संजय लोहानी/सतनाः मध्य प्रदेश का सतना जिला अपने कांसे के बर्तन उद्योग के लिए देशभर में प्रसिद्ध है लेकिन अब इस उद्योग को ग्रहण लगता नजर आ रहा है. दरअसल युवा पीढ़ी अपनी विरासत और परंपरा से धीरे-धीरे दूर होती जा रही है, जिसके चलते परंपरागत कांसा उद्योग भी अब कमजोर होता दिख रहा है. सतना जिले का उचेहरा क्षेत्र सदियों से कांस और पीतल के बने बर्तनों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध रहा है. 


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उचेहरा क्षेत्र के घर-घर में पहले कांसे और पीतल के बर्तन बनाने का काम होता था. यहां बनने वाली थाली पूरे देश में बेची जाती थी लेकिन समय बदलने और लागत मूल्य बढ़ने के कारण अब धीरे धीरे यहां के कांसे और पीतल के बर्तनों की डिमांड कम हो रही है. आज उचेहरा में करीब 5 सौ परिवार ही इस उद्योग में लगे हुए हैं और कांसे-पीतल के बर्तन बना रहे हैं. उचेहरा में रहने वाले ताम्रकार समाज की कई पीढ़ियां इस काम को करती आ रही हैं और आज भी इस उद्योग को बिना किसी प्रशासनिक मदद के जीवित रखे हुए हैं. 


बता दें कि कांसे और पीतल के बर्तन शादी विवाह के शुभ अवसर पर उपयोग में लाए जाते थे. राजा रजवाड़ों के समय की इस परंपरा को ताम्रकार समाज के लोग आज भी जिंदा रखे हुए हैं. ये बर्तन हाथ से बनाए जाते हैं लेकिन आधुनिक समय में लोग मशीन से बने बर्तनों और स्टील के बर्तनों के मुरीद होते जा रहे हैं, जिसके चलते कांसे के बर्तनों की परंपरा छूट रही है. 


कांसे से मुख्य रूप से पीतल की थाली, लोटा, गिलास, हाड़ा, बटुई, बटुआ, चम्मच, कटोरी आदि बनाए जाते हैं और शादी विवाह जैसे शुभ अवसरों पर इनका इस्तेमाल किया जाता है. पहले के समय में घरों में इन्हीं बर्तनों का इस्तेमाल होता था लेकिन अब इनकी जगह स्टील के बर्तनों ने ले ली है. यही वजह है कि लोग भी अब अपनी विरासत भूलते जा रहे हैं.