लेकिन अपनी हड़प नीति से कानपुर, झांसी, नागपुर, सतारा समेत कई अन्य रियासतों को हड़प चुके डलहौजी ने अब रामगढ़ को अपना निशाना बनाया और पूरी रियासत को "कोर्ट ऑफ वार्ड्स" के अधीन कर लिया. अब रामगढ़ का राजपरिवार अंग्रेजी सरकार की पेंशन पर आश्रित हो गया था. फिर 1857 की क्रांति में, जब पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का बिगुल फूंक चुका था. अंग्रेजों को उखाड़ने के लिए रानी अवंती बाई ने रेवांचल में क्रांति की शुरुआत की और बतौर भारत की पहली महिला क्रांतिकारी अंग्रेजों के विरुद्ध ऐतिहासिक निर्णायक युद्धों में भाग लिया. रानी ने एक-एक करके मंडला, घुघरी, रामनगर, बिछिया समेत कई रियासतों से अंग्रेजों को निकाल भगाया.  लगातार युद्धों के बाद थकी हुई सेना और सशस्त्रो व संसाधनों के अभाव के बीच अंग्रेजों ने फिर दुगनी ताकत से रानी पर हमला किया. रानी इस समय मंडला पर शासन कर रही थी जहां से उन्हें  बाहर निकलकर देवहारगढ़ की पहाड़ियों में ढेरा डालना पड़ा. रानी के जीते दुर्गों में लुटपाट के बाद अंग्रेजी सेना ने रानी के पास आत्मसमर्पण का प्रस्ताव भेजा जिस पर मां भारती की इस वीर बेटी की प्रतिक्रिया दी कि - "लड़ते-लड़ते बेशक मरना पड़े लेकिन अंग्रेजों के भार से दबूंगी नहीं" इसके बाद अंग्रेजी सेना ने पूरी पहाड़ी को घेर कर रानी की सेना पर हमला बोल दिया. 


तलवार से खुद को मार लिया
 20 मार्च, 1858 का दिन था. युद्ध में कहने को रानी अवंती बाई की सेना मुट्ठी भर थी लेकिन इन वीरों ने अंग्रेजी सेना को पानी पिला दिया. इस शेरनी की सेना के कई जांबाज सैनिक घायल हो चुके थे, गोली लगने स्वयं यह भी बुरी तरह घायल हो चुकी थी. इस मौके का कायर अंग्रेजी सेना ने फायदा उठाना चाहा लेकिन वो कुछ करते इसके पहले ही वीरांगना रानी अवंती बाई ने अपने अंगरक्षक की तलवार छीनकर स्वयं की जीवन लीला समाप्त कर ली.