Aghori : अघोरी शब्द  अ+घोर से मिलकर बना है. जिसका मतलब है जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो. लेकिन एक अघोरी साधु को देखकर डर लगता है. वजह है उनका पहनावा और रहन सहन का ढंग.


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कहते हैं जिसे कोई नहीं अपनाता उसे अघोरी अपनाता है. श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस या कफ़न से लोग दूर ही रहते हैं लेकिन एक अघोरी इन्हे अपना लेता है. अघोरी, श्मशान के सन्नाटे में तंत्र साधना को अंजाम देने वाला वो समुदाय है जिसका रहस्यमयी दुनियां से आप आज तक वाकिफ नहीं है.


जानकारों के अनुसार असली अघोरी कभी आम दुनिया में सक्रिय भूमिका नहीं रखते, वो केवल अपनी साधना में ही व्यस्त रहते हैं. अघोरियों की पहचान ही यही है कि वो किसी से कुछ भी मांगते नहीं है.


अघोर संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला को पहनते हैं और नर मुंडों को पात्र के तौर पर लेते है. चिता के भस्म का शरीर पर लेपन और चिताग्नि पर भोजन पकाना ये सब काम रोजना के हैं. अघोर दृष्टि में कोई स्थान बुरा नहीं होता है इसलिए एक अघोरी के लिए महल या श्मशान घाट एक समान हैं.


वाराणसी या काशी प्रमुख अघोर स्थान हैं. भगवान शिव नगरी होने के कारण यहां कई अघोरी साधना करते हैं. इसके अलावा गुजरात के जूनागढ़ का गिरनार पर्वत पर भी इनका बसेरा माना जाता है. स्वभाव में रूखे अघोरी जन कल्याण की भावना लिए होते हैं. कहते हैं कि अगर कोई अघोरी प्रसन्न हो जाए तो शुभ फल की प्राप्ति होती है. 


मान्यता है कि अघोरी की बोली से सावधान रहा जाए क्योंकि अगर ये रूष्ठ हो जाए तो किस्मत को पलट कर रख सकते हैं. आमतौर पर तो अघोरी किसी से बात नहीं करते और साधना में व्यस्त रहते हैं. जब तक इन्हे परेशान ना किया जाए ये किसी को परेशान नहीं करते हैं.


अघोरी, श्‍मशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं - श्‍मशान साधना, शिव साधना, शव साधना
शिव साधना में शव के ऊपर पैर रखकर खड़े रहकर साधना की जाती है. मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाया जाता है.


शव और शिव साधना के अतिरिक्त तीसरी साधना होती है श्‍मशान साधना, जिसमें आम परिवारजनों को भी शामिल किया जा सकता है. इस साधना में मुर्दे की जगह शवपीठ की पूजा की जाती है. उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है. यहां प्रसाद के रूप में भी मांस-मंदिरा की जगह मावा चढ़ाया जाता है.


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