नीरज जैन/अशोकनगरः हमारा देश आजाद हुआ, रियासतें खत्म हुई, संविधान बना लेकिन मध्य प्रदेश के अशोकनगनर (ashoknagar news) जिले के सफाईकर्मियों (cleaners) की दशा नहीं बदली. एक तरफ सरकार जहां बालिकाओं की जिंदगी बेहतर करने के लिए कई अभियान चला रही है. वहीं अशोकनगर जिले में नाबालिक बेटियों की दशा देख आप के आंखें नम हो जाएगी. बता दें कि बीते 6 माह से 12 वषीर्य नीलम रोजाना अपनी आठ वर्षीय फुफेरी बहन के साथ कस्बे के करीब बीस घरों में सफाई करती है. 


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12 और 8 वर्षीय नन्ही बच्चियों के काम में घरों के सामने गली में झाड़ू लगाना, नाली साफ करना और कुछ घरों के टॉयलेट साफ करना शामिल है. जो कहीं ना कहीं अशोकनगर जिले से आई ऐसी तस्वीर कहीं ना कहीं सरकारी योजनाओं पर सवाल खड़े करता है.


बच्चियों की मजबूरी
बता दें कि सफाई के बदले में इन बच्चियों को रोजाना हर घर से एक रोटी और माहवार तीस रुपए मिलते हैं. नीलम का यह काम तीन परिवारों को रोजी दे रहा है. कभी-कभी उसके साथ उसकी बुआ भी सफाई करने आती हैं. पहले यह काम नीलम की दादी, मां और चाची भी करती थीं. लेकिन करीब 6 माह पहले नीलम के पिता ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. इसके बाद से दादी ने बिस्तर पकड़ लिया और एक रीति जिसमें पति की मौत के बाद पत्नी सवा साल तक घर से बाहर नहीं जाती, इसका पालन करने के लिए मां और चाची के हिस्से का काम इस मासूम को पढ़ने-लिखने की उम्र में करना पड़ रहा है.


जानिए क्या कहा नीलम ने
नीलम से जब पूछा गया कि तुम्हारी उम्र क्या है, तो उसे पता नहीं था. जब पूछा कि कौन सी कक्षा में पढ़ती हो तो उसने बताया क्लास 6th में थी. अबकी साल क्लास 7th में आ जाऊंगी. जब पूछा गया कि यह काम अच्छा लगता है तो उसने कहा हमारे घर में सब लोग यही काम करते हैं. उसने बताया कि जो रोटी वह लेकर जा रही है, वह तीन घरों में बंट जाएंगी. इन्हीं रोटियों से तीन परिवार अपना पेट भरते हैं. रोटी कम पड़ जाती हैं तो सुबह बना लेते हैं. तीन परिवारों में एक परिवार नीलम के बुआ-फूफा का है, एक चाचा-चाची का एक और स्वंय का. जिसमें दादा-दादी भी साथ रहते हैं. नीलम अपने माता-पिता की दूसरी संतान है, उससे बड़ा एक भाई है. जिसकी उम्र 15 वर्ष है और एक छोटी बहन है जिसकी उम्र 9 वर्ष है. भाई भी दुकानों के सामने झाड़ू लगाता है. जिसे दुकानों से तीस रुपए से लेकर पचास रुपए तक मिलते हैं. पहले यह काम नीलम का पिता करता था.


पांच वर्ष पहले मिली है मैला ढोने से मुक्ति
कस्बे में महज पांच वर्ष पहले तक सिर पर मैला ढोने की अमानवीय व घृणित प्रथा कई दषकों से बदस्तूर चल रही थी. तत्समय एक समाचार प्रकाषित होने के बाद कलेक्टर बाबूसिंह जामौद एवं एसडीएम सुमनलता माहौर ने सख्ती दिखाते हुए कस्बे के एक दजर्न से अधिक सुलभ शौचालय तुड़वाए थे और इस घृणित प्रथा से करीब आधा दजर्न महिलाओं को मुक्ति दिलाई थी.


70 रुपए रोजाना से कम है सफाईकमिर्यों का वेतन
नगरीय निकायों व अन्य बड़ी ग्राम पंचायतों की तरह कस्बे में सफाई व्यवस्था में नहीं है. यहां पंचायत के पास केवल दो सफाईकर्मी थे. जिनकी संख्या तीन वर्ष पहले बढ़ाकर चार की गई और करीब आठ माह पहले इनकी संख्या बढ़ाकर सात कर दी गई है. पहले सफाईकमिर्यों को बारह सौ रुपए महीना वेतन मिलता था, जिसे अब बढ़ाकर दो हजार रुपए कर दिया है. किंतु सफाईकमिर्यों का कहना है कि वेतन इतना कम है कि पुरानी प्रथा को छोड़ दें तो खाने के लाले पड़ जाएंगे.


पंचायत में इच्छाशक्ति की कमी से जारी है रियासत के जमाने की कुप्रथा
कस्बे में आठ सौ रहवासी भवन हैं, तीन सौ से अधिक व्यवसायिक प्रतिष्ठान सहित दो दजर्न से अधिक संस्थाएं व कायार्लय हैं. यदि योजनाबद्ध ढंग से करप्रणाली विकसित की जाए तो न केवल सफाईकमिर्यों को इन अमानवीय व घृणित प्रथाओं से मुक्ति मिल जाएगी. बल्कि उन्हें सम्मानजनक वेतन भी मिलने लगेगा. जिससे उनकी आजीविका का प्रश्न हल हो जाएगा. कस्बे में करीब डेढ़ दजर्न परिवार परंपरागत रूप से सफाईकमिर्यों का काम करते हैं. जिनके घरों में वंषानुगत सफाई करने की प्रथा रियासत के जमाने से चली आ रही है। रियासत के जमाने में प्रत्येक सफाईकर्मी परिवार के घर बंधे हुए थे, जो आज तक जारी हैं.


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