फार्मा कम्पनियां महामारी को खत्म नहीं होने देना चाहतीं, जानिए क्या है डर का बिजनेस मॉडल
अब आप सोचिए, जब कोरोना का नया वेरिएंट इन कम्पनियों को हजारों करोड़ों रुपये कमा कर दे रहा है, तो ये कम्पनियां महामारी को खत्म होते हुए क्यों देखना चाहेंगी? इनके लिए तो नया वेरिएंट, एक नए प्रोडक्ट की तरह है, जिस पर खर्च तो कुछ भी नहीं है, लेकिन मुनाफा है 75 हजार करोड़ रुपये है.
यहां सुनें पॉडकास्ट:
वैक्सीन की जमाखोरी भी तेज
अमेरिका में 20 प्रतिशत जितनी भी वैक्सीन लग रही हैं, वो बूस्टर डोज हैं. यानी हर पांच में से एक बूस्टर डोज है. इसके अलावा अमीर देशों ने बूस्टर डोज लगाने के लिए वैक्सीन की जमाखोरी कर रखी है. अमेरिका के पास इस समय इतनी वैक्सीन है कि वो अपनी पूरी आबादी को दो बार और वैक्सीन लगा सकता है. जबकि कनाडा अपनी पूरी आबादी को तीन बार और बूस्टर डोज लगा सकता है.
ये हाल तब है, जब WHO ने अब तक बूस्टर डोज पर कोई आधिकारिक नीति नहीं बनाई हैं. लेकिन अब आप इसकी तुलना कीजिए अफ्रीकी देशों से, जहां अब तक 8 प्रतिशत लोगों को ही वैक्सीन लगी है. यानी मुनाफे का पूरा फॉर्मूला ये है कि अमीर देश बूस्टर डोज लगा कर अपनी आबादी और अर्थव्यवस्था को बचाएंगे और गरीब देशों से वायरस के जो नए नए Variants फैलेंगे, उससे इन कम्पनियों और उनके देशों को फायदा होगा.
कुल मिलाकर कहानी ये है कि दुनिया की बड़ी बड़ी फार्मा कम्पनियां महामारी को समाप्त होने देना ही नहीं चाहतीं. बल्कि वो तो चाहती हैं कि कोरोना के नए-नए वेरिएंट आते रहें और ये दुनिया वैसी कभी ना हो पाए, जैसी 2020 से पहले थी.