Independence Day 2023: आजादी का 77 वां स्वतंत्रता दिवस पर्व मनाने जा रहे है. आजादी का प्रतीक हमारा राष्ट्रध्वज तिरंगा हमारी आन बान और शान है. ऐसे में आज जानेंगे कि कैसा रहा हमारे तिरंगे का सफर. 15 अगस्त वो तारीख है जब देश का हर नागरिक बड़े ही जोरो-शोर से इसे सेलिब्रेट करता है. इस जश्न में राजस्थान का नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो चुका है.


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आजादी का पहला राष्ट्रध्वज तिरंगा राजस्थान के दौसा में बना था. बताया गया है कि वही तिरंगा 15 अगस्त 1947 को ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर से देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने फहराया था. आज भी दौसा खादी समिति के इस बात की गवाही दे रहा है. आज भी सैंकड़ों बुनकर राष्ट्रध्वज तिरंगे के निर्माण में बड़े ही शान से बुनकर इस सेलिब्रेट के जश्न में चार चांद लगा रहे हैं. इन बुनकर कह रहे है कि मेरी जान तिरंगा है मेरी शान तिरंगा है. 


देशपाण्डे लेकर पहुंचे थे तिरंगा


15 अगस्त 1947 को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लाल किले पर तिरंगा झंडा फहराया था. वह राजस्थान दौसा जिले के आलूदा गांव में बना था. उस समय आलूदा गांव में रहने वाले सैकड़ों बुनकर परिवार को श्रेय जाता है. महात्मा गांधी के विचारों से इतने प्रभावित हुए चरखा कातते थे. इसके जरिए स्वावलंबन से लेकर स्वदेशी तक की शिक्षा इन्हें देते थे. उन्हीं के चरखे से कात कर हाथों से तिरंगे ध्वज को रंगकर स्वतंत्रता सेनानी देशपाण्डे जी दिल्ली लेकर गये थे. जहां आजादी का पहला  तिरंगा ध्वज दौसा का ही फहराया गया था.


आज भी दौसा गौरवान्वित महसूस करता


इंदिरा गांधी ने 1930 में 'बाल चरखा संघ' की स्थापना की, जहां बच्चों को सूत कातना और बुनाई करना सिखाया जाता था. आजादी से पहले चरखा संघ हुआ करता था और इसके संचालक देशपांडे होते थे. देशपांडे ने आजादी के समय आलूदा गांव के चौथमल बुनकर द्वारा तिरंगे का कपड़ा तैयार करवाया और उसे दिल्ली लेकर गए थे. ये बुनकर चौथमल ने करीब 2 माह में तिरंगे का कपड़ा तैयार किया था. आजाद भारत के पहले तिरंगे का कपड़ा (First tiranga cloth of Independent India) तैयार करने वाले चौथमल बुनकर अब इस दुनिया में नहीं हैं. उनके परिवार के सदस्य भी आलूदा में नहीं रहते हैं.


तिरंगे का इतिहास दौसा से जुड़ा है


हालांकि, चौथमल बुनकर के छोटे भाइयों का परिवार अभी भी आलूदा में है और वे बुनकरों का ही काम करते हैं. आजाद भारत के पहले तिरंगे का कपड़ा बनाने वाले चौथमल बुनकर का नाता आलूदा गांव से होने के चलते उनके परिवार के लोग आज भी गौरवान्वित हैं. तिरंगे का इतिहास दौसा से जुड़ा होने के कारण गौरवान्वित महसूस करता है. स्वतंत्रता सेनानी टाट साहब ने इस कपड़े पर तिरंगा रंग चढ़ाया था.


1967 में दौसा खादी की स्थापना


आजादी के बाद साल 1967 में दौसा खादी की स्थापना हुई. तभी से दौसा के बनेठा और जसोदा में तिरंगे झंडे का कपड़ा तैयार किया जाता है.  तिरंगे के कपड़े को बनाने के बाद प्रोसेसिंग यूनिट भी दौसा में स्थापित करने के लिए अनेक प्रयास हुए लेकिन दौसा में फ्लोराइड युक्त पानी होने के कारण प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित नहीं हो सकी. ऐसे में आज भी तिरंगे का कपड़े को प्रोसेसिंग के लिए मुंबई भिजवाया जाता है. इसके पीछे बड़ी वजह है. इसकी प्रोसेसिंग. मुंबई से तिरंगा तैयार होने के बाद पुनः दौसा आता है और यहां से इसे बाजार में भिजवाया जाता .


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ऐसा नहीं है कि पूरे देश में केवल दौसा में ही तिरंगे का कपड़ा तैयार किया जाता है. देश के मराठवाड़ा, हुगली, बाराबंकी और ग्वालियर में भी तिरंगे के कपड़े को तैयार किया जाता है. इनमें से मराठवाड़ा और हुगली में कपड़ा बनाने के साथ-साथ प्रोसेसिंग यूनिट भी स्थापित की गई है.