गुरुपूर्णिमा: गालियों से भक्तों को आर्शीवाद देते थे दादा, एक हाथ में बंधा रहता था हंसिया
मध्य प्रदेश के मंडला में दादा धनीराम के प्रति लोगों की आस्था बहुत ज्यादा रही है. उनके कई चमत्कारों से लोग प्रभावित रहे हैं. उनकी गालियां लोगों के लिए आर्शीवाद होती थीं. ऐसे ही दादा की समाधि पर गुरुपूर्णिमा के अवसर पर भक्त हजारों की संख्या में आए.
विमलेश मिश्रा/मंडला: भगवान शिव और नर्मदा भक्त दादा धनीराम के आश्रम में बुधवार को गुरुपूर्णिमा पर्व की धूम है. दादा के दरबार मे आज न केवल मण्डला जिला बल्कि अन्य जिलों व प्रांतों से आये उनके भक्तों का जमावड़ा है.
अचानक से गायब हो गए थे दादा
कहा जाता है कि गृहस्थ से औघड़ सन्त बने दादा धनीराम जिले के आबकारी विभाग में पदस्थ थे जो सन 1920 के दशक में अचानक गायब हो गए. दादा की खोज खबर ली गई, तब भी नहीं मिले और जब दोबारा 1927 को दिखे तो एक औघड़ संत के रूप में दिखे.
गालियों से देते थे आर्शीवाद
दादा जहां बहुत ही हठी थे, वहीं उनकी गालियां लोगों के लिए आशीर्वाद होती थी. दादा ने अनेक चमत्कार किए जिससे वे जिले के महान संत हुए जिनके अनुयायी आज भी उन्हें पूरी श्रद्धा और विश्वास से मानते हैं.
औघड़दानी भगवान भोलेनाथ का आशीर्वाद था प्राप्त
नर्मदा के किनारे बना दादा धनीराम महाराज का आश्रम कभी एक छोटी सी कुटिया हुआ करता था. इमली का पेड़ और पेड़ के नीचे कुत्तों के साथ खाते - खेलते दादा धनीराम कभी नही लगते थे कि वे एक महान संत हैं. दादा औघड़ थे इसलिए उन्हें औघड़दानी भगवान भोलेनाथ का आशीर्वाद प्राप्त था. दादा मां नर्मदा के परम भक्त थे. लोगों के रोग, दुख तकलीफ हरना दादा का काम था. दादा की भद्दी ओर अश्लील गालियां भक्तों के लिए आशीर्वाद थी.बताते हैं कि दादा जिसे गरिया दे, समझो वह धन्य हो गया.
बहुत ही हठी और तपस्वी थे दादा
बताते हैं कि दादा धनीराम बहुत ही तपस्वी और हठी थे. यही वजह है कि उनके एक हाथ में हमेशा हंसिया बंधा रहता था. दादा का यह तप था. उनका मानना था कि वे जीवनपर्यंत जो भी काम करेंगे, एक हाथ से ही करेंगे और इसलिए उन्होंने अपने एक हाथ में हंसिया बांध रखा था.
मानव सेवा में अपना जीवन किया समर्पित
दादा धनीराम मंडला ही नहीं बल्कि प्रदेश के अन्य जिलों व अन्य प्रांतों में भी प्रसिद्ध थे. दादा के चमत्कार से लोग उनसे प्रभावित थे. जो समय-समय पर आज भी समाधिस्थल पर आते हैंं.कुल मिलाकर दादा धनीराम एक महान तपस्वी और औघड़ संत थे जिन्होंने जन कल्याण और मानव सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया. यही वजह है कि दादा के भक्त आज भी समाधिस्थल पर आते हैं.
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