Kawad Yatra History: हिंदू धर्म में सावन के महीने में भगवान शिव की पूजा, सोमवार के व्रत और कांवड़ियों के शिवलिंग के जलाभिषेक का काफी विशेष महत्व है. देश के कई राज्यों में कांवड़िए बम-बम भोले, हर-हर महादेव, बोल-बम जैसे जयकारे लगाते कांवड़ लटकाए दिखेंगे. भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए सावन का महीना काफी उत्तम माना जाता है. सावन में कई भक्त कावड़ यात्रा पर जाते हैं, तो चलिए जानते हैं इसका महत्व.


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सबसे पहले जानिए कावड़ यात्रा का महत्व
हिंदू धर्म की मान्यता के मुताबिक चतुर्मास में पड़ने वाले श्रावण के महीने में कांवड़ यात्रा का बड़ा महत्व है. माना जाता है कि शिव को आसानी से खुश किया जा सकता है. उन्हें केवल एक लोटा जल चढ़ा कर प्रसन्न किया जा सकता है. वहीं माना ये भी जाता है कि शिव बहुत जल्दी क्रोधित भी हो जाते हैं. लिहाजा मान्यता है कि कांवड़ यात्रा के दौरान मांस-मदिरा, तामसिक भोजन नहीं करना चाहिए. साथ ही कांवड़ का अपमान भी नहीं करना चाहिए.


भाई चारे की यात्रा
कांवड़ यात्रा शिवो भूत्वा शिवम जयेत यानी शिव की पूजा शिव बनकर की जानी चाहिए. कांवड़ को समता और भाईचारे की यात्रा भी होती है. सावन को जप, तप और व्रत का महीना माना जाता है.


कहां कहां होती है कांवड़ यात्रा?
भगवान शिव को खुश करने के लिए भक्त गंगा, नर्मदा, शिप्रा आदि नदियों से जल भरकर उसे लंबी यात्रा के बाद शिवलिंग में चढ़ाते हैं. मध्य प्रदेश के इंदौर, देवास, उज्जैन, ओंकारेश्वर, शुजालपुर आदि जगहों से कांवड़ यात्री वहां की नदियों (नर्मदा) से जल लेकर उज्जैन में महादेव पर उसे चढ़ाते हैं.


कैसा होता है कांवड़?
दरअसल कांवड़ बांस या लकड़ी से बना हुआ डंडा होता है. जिसे रंग बिरंगे पताकों, झंड़ों, धागे, फूलों से काफी सजाया जाता है. उसके दोनों सिरों पर गंगाजल से भरा कलश लटकाया जाता है. यात्रा के दौरान आराम करने के लिए कांवड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता है. कांवड़ को किसी ऊंचे स्थान या पेड़ पर लटका के रखा जाता है. साथ ही यह पूरी कांवड़ यात्रा नंगे पांव करना होता है.


कब शुरू होगी कांवड़ यात्रा
सावन शुरू होने के साथ ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत हो जाएगी. इस साल कांवड़ यात्रा 4 जुलाई से शुरू होगी. इस बार सावन शिवरात्रि 15 जुलाई 2023 को है. इस दिन जलाभिषेक किया जाएगा. 


कैसे हुई कांवड़ यात्रा की शुरुआत?
कांवड़ यात्रा की शुरुआत को लेकर काफी मान्यताएं है. इन्हीं में से एक मान्यता ये है कि जब समुद्र मंथन हुआ, तब सावन का महीना चल रहा था. मंथन के दौरान जो विष निकला था, उसे भगवान शिव ने पी लिया था. विष के कारण उनके अंदर काफी गर्मी हो गई थी. भगवान शिव की गर्मी शांति करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उनपर अलग-अलग विभिन्न नदियों से जल लेकर शिवलिंग पर चढ़ाया और इसी के साथ कांवड़ में जल लाकर भगवान शिव को अर्पित की परंपरा शुरू हुई है.