जयंती विशेष- उर्दू के पास मीर, गालिब, मोमिन हैं, हिंदी के पास दुष्यंत कुमार हैं!
आज उनकी जयंती पर पढ़िए उनकी 5 प्रमुख रचनाएं...
हो गई है पीर पर्वत-सी
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं
तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं
तेरी जुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह तू एक जलील-सी गाली से बेहतरीन नहीं
तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएं अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं
तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर तू इस मशीन का पुर्जा है तू मशीन नहीं
बहुत मशहूर है आएं ज़रूर आप यहां ये मुल्क देखने लायक तो है हसीन नहीं
जरा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो तुम्हारे हाथ में कॉलर हो, आस्तीन नहीं
होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये
होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये इस परकटे परिंदे की कोशिश तो देखिये
गूंगे निकल पड़े हैं, ज़ुबां की तलाश में सरकार के खिलाफ ये साजिश तो देखिये
बरसात आ गई तो दरकने लगी जमीन सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिये
जिसने नजर उठाई वही शख्स गुम हुआ इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिये
अब किसी को भी नजर आती नहीं कोई दरार
अब किसी को भी नजर आती नहीं कोई दरार घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार
आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं रहगुजर घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार
रोज अखबारों में पढ़कर यह ख्याल आया हमें इस तरफ आती तो हम भी देखते फस्ले-बहार
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म हैं आदमी या तो जमानत पर रिहा है या फरार
हालते-इन्सान पर बरहम न हों अहले-वतन वो कहीं से जिन्दगी भी मांग लायेंगे उधार
रौनके-जन्नत जरा भी मुझको रास आई नहीं मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा जरूर हर हथेली खून से तर और ज्यादा बेकरार
तू किसी रेल-सी गुजरती है
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूं वो गजल आपको सुनाता हूं
एक जंगल है तेरी आंखों में मैं जहां राह भूल जाता हूं
तू किसी रेल-सी गुजरती है मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं
हर तरफ ऐतराज होता है मैं अगर रोशनी में आता हूं
एक बाजू उखड़ गया जबसे और ज्यादा वजन उठाता हूं
मैं तुझे भूलने की कोशिश में आज कितने करीब पाता हूं
कौन ये फासला निभाएगा मैं फरिश्ता हूं सच बताता हूं