Kissa Siyasi on Rajasthan Politics : राजस्थान की सियासत से जुड़ी सीरीज किस्सा सियासी में आज बात दो दिग्गज जाट नेताओं के बीच. सगे चाचा और भतीजे के बीच हुए सियासी युद्ध की. बात नाथूराम मिर्धा और रामनिवास मिर्धा के बीच हुए 1984 के नागौर लोकसभा चुनावों की. दरअसल मिर्धा परिवार की गिनती राजस्थान की राजनीति के, जाट राजनीति के केंद्र के रूप में होती थी. आजादी से पहले बलदेवराम मिर्धा जोधपुर रियासत के आईजी थे. किसान महासभा बनाकर किसानों के हितों में संघर्ष किया.


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आजादी के बाद जब 1951-53 में पहले चुनाव हुए. तो किसान महासभा का कांग्रेस में विलय हो गया. लेकिन बलदेवराम मिर्धा खुद चुनाव नहीं लड़े. छोटे भाई नाथूराम मिर्धा को चुनाव लड़वाया. नाथूराम मिर्धा ही वो नेता थे जिन्होनें राजस्थान का पहला बजट पेश किया था. खैर, जब नाथूराम मिर्धा चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे. तब बलदेवराम मिर्धा के बेटे रामनिवास मिर्धा राज्य सेवा में थे. लिहाजा नाथूराम ने उनको सचिव बनवा दिया. 1953 में हुए एक उपचुनाव में जीताकर विधायक भी बनवा दिया. यानि दोनों नेता चाचा नाथूराम मिर्धा और भतीजे रामनिवास मिर्धा कांग्रेस पार्टी के बेनर तले अपनी सियासत को आगे बढ़ा रहे थे.


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साल 1977 में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी की सरकार बनी. केंद्र में भी कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई. राज्य में भी वही हाल हुए. भैरोसिंह शेखावत के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी. हालांकि ये भानुमति का कुनबा कुछ ही वक्त में बिखर गया. इधर रामनिवास मिर्धा 1954 से 57 तक सुखाड़िया सरकार में मंत्री रहे. उसके बाद करीब 10 साल तक विधानसभा अध्यक्ष रहे. और 1967 के बाद राज्यसभा सांसद बनकर दिल्ली चले गए. 1980 के चुनावों से पहले कांग्रेस टूट गई. कांग्रेस इंदिरा और कांग्रेस उर्स. रामनिवास मिर्धा तो कांग्रेस इंदिरा गुट में रहे. लेकिन नाथूराम मिर्धा कांग्रेस उर्स गुट के साथ चले गए. 1980 में कांग्रेस उर्स से चुनाव जीते भी. जब 1984 के चुनाव आए तो वो लोकदल के टिकट पर नागौर सीट से मैदान में उतरे.


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1984 के चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या के बाद में हुए चुनाव. इधर राजीव गांधी को ऐसे शख्स की तलाश थी. जो नाथूराम मिर्धा जैसे कद्दावर नेता को नागौर सीट से टक्कर दे सके. एक दिन रामनिवास मिर्धा को बुलाया. और कहा- आपको नागौर से चुनाव लड़ना है. रामनिवास मिर्धा के लिए ये धर्मसंकट की स्थिति थी. जिस चाचा ने सियासत का ककहरा सिखाया. जिस नाथूराम की छतरी के नीचे रहकर सियासी तपीश में भी खुद को बचाए रखा और लगातार तरक्की करते गए. आखिर उसी चाचा के खिलाफ कैसे चुनाव लड़ते. लेकिन पार्टी का आदेश था. चुनाव लड़ना पड़ा. चुनाव परिणाम आए. चाचा नाथूराम चुनाव हार गए. भतीज रामनिवास करीब 48 हजार वोटों से नागौर सीट जीत गए.