नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने गुरुवार को वर्चुअली रैली के जरिए दुर्गा पूजा के कार्यक्रम में हिस्सा लिया. उन्होंने बंगाल में एक दुर्गा पूजा पंडाल का उद्घाटन भी किया. इस मौके पर पीएम ने संत परंपरा, समाज सेवा, स्वतंत्रता सेनानी, विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करने वाली हस्त‍ियों से लेकर समाज में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली महिलाओं सहित 36 नाम गिनाए. जिनमें से एक महत्वपूर्ण नाम है मातंगिनी हाजरा. 


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ये पहला मौका नहीं है जब पीएम ने स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल हुई इस गुमनाम नायिका को याद किया हो. इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी ने अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में उनका जिक्र किया था. आइए जानते हैं एक अनपढ़, गरीब, बूढ़ी नायिका के बारे में जिसकी तुलना लोग गांधीजी से किया करते थे और उन्हें सम्मान से ‘बूढ़ी गांधी’ कहते थे. उनके जोश, उत्साह और आजादी पाने की ललक जवानों को भी पीछे छोड़ देती थी.  


18 साल की उम्र में विधवा हो गईं
मातंगिनी हाजरा नाम था उनका, एक गरीब किसान की बेटी थी. पिता ने एक साठ साल के वृद्ध से उनकी शादी कर दी, उसकी पहले से एक पत्नी थी, जिसकी मौत के बाद वृद्ध ने मातंगिनी से शादी की थी. जब मातंगिनी 18 साल की हुईं तो पति की मौत हो गई. अब वो विधवा हो गईं, पिता के घर पर भी उनके लिए आसरा नहीं था और उनका कोई बच्चा भी नहीं था. सौतेले बच्चों ने घर पर रहना मुश्किल कर दिया तो वो पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के तामलुक में ही एक झोंपड़ी बनाकर रहने लगीं, छोटा-मोटा काम करके अपना पेट पालती रहीं.


सविनय अवज्ञा आंदोलन का जुलूस
एक दिन 1932 में उनकी झोंपड़ी के बाहर से एक गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन का एक जुलूस निकला, तो बंगाली रीत रिवाज के मुताबिक मातंगिनी ने उस जुलूस का शंख बजाकर स्वागत किया. वैसे भी वो गांधी का नाम अरसे से सुनते आ रही थीं, जुलूस में कोई महिला नहीं थी, उनके मन में जो गुलामी की टीस थी, वो परिवार न होने के चलते और भी गहरी थी. वो उस जुलूस में खुद ही शामिल हो गईं. आप जानकर हैरत करेंगे कि उस वक्त उनकी उम्र 62 साल थी. उसके बाद उन्होंने नमक विरोधी कानून भी नमक बनाकर तोड़ा. जिसके चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उनको सजा मिली, कई किलोमीटर तक चलते रहने की, तपती धूप में और वो भी नंगे पैर.


चौकीदारी 'कर' रोको प्रदर्शन में लिया हिस्सा
गांधीजी उन दिनों अलग अलग इलाकों में अलग-अलग टैक्सों के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे, वहां चौकीदार कर का विरोध करने का आह्वान किया था. मातंगिनी हाजरा ने अपना एक ही उद्देश्य बना लिया था, गांधीजी के सभी आह्वान के पालन करने का, उन्होंने भी चौकीदारी कर रोको प्रदर्शन में हिस्सा लिया. वो काला झंडा लेकर सबसे आगे चलने लगीं, उनको गिरफ्तार करके 6 महीने के लिए जेल में डाल दिया गया. जेल में वो और भी गांधीवादियों के सम्पर्क में आ गईं, अनपढ़ मातंगिनी पर अब देशभक्ति का रंग पूरी तरह चढ़ने लगा था. चूंकि उनका अपना परिवार नहीं था तो वो दुख दर्द में हर महिला के काम आती थीं, तो महिलाओं को भी अपने आंदोलन से जोड़ने के काम में जुट गईं, अब धीरे-धीरे बाकी महिलाएं भी उनके प्रदर्शनों में हिस्सा लेने लगीं.


लोगों के बीच 'बूढ़ी गांधी' के नाम से मशहूर
अब वो पूरी तरह गांधीवादी बन गईं, उन्होंने एक चरखा ले लिया और खादी पहनने लगीं, बाकी महिलाओं को भी प्रेरित करने लगीं. वो कांग्रेस के कार्यक्रमों में भी शामिल होने लगीं, एक कार्यक्रम में तो लाठी चार्ज हो गया, मातंगिनी भी इसकी शिकार हो गईं. इससे क्षेत्र के लोगों में तो उनका सम्मान बढ़ गया लेकिन प्रशासन की आंखों में खटकने लगीं. उसी वक्त इलाके में चेचक, हैजा जैसी बीमारियां फैल गईं. बिना बच्चों वालीं मातंगिनी सबके लिए मां बन गईं और पूरी तन्मयता से लोगों की सेवा में जुट गईं, इससे लोग उन्हें अपना समझने लगे, वो सबके लिए रात और दिन तैयार रहती थीं. इलाके के लोग अब उन्हें सम्मान से ‘बूढ़ी गांधी ’ के नाम से पुकारने लगे, उनके लिए वो लेडी गांधी थीं.


