DNA: प्राइवेट स्कूलों का सालाना लूट समारोह, इनका रियलिटी चेक भी जान लीजिए
Private Schools: वर्ष बदलते हैं लेकिन हालात नहीं बदले. फीस और किताबों के SET के नाम पर लुटेरों के जज्बात भी नहीं बदले हैं. महंगाई के नाम पर कॉपी किताबों की कीमतें हर वर्ष हद से ज्यादा बढ़ाई जाती हैं.
मार्च अप्रैल का महीना, बच्चों के मां-बाप के जेब कटने का महीना होता है. आमतौर पर जब कोई आपकी जेब काटता है तो आप चोर-चोर चिल्लाते हैं, लेकिन इन दो महीनों में जब मां-बाप की जेब कटती है तो वो स्कूल-स्कूल चिल्लाते हैं. किसी जेबकतरे की शिकायत आप पुलिस स्टेशन में कर सकते हैं. लेकिन जेब काटने वाले स्कूलों की आप कहीं शिकायत नहीं कर सकते हैं. बहुत मुमकिन है कि जेबकतरे को पुलिस पकड़कर जेल में भी डाल दे, आपका कुछ पैसा भी दिलवा दे, लेकिन स्कूलों पर कोई हाथ नहीं डालता है. क्या आप जानते हैं कि ऐसा क्यों हैं. ऐसा इसलिए है कि मंत्री से लेकर अधिकारी तक, नौकरी पेशा से लेकर व्यापारी तक, सभी के बच्चे किसी ना किसी स्कूल में पढ़ते हैं.
उनके बच्चों को प्रताड़ित ना किया जाए, उनके बच्चों को स्कूल से ना निकाल दिया जाए, उनके बच्चे के साथ भेदभाव ना शुरु कर दिया जाए, इस डर से सब चुप रहते हैं. और चुप्पी ही स्कूली जेबकतरों की शक्ति है. वर्ष बदलते हैं लेकिन हालात नहीं बदले..फीस और किताबों के SET के नाम पर लुटेरों के जज्बात भी नहीं बदले हैं.
- इस वर्ष स्कूलों में कॉपी-किताबों के पूरे Set की कीमत, 40 प्रतिशत तक महंगी कर दी गई हैं.
- इसमें कॉपी-किताबें करीब 30 प्रतिशत तक महंगी हुई है.
- स्कूल ड्रेस और बैग वगैरह की कीमतों में 40 प्रतिशत का इज़ाफा किया गया है.
कीमतें हर वर्ष बढ़ाई जाती हैं..
हालांकि प्राइवेट स्कूली शिक्षा की दुनिया में कुछ बातें Universal Truth है, जैसे महंगाई के नाम पर कॉपी किताबों की कीमतें हर वर्ष हद से ज्यादा बढ़ाई जाती हैं. स्कूलों में बच्चों को ये सिखाया जाता है कि पेड़ काटना नहीं चाहिए. नए पेड़ लगाने चाहिए. लेकिन यही स्कूल अपने यहां हर वर्ष बच्चों को नई क्लास के लिए नए कॉपी-किताबों का सेट खरीदने के लिए मजबूर करते हैं. पुरानी किताबों को एक तरह से अछूत घोषित कर दिया जाता है.
प्राइवेट स्कूली शिक्षा की बातें
मतलब ये है कि एक ही परिवार के अगर दो बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ रहे हों, तो स्कूल उन्हें किताबें शेयर करने की इजाज़त नहीं देता है. यानी 7वीं क्लास में पढ़ने वाली कोई बच्ची, 8वीं क्लास में पढ़ने वाली अपनी बड़ी बहन की किताबें इस्तेमाल नहीं कर सकती. उसको 8वीं की नई चमचमाती किताबें ही लेनी होंगी. और जैसा की हम कह रहे हैं कि प्राइवेट स्कूली शिक्षा की दुनिया में कुछ बातें Universal Truth है, उसमें से एक ये भी है कि किताबें छापने वाली कंपनियां और प्राइवेट स्कूलों में गहरे करीबी संबंध होते हैं, कई बार स्कूलों के ही अपने Publishing House भी होते हैं.
