Kargil war: करगिल में 1999 में युद्ध छिड़ने पर हर कोई अपनी जान बचाने के लिए द्रास शहर छोड़कर जा रहा था लेकिन नसीम अहमद (71) अपने पथ से एक पग भी नहीं डगमगाए और लद्दाख की दुर्गम पहाड़ियों में शत्रु सेना से लड़ रहे सैनिकों के लिए चाय और भोजन परोसते रहे.


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युद्ध खत्म होने के करीब 24 साल बाद यहां एक पुलिस थाने के समीप अब भी चाय की टपरी लगाने वाले अहमद भारतीय सैनिकों के ‘‘मित्र’’ थे और जब आसपास सब कुछ बंद था तथा द्रास में वीरानी छा गयी थी तो वह जवानों के तारणहार बन गए थे.


अहमद ने कहा, ‘‘जब करगिल युद्ध हुआ तो केवल मैं ही एक व्यक्ति था जो शहर छोड़कर नहीं गया था. एलओसी (नियंत्रण रेखा) के दोनों ओर लगातार बमबारी होती थी. गोलाबारी के कारण मकान और इमारतें मलबे के ढरे में तब्दील हो गयी थीं.’’


उन्होंने अपनी तथा अपने ‘‘मेहमानों’’ की जान बचाने के लिए चाय की टपरी के सामने पत्थरों से एक दीवार बना ली थी. उन्होंने कहा, ‘‘मैं युद्ध के दौरान यह जगह छोड़कर इसलिए नहीं गया था क्योंकि जवानों ने मुझसे नहीं जाने का अनुरोध किया था. उन्होंने मुझे कहा था कि अगर आप भी चले जाएंगे तो हमें भोजन कौन देगा.’’


सेना ने उन्हें राशन उपलब्ध कराया था और वह सैनिकों के लिए चाय तथा भोजन बनाते थे. यह पूछने पर कि क्या उन्हें डर लगता था, अहमद ने कहा, ‘‘बहुत खौफनाक मंजर था. जब बम विस्फोट होता था तो हम कांप उठते थे. पूरे दो महीने लड़ाई चली और हर दिन करीब 150 से 200 बम गिरते थे.’’


लद्दाख की ऊंची पहाड़ियों पर घुसपैठ करके गुपचुप तरीके से घुस आयी पाकिस्तानी सेना को वापस भगाने के लिए 1999 में भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन विजय’ के नाम से व्यापक जवाबी कार्रवाई की थी. करगिल के युद्ध में भारतीय सैनिकों ने कठिन मौसमी परिस्थितियों, चुनौतीपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में बेहद मुश्किल लड़ाई लड़ी और द्रास, करगिल तथा बटालिक सेक्टर से दुश्मन को खदेड़ दिया था. पाकिस्तान पर भारत की जीत की खुशी में हर साल 26 जुलाई को करगिल विजय दिवस मनाया जाता है.


(एजेंसी इनपुट के साथ)