Rajasthan News: दीपावली का अर्थ है दीपों की माला, लेकिन आधुनिक युग में इसके शाब्दिक अर्थ तो हैं पर त्योहारों में दीपक कम नजर आते हैं. दीपावली का त्योहार नजदीक आने के साथ ही अब तैयारियां भी जोर पकडऩे लगी हैं. दीपावली को देखते हुए शहर व ग्रामीण इलाकों में कुंभकार भी दीपक व मिट्टी के दीपक बनाने में जुट गए हैं, तो वही, महंगाई का असर अब मिट्टी के दीयों पर भी साफ नजर आने लगा है, लेकिन दीपावली जैसे पर्व पर मिट्टी से बने दीयों की मांग अब भी बरकरार है. 


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कमरतोड़ महंगाई का असर 
इस पुश्तैनी धंधे को जहां अब तक आधुनिकता की ही मार झेलनी पड़ रही थी, लेकिन इस बार कमरतोड़ महंगाई का असर उनके रोजगार पर भी साफ तौर पर दिखाई दे रहा है. आधुनिक युग में चाइनीज लाइटों के आगे मिट्टी के ये दिए फीके पड़ने लगे हैं, लेकिन कुंभकार समाज के दृढ़ संकल्प के चलते यह परंपरा आज भी जिंदा है. 



मिट्टी के दीपों की मांग कम
दरअसल, समय के साथ बदलते इस समाज में मिट्टी के दीपों की मांग कम हो चुकी है, लेकिन आज भी इनका प्रचलन बाजार में देखा जा सकता है और वह भी इन कुम्हारों की बदौलत. कुंभकार वर्षों से चली आ रही परंपरा को जिंदा रखने के लिए लगन और कड़ी मेहनत से इसमें जुटे हुए हैं. कुंभकार आज भी दीपावली के त्योहार पर सदियों से चले आ रहे मिट्टी के दीपक बनाने की परंपरा आज भी निभा जा रहे है. महंगाई की मार कुम्हार परिवारों के इस पुश्तैनी व्यवासय पर भी पड़ा है, लेकिन उतना भी नहीं कि इस पेशे को छोड़ने पर मजबूर हो. लेकिन आने वाली पीढ़ी आधुनिकता के दौर में यह सब काम नहीं करेगी. 



चाइनीज लाइटों के आगे फीके पड़ रहे मिट्टी के दीये
कुंभकार बताते है कि मेहनत भरे काम में कमाई कम रह गई है. जब बाजार में चाइनीज लाइटें नहीं हुआ करती थी और देशी झालर खासी महंगी होती थी तो लोग दीयों को जलाकर पर्व पर घरों को रोशन किया करते थे. बदले हुए परिवेश में सस्ती चाइनीज लाइटों ने मिट्टी के दीयों का दिवाला निकाल कर रख दिया है. लोग घरों को लाइटों से सजाते हैं तो मिट्टी के दीयों को महज पूजन तक सीमित रखते हैं. पहले यहाँ पर 10-15 लोगों के घरों में दिए बनाने का काम कुम्हार करते थे, लेकिन बदलते परिवेश के साथ अभी सब बदल गया है. ऐसे में लोगों की सोच की प्रवृत्ति का गहरा झटका दीया बनाने वाले आज कुम्हार परिवार उठा रहे हैं.



महंगाई के चलते नहीं निकल पाती है मजदूरी 
इस पुश्तैनी काम में जुटे परिवारों का कहना है कि इस महंगाई के दौर में अब उनकी मजदूरी भी नहीं पा निकल रही है. उन्होंने बताया कि चाक का पानी व मिट्टी औषधि का काम करती है. मिट्टी गढ़कर उसे आकार देने वालों पर शायद धन लक्ष्मी मेहरबान नहीं है. इसके चलते कई परिवार परंपरागत धंधे से विमुख होते जा रहे हैं. दीपावली पर मिट्टी का सामान तैयार करना उनके लिए सीजनेबल धंधा बनकर रह गया है. अब हालात यह है कि यदि वे दूसरा धंधा नहीं करेंगे तो दो जून की रोटी जुटा पाना कठिन हो जाएगा. लच्छाराम प्रजापत बताते है की भले ही शहरों में मिट्टी की जगह इलेक्ट्रॉनिक दीयों का उपयोग करने लगे हैं लेकिन एक हकीकत यह भी है कि मिट्टी के दीयों की जगह बिजली के दीए कभी नहीं ले सकते और यही कारण है जो हम जैसे कुम्हार परिवारों को अपने इस पुश्तैनी व्यवसाय से आज भी जोडे़ रखा है.



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