उम्र के इस पड़ाव पर मिले इस सम्मान से उनके सारी जिंदगी के पहाड़ जैसे गम मानो कुछ दिनों में ही एकदम से गायब हो गए थे, ईश्वर से जो उनको नाराजगी थी, वो भी लगभग दूर हो गई थी. अब वो उससे बस देश की आजादी की प्रार्थना ही करती थीं, यही एक सपना उनका बाकी रह गया था. इधर 1942 में गांधीजी ने भारत छोड़ो आंदोलन का ऐलान कर दिया, और नारा दिया करो या मरो. मातंगिनी हाजरा ने मान लिया था कि अब आजादी का वक्त करीब आ गया है, वो ‘करो या मरो’ नारे को दिल में आत्मसात कर चुकी थीं.


भारत छोड़ो आंदोलन की कमान
उन्होंने पश्चिम बंगाल के तामलुक में भारत छोड़ो आंदोलन की कमान संभाल ली, उनकी उम्र 72 पार कर चुकी थी, लेकिन जोश इतना था कि रातों को भी गांव-गांव जाकर वहां के लोगों के इस आंदोलन में जुटने का आह्वान करने लगीं. तय किया गया कि मिदनापुर के सभी सरकारी ऑफिसों और थानों पर कब्जा कर लिया जाए और वहां से अंग्रेजी राज खत्म कर दिया जाए, वहां तिरंगा फहरा दिया जाए, लेकिन ये सब काम बिना हथियार के, अहिंसा से ही होगा.


मातंगिनी हाजरा के आह्वान पर हजारों महिलाएं अपने अपने घरों से निकलकर उनके मार्च में शामिल हो चुकी थीं. 29 सितम्बर 1942 का दिन था, कुल 6000 लोगों का जुलूस था, इसमें ज्यादातर महिलाएं थीं. वो जुलूस तामलुक थाने की तरफ बढ़ने लगा, प्रशासन ने पूरे इलाके में धारा 144 लागू कर दी, यानी लोग इकट्ठे नहीं हो सकते, और ये लोग तो जूलूस निकाल रहे थे. थाने से काफी दूर पर ही जुलूस रोक लिया गया. पुलिस ने चेतावनी दी, लोग पीछे हटने लगे.


मातंगिनी लोगों का उत्साह कम होते नहीं देखना चाहती थीं, वो बीच से निकलीं और सबके आगे आ गईं. उनके दाएं हाथ में तिरंगा था और कहा मैं फहराऊंगी तिरंगा, आज कोई मुझे कोई नहीं रोक सकता. ‘वंदेमातरम’ के उद्घोष के साथ वो आगे बढ़ीं. पुलिस की चेतावनी पर भी वो नहीं रुकीं तो एक गोली उनके दाएं हाथ पर मारी गई, वो घायल तो हुईं, लेकिन तिरंगे को नहीं गिरने दिया. घायल कराहती मातिंगिनी ने तिरंगा दूसरे हाथ में ले लिया और फिर आगे बढ़ने लगीं.


देशभक्ति का जुनून 72 साल की मातंगिनी हाजरा पर इस कदर हावी था कि पहली गोली लगते ही बोला वंदे मातरम, पुलिस ने फिर दूसरे हाथ पर भी गोली मारी, वो फिर बोलीं वंदे मातरम, लेकिन किसी तरह झंडे को संभाले रखा, गिरने नहीं दिया, वंदे मातरम बोलती रहीं, झंडा ऊंचा किए रहीं और थाने की तरफ बढ़ती रहीं. तब एक पुलिस ऑफिसर ने तीसरी गोली चलाई, सीधे उस बूढ़ी गांधी के माथे पर. वो नीचे तो गिरी लेकिन झंडा जमीन पर नहीं गिरने दिया, अपने सीने पर रखा और जोर से फिर बोला, वंदे मातरम, भारत माता की जय.


मातंगिनी हाजरा की देशभक्ति के आगे सभी नतमस्तक
जो लोग वंदे मातरम का विरोध करते हैं, इस देशभक्त वृद्धा की जिंदगी के ये आखिरी पलों को सुनेंगे या पढ़ेंगे तो उनकी आंखों में भी आंसू आने से नहीं रोक पाएंगे. जैसे वहां मौजूद हजारों लोग नहीं रोक पाए थे. मातंगिनी हाजरा की मौत ने क्रांति की मशाल में तेल का काम किया, कुछ ही दिनों के अंदर पूरे इलाके में सभी सरकारी दफ्तरों पर लोगों ने कब्जा कर लिया. हर पुलिस थाने पर ताला जड़ दिया गया, सभी सरकारी अधिकारियों को वहां से भगा दिया गया. स्थानीय निवासियों ने वहां अपनी खुद की सरकार घोषित कर दी. पांच साल पहले ही अपने इलाके को अंग्रेजों से आजाद घोषित कर दिया. मातंगिनी की मौत की हृदय विदारक घटना की खबर गांधीजी समेत बाकी राष्ट्रीय नेताओं को भी लगी, सभी मातंगिनी हाजरा की देशभक्ति के आगे नतमस्तक हो गए.


अंग्रेजों ने गांधीजी से गुजारिश की और गांधीजी ने मिदनापुर के लोगों से, तब जाकर उन लोगों ने सरकारी दफ्तरों से अपना कब्जा छोड़ा. साउथ कोलकाता में मातंगिनी के नाम पर एक रोड का नाम हाजरा रोड रख दिया गया. कई स्कूल उनके नाम पर खोले गए, उनके नाम से टिकट जारी किया गया. खास बात ये है कि उनकी हर मूर्ति में उनके हाथों में झंडा जरूर होता है, वो झंडा जिसके लिए उन्होंने अपनी जान दे दी वंदे मातरम के उद्घोष के साथ.  


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