अलग-अलग मुद्दों पर सर्वे करने वाली संस्था Local Circle ने प्राइवेट स्कूलों की फीस और कॉपी किताबों के Set की कीमत बढ़ाने को लेकर एक सर्वे किया है. ये सर्वे देश के अलग-अलग प्रदेशों के करीब 312 जिलों में किया गया है. जिसमें अभिभावकों से स्कूल के खर्च पर बात की गई. सर्वे में 66 प्रतिशत पुरुष और 34 प्रतिशत महिलाएं शामिल की गई थीं.
- Local Circle के इस सर्वे में पता चला है कि पिछले 2 वर्षों में प्राइवेट स्कूलों की फीस में 30 प्रतिशत या उससे ज्यादा की बढ़ोतरी की गई है. सर्वे में शामिल अभिभावकों में से 50 प्रतिशत ने ये बात कही है.
- 8 प्रतिशत अभिभावकों ने माना है कि स्कूल की फीस में 50 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है.
- 42 प्रतिशत अभिभावकों ने माना है कि स्कूल की फीस 30 से 50 प्रतिशत बढ़ी है.
- अभिभावकों ने सर्वे में ये भी बताया कि स्कूल के Session की शुरुआत में नई कॉपी किताबों की लागत की वजह से खर्चे और ज्यादा बढ़े हैं.
- सर्वे के मुताबिक टियर-1 शहरों के स्कूलों की वार्षिक फीस 1 लाख से 4 लाख रुपये की बीच है.
- टियर 2 शहरों में स्कूलों की फीस सालाना 50 हजार से 2 लाख रुपये तक है.
अगर आप स्कूल जाने वाले बच्चों के मां-बाप हैं, तो आप खुद को इस वीडियो से जोड़ पाएंगे. ये एक ऐसी दुकान का वीडियो हैं. जहां स्कूल की किताबें मिलती हैं. आप जिस तरह से अपने बच्चों के लिए कॉपी किताबें खरीदते हैं. यहां पर भी वैसी खरीदारी हो रही है. ना आप कुछ बोलते हैं ना दुकानदार कुछ बोलता है, लेकिन कॉपी-किताबों के SET का लेनदेन पूरा हो जाता है. जो लोग इस प्रक्रिया को नहीं जानते हैं उन्हें बता दें कि पहले
- प्राइवेट स्कूल....कॉपी किताबों के सेट खरीदने के लिए एक पर्ची और साथ में कॉपी-किताबों की लिस्ट देता है.
- पर्ची पर पहले से निर्धारित एक खास विशेष दुकान का नाम लिखा होता है.
- आप उस दुकान पर जाते हैं, दुकानदार को वो पर्ची देते हैं.
- पर्ची लेकर दुकानदार आपको एक बैग थमा देता है, इस बैग में पहले ही वो सारी कॉपी-किताबें और स्टेशनरी मौजूद होती है जो स्कूल ने अपने लिस्ट में लिखी थी.
- ना आप दुकानदार से कुछ बोलते हैं, ना दुकानदार आपसे कुछ कहता है,
पर्ची,पैसों और किताबों का लेनदेन हो जाता है. काम खत्म.
Publishing House के मालिकों के नेक्सस..
हवाला कारोबार के नेक्सस पर तो देश की सुरक्षा एजेंसियों की नजर होती है, पुलिस उस पर कार्रवाई करती है. लेकिन प्राइवेट स्कूलों और कॉपी-किताबों वाले Publishing House के मालिकों के नेक्सस पर कभी कोई सवाल नहीं उठाया जाता है, कार्रवाई तो भूल ही जाइए. प्राइवेट स्कूलों की इस मानमानी का असर, उन मां-बाप पर पड़ता है जो अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजने को मजबूर हैं.
कई बार तो कॉपी किताबों का बिल भी नहीं दिया जाता है. अपराध की दुनिया में हवाला कारोबार भी कुछ ऐसे ही होता है. एक निशानी लेकर जाइए, दूसरे शख्स से उसकी पहचान कराइए, पैसे लीजिए या दीजिए. काम खत्म. मैच फिक्सिंग की तरह स्कूलों की ओर से फिक्स हो चुकी दुकानों में पहले से ही किताबों और नोटबुक के बंडल बनाकर रखे जा चुके होते हैं.
अभिभावकों को केवल बच्चे का नाम और उसकी कक्षा का नाम बताना होता है. केवल दो मिनट में किताबें हाथ में आ जाती हैं. अभिभावक चाहकर भी अपनी पसंद की दुकान से कॉपी किताबें नहीं खरीद पाते हैं. प्राइवेट स्कूल की Education Fixing में शामिल दुकानदार इसीलिए मनचाही कीमत पर कॉपी, किताबें, स्टेशनरी और बाकी सामान बेचते हैं. और मां-बाप उन्हें खरीदने को मजबूर होते हैं.
इस nexus को समझाने के लिए हमने एक Creative Graphics बनाया है... इसके जरिए बच्चे भी बड़ी आसानी से समझ जाएंगे कि कैसे उनके मम्मी-पापा की जेब काटी जा रही है.
प्राइवेट स्कूल, खास पब्लिशर की किताब खास जगह से खरीदनों को क्यों कहते हैं ये आप इस तरह से समझ सकते हैं कि जिन किताबों से बच्चों को ज्ञान मिलता है,..आरोप है उन्हीं किताबों की कीमत से प्राइवेट स्कूलों को कमीशन मिलती है.
ई कॉपियां, नई किताबें..नई स्टेशनरी
ई कॉपियां, नई किताबें..नई स्टेशनरी से जितना प्यार बच्चों को होता है, उससे ज्यादा प्यार प्राइवेट स्कूलों, पब्लिशिंग हाउस और दुकानदारों को होता है. बच्चों को नई चीजें देखकर खुशी मिलती है...और बाकी सभी को उससे होने वाली कमाई देखकर. स्कूलों की मनमानी हर वर्ष ऐसे ही चलती है, बच्चो के मां-बाप मन मारकर रह जाते हैं और स्कूल्स को कुछ नहीं कह पाते हैं.
स्थिति ये है कि जो किताब बाजार में 100 रुपये की मिलती है, वही किताब स्कूलों की ओर से बताई गई दुकान पर 140 रुपये तक बेची जा रही है. कीमतों में दिख रहा ये अंतर, कमीशन का गहरा खेल है. जिसको समझना एक सामान्य मां-बाप के लिए मुश्किल है. मां-बाप जब अपने बच्चों के लिए कॉपी किताबें खरीदने के लिए जाते हैं, तो वो स्कूल की लिस्ट के हिसाब से निश्चित दुकान पर फिक्स्ड प्राइस पर सामान खरीदते हैं. उन्हें प्राइवेट स्कूलों की तरफ से इतना भी अधिकार नहीं दिया जाता है कि वो दूसरी दुकान से किताबें खरीद सकें. हमने इस मुद्दे पर कुछ ऐसे अभिभावकों से बात की, जो स्कूलों की मनमानी से परेशान हैं.
कई बार अभिभावकों को प्राइवेट स्कूलों की ओर से ऐसे संकेत दिए जाते हैं, कि अगर वो फीस या स्टेशनरी संबंधित दिशा निर्देशों का पालन नहीं कर सकते, तो वो अपने बच्चों का एडमिशन कहीं और करवा सकते हैं. बस यही बात माता पिता के डर की वजह बनता है.
उन्हें मालूम है कि प्राइवेट स्कूल्स के संबंध बड़े-बड़े व्यापारी घरानों से भी होते हैं. ऐसे में अभिभावकों को स्कूलों की मनमानी के खिलाफ ना तो कार्रवाई की उम्मीद होती है, ना ही कड़े नियम कानून बनने की उम्मीद होती है.
प्राइवेट स्कूल भी बेधड़क वही करते हैं जिससे उनकी कमाई हो सके. देश में शिक्षा के हालात ऐसे है कि मां-बाप को अपने बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूल चुनने के लिए मजबूर किया जाता है. प्राइवेट स्कूल अभिभावकों की इसी मजबूरी का लाभ उठाते हैं. (Reporter's Story - VARUN BHASIN)